आप : गतांक से आगे का आख्यान

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सुशांत झा, स्वतंत्र पत्रकार :

यह एक व्यंग्य है, कृपया तथ्य ढूंढेंगे तो आपकी हालत योगेंद्र यादव सी हो सकती है!

केजरी और यादव-भूषण झगड़े का जोड़ हमारे महान इतिहास-पुराण में जरूर कहीं न कहीं होगा।

श्रीलंका मामलों के एक फेसबुकिया जानकार ने बताया है कि रावण-विभीषण का झगड़ा ऐसा ही था। हालाँकि तुलना अटपटी लग रही है (मानो सोवियत प्रणाली की तुलना महाराष्ट्र के चीनी कॉपरेटिव से की जा रही हो!)। कहते हैं कि लंका के वोट बैंक में रावण जबर्दस्त पॉपुलर था, लेकिन विभीषण नैतिक आदमी था। रावण ने जब सीता रूपी नैतिकता का अपहरण कर लिया, तो विभीषण ने उसे भी चिट्ठी लिखी थी। रावण ने चिट्ठी लीक करवा कर उसे पॉलिटिकल अफेयर कमेटी से निकलवा दिया था। रावण-वादी इतिहासकारों ने विभीषण को दगाबाज और न जाने क्या-क्या घोषित कर दिया। उसके बाद समानता खत्म हो जाती है, क्योंकि विभीषण ने राम से डील कर लिया और बाद की कहानी सबको मालूम है।

उस जमाने में भी साम्यवादी महादेव ने शुरू में रावण का साथ दिया था कि यह जनवादी टाइप का लगता है, लेकिन बाद में वे समझ गए कि रावण अंदर से कॉरपोरेट है तो वे भी छिटक गए।

महाभारत के एक फेसबुकिया जानकार ने केजरी-यादव की तुलना कृष्ण-बलदेव से की है। कृष्ण ऊपर से जनवादी थे और अंदर से कॉरपोरेट। उन्होंने इंद्र और कंस के खिलाफ जनांदोलन किया था, लेकिन बाद में युद्धिष्ठिर-अर्जुन के चीफ एडवाइजर बन गए थे। दूसरी तरफ बलदेव अक्खड़ थे, वे कश्मीर में जनमत-संग्रह टाइप बयान दे देते थे, दुर्योधन को आर्शीवाद दे देते थे, जबकि कृष्ण असली कलाकार थे, वे ग्वालों की बिजली भी माफ कर देते थे और अर्जुन के पक्ष में इजराइल जैसे देशों से सैन्य समझौता भी करवा आते थे। उन्होंने भी बड़ी चालाकी से बलदेव को पॉलिटिकल अफेयर कमेटी से निकलवा कर देशाटन पर भेज दिया था। बाद में कृष्ण ने NCERT के इतिहासकारों से साठगांठ कर इतिहास की किताबों में बलदेव को बहुत कम स्थान लेने दिया। 

वहीं आधुनिक इतिहास के एक फेसबुकिया जानकार ने इसकी एक तीसरी तुलना भी दी हैं, इसमें जातिवाद की चाशनी भी है। गांधी की तरह केजरी भी बनिया हैं और लोकप्रिय भी। दूसरी तरफ सुभाष की तरह की तरह भूषण भी तीक्ष्ण हैं और कायस्थ भी (हालाँकि सुभाष की तरह भूषण लोकप्रिय नहीं है!) लेकिन जब सुभाष कांग्रेस का चुनाव जीत गये, तो गांधी ने पॉलिटिकल अफेयर्स कमेटी का दबाव डाल कर सुभाष को आउट होने पर मजबूर कर दिया और अपने नेचुरोपैथी में मगन रहे!

कम्यूनिस्ट मामलों के एक फेसबुकिया जानकार ने इसकी एक और तुलना प्रस्तुत की है। वो तुलना है पीसी जोशी और बीटी रणदिवे की। जोशी को कई लोग मॉडरेट मानते थे और रणदिवे रण-बांकुरा टाइप थे। जोशी को पार्टी से तड़ीपार कर दिया गया और बाद में उनका ढीला ढाला सा पुनर्वास हुआ। 

वहीं कुछ मित्रों ने एकाध रूसी-चीनी तुलना भेजी है, जिसमें मुझे कोई दिलचस्पी नहीं है। मुझे वैसे भी दरभंगा की तुलना कोट्टायम से करने की आदत है।

(देश मंथन, 12 मार्च 2015)

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