विराग गुप्ता, अधिवक्ता एवं संविधानविद :
संघ लोक सेवा आयोग (यूपीएससी) में सीसैट परीक्षा प्रणाली (सिविल सर्विसेज ऐप्टिट्यूड टेस्ट) ला कर युवाओं के भविष्य से खिलवाड़ के लिए जहाँ पूर्ववर्ती यूपीए सरकार जिम्मेदार है, वहीं भाजपा सरकार के लिए यह एक बड़ी चुनौती है।
सरकार को संघ लोक सेवा आयोग की स्वायत्ता में हस्तक्षेप किये बगैर राजभाषा को उसके संवैधानिक स्थान पर प्रतिस्थापित करने का राष्ट्रीय एवं संसदीय उत्तरदायित्व निभाना है। इस समस्या को समझने के लिए हमें सिविल सेवा एवं अंग्रेजी भाषा की प्रधानता की पृष्ठभूमि में जाना पड़ेगा।
मैकाले के विचारों पर आधारित सन 1854 में स्थापित सिविल सेवाओं में चयन की प्रक्रिया ब्रिटेन में अंग्रेजी शिक्षा प्रणाली के अनुरूप होती थी, जिसमें आम भारतीयों की नगण्य भागीदारी थी। आजादी के योद्धाओं के संघर्षों के बाद 20वीं शताब्दी में सिविल सेवा के चयन की प्रक्रिया लोक सेवा आयोग के माध्यम से भारत में प्रारंभ हुई और यह पहली सफलता थी। आजादी के बाद संविधान के प्रावधान के अनुरूप अखिल भारतीय सेवाओं का सृजन किया गया, जिसके परीक्षा एवं चयन का उत्तरदायित्व संविधान के अनुच्छेद 320 के तहत संघ लोक सेवा आयोग को सौंपा गया।
इन परीक्षाओं की चयन प्रणाली 100 वर्षों के बाद भी अंग्रेजी माध्यम में अभिजात्य वर्ग के अनुकूल ही थी, जिसके सुधार के लिए प्रशासनिक सुधार आयोग एवं कई समितियों की अनुशंसाएँ आयीं। जनभावनाओं एवं संविधान के अनुच्चेद 343, 344 एवं 345 के अनुरूप भारतीय सिविल सेवा में भारतीय भाषाओं एवं राजभाषा हिंदी की महत्ता स्थापित करने के लिए संसद के दोनों सदनों द्वारा सन 1968 में एक प्रस्ताव पारित किया गया। केंद्रीय हिंदी समिति द्वारा इस प्रस्ताव के अनुपालन के प्रसिद्ध शिक्षाविद, वैज्ञानिक डॉ. दौलत सिंह कोठारी की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया गया, जिसकी अनुशंसाओं के अनुरूप सिविल सेवाओं के वर्ष 1979 के बाद नयी परीक्षा प्रणाली लागू की गयी। इसमें हिंदी माध्यम से परीक्षा देने के अलावा अन्य भारतीय भाषाओं को वैकल्पिक विषय के तौर पर मान्यता प्रदान की गयी। इससे हिंदी समेत अन्य भारतीय भाषाओं में पढ़े हुए होनहार परंतु गरीब, ग्रामीण एवं आदिवासी नौजवानों की सिविल सेवा में भागीदारी का अवसर मिला और यह सफलता का दूसरा चरण था।
सरकार एवं यूपीएससी के कुछ लोगों को यह व्यवस्था स्वीकार नहीं थी। परीक्षा प्रणाली के पुनरावलोकन के नाम पर बगैर किसी कानूनी वैधता के श्री एस. के. खन्ना समिति की रिपोर्ट के आधार पर सिविल सेवाओं में सीसैट प्रणाली लागू कर दी गयी, जिसका इस समय देशव्यापी विरोध हो रहा है। इस व्यवस्था को दिल्ली उच्च न्यायालय में भी चुनौती दी गयी। माननीय न्यायालय ने दिनांक 31 मई 2013 को पारित आदेश में नयी प्रणाली की प्रक्रिया एवं संवैधानिकता पर गंभीर टिप्पणियाँ की और यह निर्देश दिया कि केंद्र सरकार 9 महीनों के भीरत सीसैट प्रणाली पर न्यायपूर्ण एवं संवैधानिक निर्णय ले। इस संदर्भ में श्री अरविंद वर्मा की अध्यक्षता में तीन सदस्यीय समिति का गठन किया गया, जिसकी रिपोर्ट को जल्दी देने के बारे में केंद्र सरकार द्वारा निर्देश दिये गये हैं। इस आधार पर वर्तमान सरकार द्वारा समस्या के तात्कालिक समाधान के प्रयास किये जा रहे हैं। यूपीएससी की सीसैट की असंवैधानिक प्रणाली को 2011 में यूपीए सरकार ने लागू किया था, जिसने उच्च न्यायालय के आदेश के बावजूद समय-सीमा के अनुसार उचित निर्णय नहीं लिये। वर्तमान भाजपा सरकार को पूर्ववर्ती नौकरशाही ही चला रही है, जो राजभाषा से जुड़े गंभीर संवैधानिक-विधिक पक्षों के क्रियान्वयन के लिए गंभीर नहीं है, जिस वजह से ये समस्याएँ पैदा हुई हैं।
नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में नयी सरकार ने पहले दिन से ही हिंदी एवं अन्य भारतीय भाषाओं के प्रयोग के बारे में साहसिक निर्णय लिये हैं। वे इस विषय की मूल समस्या को ठीक करने का प्रयास करेंगे, ऐसी जनापेक्षा है। भारत के संविधान के अनुच्छेद 343-345 के अनुरूप हिंदी राजभाषा है और तात्कालिक तौर पर अंग्रेजी को संपर्क भाषा के तौर पर इस्तेमाल किया जा रहा है। इसलिए न सिर्फ यूपीएससी वरन् अन्य केंद्रीय कार्यालयों में मौलिक लेखन की प्रक्रिया में हिंदी में होनी चाहिए और उसका अनुवाद अंग्रेजी में होना चाहिए। इस बिंदु पर व्यापक चर्चा, सहमति, निर्णय एवं प्रभावी क्रियान्यवन आवश्यक है। क्या मोदी सरकार यूपीएससी प्रणाली में बदलाव के इस ऐतिहासिक संक्रमण में राजभाषा हिंदी अनुवाद को दोयम दर्जे से मुक्त कर, मौलिक लेखन की राजरानी बना सकेगी? क्या नयी सरकार राजभाषा हिंदी के लिए संवैधानिक प्रावधानों और संसदीय प्रस्तावों को लागू करा कर देश की जनता को असली एवं निर्णायक भाषायी आजादी दिला सकेगी? इन यक्ष प्रश्नों का उत्तर आने वाले दिनों में मिल सकेगा। परीक्षा प्रणाली में सवालों की पद्धति में सतही परिवर्तन के लॉलीपॉप से यह संघर्ष अगर खत्म हो गया तो अंग्रेजी के ही अच्छे दिन चलते रहेंगे और आम भारतीय अंग्रेजी की दौड़ में लँगड़ा कर दोयम दर्जे का ही बना रहेगा।
(देश मंथन, 31 जुलाई 2014)