विकास मिश्रा, आजतक :
मेरे पिताजी खाने की थाली में कुछ नहीं छोड़ते। खाने के बाद थाली बिल्कुल साफ। अगर परोसने में रोटी जमीन पर गिर जाती है तो उसे उठाकर वे थाली में रख लेते हैं।
बाबूजी का ये रूप बचपन से देखते आये हैं हम लोग। कई बार लगा कि इलाके के इतने बड़े आदमी हैं, जमीन पर गिरा थाली में रख लेते हैं..। नौजवान हुए तो बाबूजी से पूछ लिया। बाबूजी बोले- ये ईश्वर की कृपा है कि हमें अन्न मिल रहा है, बहुतों को दो वक्त का भोजन नसीब नहीं होता। अन्न का एक भी दाना बर्बाद नहीं होना चाहिए। भोजन और निद्रा में कुत्ते की तरह आचरण होना चाहिए। खाओ तो थाली साफ करके जैसा कुत्ता खाता है और जैसे जरा सी आहट पर कुत्ते की नींद खुलती है, वैसे ही इंसान की नींद भी एक ही खटके में खुल जानी चाहिए।
बाबूजी की बात दिल को लग गयी तो वहीं से आदत पड़ गयी। मैंने भी थाली में कभी भी कुछ नहीं बचाया। कहने में बिल्कुल संकोच नहीं कि कई बार खाने के बाद थाली को जीभ से चाटकर चमका भी देता हूँ।
थाली में कुछ लोग ‘प्रतिष्ठा’ छोड़ने को शान समझते हैं। प्रतिष्ठा मतलब थोड़ा सा खाना बचा देना। एक आदमी ससुराल गया, उसके पिताजी ने समझाकर भेजा था कि थाली में प्रतिष्ठा जरूर छोड़ना। खैर.. ससुराल में उसे खाना परोसा गया। उसने थोड़ा सा थाली में प्रतिष्ठा के नाम पर छोड़ दिया। अगले वक्त उसे उतना खाना कम परोसा गया। फिर उसने प्रतिष्ठा छोड़ा। एक रोज उसकी थाली में उतना ही परोसा गया, जिसना वो प्रतिष्ठा में छोड़ता था। अब वो क्या करता, सिर ऊपर उठाकर बोला- बाबूजी माफ करना, आज तो प्रतिष्ठा ही खोनी पड़ेगी।
इलाहाबाद में मेरा एक दोस्त था, उसकी आदत बहुत गंदी थी। कुछ न कुछ थाली में छोड़ता जरूर था। मैंने कई बार टोका। वो कुतर्क देता- थाली साफ कर जाने का मतलब ये है कि मैं एक कौर ज्यादा खा सकता था। कुछ बचने का मतलब ये है कि पेट भर गया और नहीं खा सकता। ये बात मुझे कभी पची नहीं। दुर्योग देखिए वो दोस्त अभी सलाखों के पीछे है। खाने की बर्बादी करने वाले मुझे कभी जंचे नहीं। कई बार घर आये मेहमानों को देखता हूँ, पार्टियों में देखता हूँ प्लेट में खाना भर लिया, आधा छोड़ दिया। जब खाना नहीं था तो परोसा क्यों था। जो महिलायें खाना बनाती हैं, जरा उनसे पूछिए कि जब कोई बड़ी मेहनत से बनाए उनके खाने को थाली में छोड़ देता है, तब उनके दिल पर क्या बीतती है। एक तो मेहनत बर्बाद.. और ऊपर से अपनी पाक कला पर संदेह होने लगता है।
मेरे दफ्तर में हर फ्लोर पर दो-दो कॉफी मशीन लगी है। सीसीडी की मशीनें हैं। उनमें लिक्विड दूध का इस्तेमाल होता है। मैं अक्सर देखता हूँ कि ब्लैक कॉफी की चाहत वाले सिर्फ कॉफी का अंश कप में लेते हैं, बाकी दूध यूँ ही नाली में जाता है। कई लीटर दूध बर्बाद होता है, जबकि अच्छी तरह जानता हूँ कि न जाने कितने बच्चे होंगे, जो सिर्फ सपने में दूध पीते होंगे। जब भी दूध की धार बहते देखता हूँ, कलेजा फटा जाता है।
मेरे घर में हर साल सावन में रुद्राभिषेक होता है। श्रीमती जी हर साल दूध से रुद्राभिषेक करने को कहतीं, मैं हर बार दूध से रुद्राभिषेक करने के लिए मना करता रहा। पानी से अभिषेक करता रहा और वो पानी भी सुरक्षित। उसे किसी और इस्तेमाल में लगवाता रहा। पिछले साल पंडित जी ने बहुत कहा तो मैं राजी हो गया, मगर इस शर्त पर कि एक-एक बूंद दूध का इस्तेमाल होगा। एक भी बूंद बर्बाद नहीं होगी। पंडित जी मान गये। करीब आठ लीटर दूध से अभिषेक हुआ। फिर उसी का चरणामृत बनवाकर घर के लोगों ने प्रसाद लिया और बाकी मुहल्ले में बंटवा दिया। सभी खुश, मैं भी खुश।
(देश मंथन, 02 अप्रैल 2015)