विकास मिश्रा, आजतक :
इलाहाबाद में जब पढ़ता था तो शुरुआत में केपीयूसी हॉस्टल में रहा। पीने का पानी भरने के लिए नीचे जाना पड़ता था। मटके में पानी भरकर रखते थे, लेकिन कई बार झंझट से बचने के लिए टंकी का पानी पी लिया करते थे। ये सिर्फ मेरी ही बात नहीं थी, ज्यादातर लोग टंकी का ही पानी पीते थे।
पानी को लेकर कभी भ्रम ही नहीं था। दो तरह के पानी का कॉन्सेप्ट ही नहीं था। हम लोग गाँव में नदी का पानी पी लेते थे, चलती हुई बोरिंग का पानी पीते थे, नहर का पानी भी पी लेते थे, मजाल है कि कभी कुछ हुआ हो। लखनऊ में भी डायरेक्ट सप्लाई के वक्त नींद नहीं खुलती थी तो पेयजल भी वही होता था, जो टंकी से आता था। पहली बार जब बिसलेरी की बोतल देखने को मिली तो यही ख्याल आया कि किस महामूर्ख ने बोतल में पानी बेचने की सोची। कौन खरीदेगा इसे। जितने में पानी खरीदेगा, उतने में तो कोल्ड ड्रिंक खरीद कर पीयेगा और मस्त डकार मारेगा। किसी को बोतल बंद पानी खरीदते और पीते देखता तो उसके लिए बड़ा असम्मानजक भाव जगता था, लगता था कि वो नक्शेबाजी कर रहा है.. खामख्वाह खुद को अलग दिखाने के लिए ऐसी हरकत कर रहा है।
वक्त बीता..। लखनऊ से मेरठ और फिर दिल्ली। साल भर दिल्ली रहने के बाद अपना फ्लैट लिया गाजियाबाद में। पता चला कि पानी खराब है, बिना आरओ सिस्टम लगवाये काम नहीं चलेगा। घर में आरओ लगा, दफ्तर में बोतल का पानी। कुछ महीनों बाद ऐसा होता कि घर से बाहर जाता तो गला खराब हो जाता, पेट खराब हो जाता। डॉक्टर ने पकड़ा कि आप पानी कौन सा पीते हैं। डॉक्टर ने कहा कि अब आपकी बॉडी सिर्फ फिल्टर्ड पानी को ही स्वीकार कर सकती है।
अब तो हाल बुरा… दिल्ली छोड़ते ही पानी की चिंता। मेरठ जाऊं तो अपना पानी ले जाऊं। गाँव जाता तो बड़ी वाली बॉटल मंगवा लेता। कहीं रिश्तेदारी में जाऊं तो बोतलबंद पानी रखने में बड़ी शर्म महसूस होती। लोग सामान्य पानी पीते और मैं बोतल का। डर लगता कि कहीं लोग नक्शेबाज न समझ लें कि बड़े सुकुमार हो रहे हैं, बोतल का पानी पी रहे हैं। अब तो बोतल का पानी अभिशाप की तरह जीवन में जुड़ गया। घर से बाहर निकले, बोतल किसी जिन्न की तरह साथ चलती है, जिस बोतलबंद पानी को पहली बार देखने के बाद उसकी परिकल्पना करने वाले को महामूर्ख समझ रहा था, वो तो बहुत बड़ा दूरदर्शी निकला। कहाँ तो पहले बोतलबंद पानी पीने वालों को चिढ़ाता था, कहाँ मैं खुद ही शिकार बन गया। आज की तारीख में घर पर, गाँव में, गोरखपुर वाले घर में, नाते-रिश्तेदारों के घर में हर जगह आरओ सिस्टम लग गया है। सभी छाना हुआ पानी पी रहे हैं। शहर तो शहर, गाँव का पानी भी पीने लायक नहीं रह गया है। पानी को लेकर दिल्ली में कनस्तर लिये लोगों की लाइनें देखता रहता हूँ। महाराष्ट्र में पानी की कमी से जूझते लोगों की खबरों से दो चार होता हूँ। कई मित्र पर्यावरण से जुड़े कामकाज कर रहे हैं। वे डराते हैं कि पानी खत्म हो रहा है। सच भी है, पहले गाँव में 30 फीट पर पानी मिल जाता था, चाहे हैंडपाइप के लिए बोरिंग करानी हो या फिर सिंचाई के लिए पंपिंग सेट की बोरिंग। अब गाँव में साधारण नल भी 120 फीट नीचे तक गड़ता है। मेरे गाजियाबाद वाले फ्लैट में भी बोरिंग है। पहले 80 फीट पर पानी था, अब 125 फीट तक पहुँच चुका है।
कहते हैं कि ज्यादा जानकारी भी मुसीबत पैदा करती है। ये बात मन में बैठ गई है कि पानी बहुत बड़ी समस्या है, लिहाजा पानी का अपव्यय देखता हूँ तो मन कचोटने लगता है। मेरी एक रिश्तेदार हैं, थोड़ा मजाक का रिश्ता है। वे गर्मियों में पाँच बार और ठंड में तीन बार नहाती हैं। उनसे मैं अक्सर कहता हूँ कि अगर धरती से पानी खत्म हुआ तो सबसे बड़ी जिम्मेदार तुम ही होगी। हमारे पंडितजी की बहू हैं। बाथरूम में रोजाना एक-डेढ़ घंटे नहाती हैं, पानी गिरने की आवाज आती रहती है। पहले वो परिवार लखनऊ में रहता था, जब तक किरायेदार रहा, हर मकान मालिक से पानी को लेकर झगड़ा होता रहा, क्योंकि देवी जी के स्नान में टंकी दिन में ही खाली हो जाती थी। हर तीसरे महीने मकान बदलना पड़ा। बाद में अपना मकान हुआ, झंझट छूटी। अब पति का ट्रांसफर हिमाचल प्रदेश हो गया, वहाँ पानी का संकट है, देवी जी भी संकट में हैं।
आरओ सिस्टम में जितना पानी छनकर पीने के लिए बचता है, उससे तीन गुना बरबाद होता है। मैंने घर में वेस्ट वाले पानी के उपयोग की सख्त हिदायत दे रखी है। कपड़े धोने, पोछा लगाने में वही पानी इस्तेमाल होता है। काम वाली बाई को भी सख्त हिदायत है कि पानी बरबाद बिल्कुल न करे। मैं जानता हूँ कि ये रोचक विषय नहीं है, लेकिन सोचना तो सबको पड़ेगा। कभी श्लेष अलंकार के उदाहरण के रूप में रहीमदास का दोहा लिखा जाता था-
रहिमन पानी राखिये बिन पानी सब सून।
पानी गए न ऊबरें, मोती, मानुष चून।
अब ये दोहा व्यंजना वृत्ति छोड़कर अभिधा में आ गया है। पानी के अपव्यय पर सोचना अगर कल तक के लिए टाला गया तो देर हो जाएगी।
(देश मंथन, 02 अप्रैल 2015)