संजय सिन्हा, संपादक, आजतक :
कल किसी ने मुझे एक चुटकुला मैसेज किया। चुटकुला पढ़ कर मुझे हँसना चाहिए था, लेकिन मैं सारी रात सोचता रह गया। आइये पहले उस चुटकुले को आपसे साझा करता हूँ, फिर क्या सोचता रह गया इसे भी साझा करूँगा।
(चित्र : राजेंद्र तिवारी)
चुटकुला इस तरह है –
एक चीनी बादशाह जब मरा तो उसके खाते में करोड़ों डॉलर पड़े थे। उसकी मौत के कुछ दिनों बाद उसकी जवान विधवा ने घर के एक जवान नौकर से शादी कर ली।
नौकर कुछ दिनों बाद अपने एक साथी से कह रहा था कि पहले उसे लगता था कि वह अपने मालिक के लिए काम करता है। लेकिन अब लगने लगा है कि मालिक उसके लिए काम कर रहा था।
यह छोटा-सा चुटकुला पढ़ कर मुझे ठहाके लगाने चाहिए थे। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। मैं सोचता रह गया कि कितनी बड़ी बात उस नौकर ने कही। उसे लगता रहा कि वह मालिक के लिए काम करता है, जबकि हकीकत यह निकली कि मालिक नौकर के लिए काम कर रहा था, उसके लिए इतना धन संचित करता रहा।
इस चुटकुले को पढ़ कर मुझे लगने लगा कि सचमुच हम अधिक-से-अधिक धन संचित करने की जगह जीवन को जीने का प्रयास करें तो ज्यादा बेहतर नहीं होगा?
बस यही ख्याल मन में आया और मेरी नींद उड़ गयी। सोचने लगा कि आदमी अपने जीवन में अपनी कमाई का बहुत बड़ा हिस्सा खर्च नहीं कर पाता है। उसकी मेहनत का वह हिस्सा कोई और भोगता है। इसे मैं बहुत बारीक तरीके से सोचता चला गया।
मुझे याद आने लगा कि मेरी माँ कैसे अपनी तमाम महँगी साड़ियाँ अपनी आलमारी में सहेजती रही। उसके पास कई बनारसी सा़ड़ियाँ थीं, जिसका उसने मन-ही-मन हिसाब लगा रखा था कि वह इस शादी में ये वाली पहनेगी और उस शादी में वो वाली। उसकी सारी साड़ियाँ धरी की धरी रह गयीं। इस संसार से उसके जाने के बाद उसके रिश्तेदारों ने उन साड़ियों को काट-काट कर ब्लाउज बना लिया, कुछ और बना लिया।
मुझे उन साड़ियों के रंग याद हैं, उनकी कतरनों के रंग भी याद हैं।
उलझन में मैंने रात में अपनी आलमारी खोली, तो हैरान रह गया। मेरे पास कम-से-कम दो सौ कमीजें होंगी। उनमें से कइयों के टैग तक अभी नहीं उतरे। जब कहीं जाता हूँ, जो कमीज पसंद आती है, खरीद लेता हूँ। सोचता हूँ ये पहनूँगा, वो पहनूँगा। इस मौके पर पहनूँगा, उस मौके पर पहनूँगा। लेकिन नहीं पहन पाता। सबसे दुखद बात तो यह है कि एक बार जब कमीज आलमारी में टँग जाती है तो यह भी भूल जाता हूँ कि मेरे पास वह है भी। कई बार ऐसा हुआ है कि दुकान से दोबारा उसी तरह की दूसरी कमीज खरीद लाया और घर आकर याद आया कि ओह, यह तो दोबारा वही ले आया हूँ।
आलमारी में इतने सारे सूट टँगे नजर आये कि समझ में नहीं आया कि इनका वाकई करूँगा क्या? कम-से-कम 70 फीसदी कपड़े ऐसे हैं, जिन्हें मैंने अब तक इस्तेमाल ही नहीं किया है। सोच का दायरा बढ़ा तो लगने लगा कि अपने ही घर के 70 फीसदी हिस्से का मैं कोई इस्तेमाल नहीं करता। अपने इतने महँगे फोन की 70 फीसदी सुविधाओं के बारे में मुझे पता भी नहीं है, इस्तेमाल क्या करूँगा? अपनी कार के भी 70 फीसदी गुणों का मुझे न तो पता है, न कभी काम आने वाले हैं। मसलन एक कार जब मैंने खरीदी थी तो लाख रुपए इसलिए ज्यादा दिये थे क्योंकि उसमें सन रूफ था। लेकिन अचानक याद आया कि आज तक सिर्फ एक बार उसे खोल कर अपने एक दोस्त को दिखाया था, फिर कार की छत का वह हिस्सा कभी खुला ही नहीं।
यही सोच-सोच कर बिस्तर पर पड़ा रहा। उस नौकर की बात मन में चुभती रही कि उसे लगता था कि वह अपने मालिक के लिए काम करता है, लेकिन हकीकत में उसका मालिक अपने नौकर के लिए काम कर रहा था।
मुझे लगने लगा कि क्या मैं भी दूसरों के लिए काम कर रहा हूँ? क्यों इतनी कमीजें मैंने खरीदीं? इतनी गाड़ियों की दरकार ही क्यों है? मकान पर मकान जमा करके करूँगा क्या? पुराने जमाने में तो संयुक्त परिवार होता था, सबके पास कमाई के इतने अवसर नहीं होते थे, लेकिन आज न तो संयुक्त परिवार है, न कोई बिना कमाये रहने वाला है, तो फिर इतनी मारामारी क्यों?
पहले लोगों को डर होता था कि मेरे बिना मेरी पत्नी क्या करेगी? बच्चे क्या करेंगे? लेकिन जिसकी पत्नी खुद कमाती हो, उसे संचय की क्या जरूरत है? बच्चे अगर अच्छी पढ़ाई कर लें, तो उनके लिए क्या जमा किया जाये? ऐसे फोन में पैसे क्यों खर्च किये जायें, जिसकी सुविधाओं का कभी इस्तेमाल नहीं होना?
बस इसी उलझन में उलझा रहा। मन में पक्का कर चुका हूँ कि अब और नहीं। अब चाहे जितने दिन रहूँ, जीवन को जीना है। जीवन को जीने की तैयारी में बाकी का जीवन नहीं खर्च करूँगा।
(देश मंथन, 9 सितंबर 2014)