कमर वहीद नकवी, वरिष्ठ पत्रकार:
कहीं का इतिहास कहीं और का भविष्य बाँचे! बात बिलकुल बेतुकी लगती है न! इतिहास कहीं और घटित हुआ हो या हो रहा हो और भविष्य कहीं और का दिख रहा हो! लेकिन बात बेतुकी है नहीं! समय कभी-कभार ऐसे दुर्लभ संयोग भी प्रस्तुत करता है!
आप देख पाये, तो ठीक। वरना इतिहास तो अपने को दोहरा ही देगा। क्योंकि इतिहास बार-बार अपने को दोहराने को ही अभिशप्त है!
बात बांग्लादेश की है। वहाँ अभी हाल में एक और सेकुलर ब्लागर की हत्या कर दी गयी। सेकुलरिस्टों और इसलामी चरमपंथियों के बीच बांग्लादेश में भीषण संघर्ष चल रहा है। सेकुलर वहाँ जिहादी इसलाम के निशाने पर हैं। आज से नहीं, बल्कि पिछले पैंतालीस सालों से और संयोग से सेकुलर यहाँ अपने देश में भी निशाने पर हैं! किसके निशाने पर? आप सब जानते ही हैं!
वसीकुर्रहमान की गलती क्या थी
तो ब्लागर वसीकुर्रहमान की गलती क्या थी? वह सेकुलर था। धर्मान्धता, साम्प्रदायिक कट्टरपंथ और चरमपंथ के खिलाफ लिखता रहता था। उसने अपनी फेसबुक वाल पर लिखा था, ‘मैं भी अभिजित रॉय’। यह अभिजित रॉय कौन हैं? अभिजित भी एक सेकुलर ब्लागर थे, जिनकी इसी फरवरी में ढाका में हत्या कर दी गयी थी और अभिजित रॉय से पहले वहाँ के राजशाही विश्वविद्यालय के दो शिक्षक शैफुल इसलाम और मुहम्मद यूनुस इसलामी चरमपंथियों के हाथों मारे गये थे। उसके पहले डैफोडिल विश्वविद्यालय के छात्र अशरफ-उल-आलम की हत्या हुयी थी और उसके भी पहले फरवरी 2013 में जब ढाका के शाहबाग स्क्वायर पर धार्मिक अनुदारवादियों और स्वतंत्रता आन्दोलन विरोधियों के खिलाफ ‘गणजागरण मंच’ का उद्घोष अपने उफान पर था, इस आन्दोलन के एक प्रणेता अहमद राजिब हैदर की हत्या कर दी गयी। उसके भी कुछ और पीछे जायें तो तसलीमा नसरीन को चरमपंथियों की धमकी के कारण देश छोड़ने पर मजबूर होना पड़ा और 2004 में मशहूर लेखक हुमायूँ आजाद पर कातिलाना हमला हुआ, जिनकी बाद में जर्मनी में इलाज के दौरान मौत हो गयी।
बांग्लादेश: कौन था आजादी का विरोधी?
बांग्लादेश में कट्टरपंथी इसलाम और सेकुलर ताकतों के बीच लड़ाई बहुत पुरानी है, उसके जन्म से भी पहले की। एक ताकत वह है, जो बांग्लादेश को एक पुरातनपंथी, शरीआ आधारित, डेढ़ हजार साल पहले की ‘आदर्श’ समाज व्यवस्था वाला इसलामी राष्ट्र बनाना चाहती है, जिसका नेतृत्व राजनीतिक तौर पर जमात-ए-इसलामी करती है और जिसके पीछे हुजी, जमात-उल-मुजाहिदीन बांग्लादेश (जेएमबी) जैसे जिहादी संगठन हैं और अल बदर, अल शम्स जैसे तमाम छोटे-बड़े चरमपंथी गुट हैं और इन्हें वहाँ के सबसे बड़े विपक्षी दल बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी (बीएनपी) की गुपचुप सहानुभूति हासिल है। दूसरी तरफ, आधुनिक, उदार, प्रगतिशील, लोकतंत्रवादी सेकुलर ताकतों और बुद्धिजीवियों का बड़ा जमावड़ा है, जो बांग्लादेश को एक सेकुलर राष्ट्र बनाये रखने के लिए जी-जान से जुटा है। शेख हसीना वाजेद की सत्तारूढ़ अवामी लीग इसी सेकुलर विचारधारा का प्रतिनिधित्व करती है।
कहानी शुरू होती है 1970 से, जब चुनाव जीतने के बावजूद बंग-बन्धु शेख मुजीबुर्रहमान की अवामी लीग को पाकिस्तान का प्रधानमंत्री नहीं बनने दिया गया। तब एक सेकुलर, स्वतंत्र बांग्लादेश बनाने के लिए आन्दोलन ने जोर पकड़ा, मुक्ति वाहिनी ने सशस्त्र संघर्ष छेड़ा, लेकिन सेकुलर राज्य की यह कल्पना ही जमात-ए-इसलामी के लिए ‘इसलाम और ईश्वर-विरोधी’ थी। उसने न केवल खुल कर स्वतंत्रता आन्दोलन का विरोध किया, बल्कि पाकिस्तानी सेनाओं की भरपूर मदद भी की, अल बदर, अल शम्स जैसे संगठनों और रजाकारों के जरिये भयानकतम नरसंहार कराया, जिसमें लाखों लोग मारे गये और लाखों महिलाओं के साथ बलात्कार हुआ और जब अन्त में इन्हें लगा कि बांग्लादेश बनने से नहीं रोका जा सकता तो 14 दिसम्बर 1971 को उन्होंने चुन-चुन कर बुद्धिजीवियों, चिन्तकों, लेखकों, साहित्यकारों, कलाकारों, पत्रकारों, शिक्षकों, वकीलों, डॉक्टरों, इंजीनियरों आदि को पकड़-पकड़ कर मार डाला, क्योंकि उन्हें लगता था कि बांग्लादेशी जनता को सेकुलरिज़्म की रोशनी दिखाने में इन बुद्धिजीवियों का ही हाथ है।
इसलामीकरण बनाम सेकुलर राष्ट्र की जंग
सेकुरलवादियों और इसलामी कट्टरपंथियों की जंग बांग्लादेश की आजादी के बाद भी भीतर ही भीतर चलती रही और इसकी परिणति 1975 में शेख मुजीबुर्रहमान की हत्या के रूप में हुयी। उसके बाद सत्ता पर काबिज हुये जनरल जियाउर्रहमान ने सेकुलरिज्म के बजाय देश के इसलामीकरण का रास्ता चुना और जमात-ए-इसलामी इस दौर में खूब फली-फूली। उसने अकादमिक-सांस्कृतिक संस्थाओं से लेकर हर जगह अपने पैर पसारे। शिक्षण संस्थाएँ खोलीं, बड़े-बड़े अस्पताल शुरू किये, चैरिटी और जनकल्याण के कई संगठन खड़े किये, मीडिया संस्थानों में घुसपैठ की और राज्यसत्ता के सहारे इसलामी पुनर्जागरण के अपने लक्ष्य की तरफ बढ़ना शुरू किया, लेकिन उनका मिशन अधूरा रह गया क्योंकि सेकुलर चेतना ने अन्ततः जोर मारा और शेख मुजीब की बेटी हसीना वाजेद 1996 में सत्ता पर काबिज हो गयीं। उसके बाद से तमाम राजनीतिक उथल-पुथल के लम्बे दौर से ले कर अब तक बांग्लादेश के कुख्यात नरसंहार के तमाम आरोपी पूरी दबंगई से राजनीतिक-सामाजिक जीवन में सक्रिय थे। किसी की हिम्मत नहीं थी कि उनके खिलाफ कोई कार्रवाई होती, लेकिन बांग्लादेश की सेकुलर युवा शक्ति ने दो साल पहले शाहबाग आन्दोलन के तौर पर इतना दबाव बनाया कि वाजेद सरकार को 1971 के युद्ध आरोपियों पर मुकदमे से सम्बन्धित कानून में संशोधन करना पड़ा और अन्तत: अब्दुल कादिर मुल्ला समेत कुछ बड़े नाम फाँसी चढ़ा दिये गये।
इसलामी राष्ट्र बनाम सेकुलर राष्ट्र की यह लड़ाई बांग्लादेश में पिछले पैंतालीस साल से जारी है और अब तो और तेज हो गयी है। अब दो कल्पनाएँ कीजिए। एक यह कि बांग्लादेश सेकुलर जन्मा था, अगर तब से वह लगातार सेकुलर राष्ट्र बन कर चला होता, तो आज क्या होता, कैसा होता और कहाँ होता? अच्छे हाल में होता या बुरे? और अगर, सेकुरलवादी 1971 में अपनी पहली ही लड़ाई न जीते होते, तो बांग्लादेश बना ही न होता, क्योंकि जमात-ए-इसलामी तो पाकिस्तान के साथ थी! या फिर अगर जनरल जियाउर्रहमान के बाद से बांग्लादेश लगातार इसलामी राष्ट्र बना रह गया होता तो आज कहाँ होता, कैसा होता?
वहाँ और यहाँ, कुछ-कुछ एक जैसा क्यों?
क्या बांग्लादेश की इस लम्बी कहानी का कोई साम्य हम अपने यहाँ नहीं देखते? अपने यहाँ हिन्दू राष्ट्रवाद की विचारधारा का इतिहास देखिए और आजादी की लड़ाई के दिनों से लेकर अब तक देश में जो हुआ, जो हो रहा है, जरा उस पर नजर दौड़ाइये तो आप आसानी से सब समझ जायेंगे! जिस शेख मुजीब ने बांग्लादेश को दुनिया के मानचित्र का हिस्सा बनाया, चार साल बाद उनकी हत्या क्यों कर दी गयी? और यहाँ आजादी मिलने के डेढ़ साल के भीतर गाँधी की हत्या क्यों कर दी गयी! वहाँ इतिहास बदल कर शेख मुजीब को देशद्रोही साबित करने की पूरी कोशिश की गयी, यहाँ इतिहास बदल कर गाँधी को देशद्रोही और गोडसे को महानायक साबित करने की कोशिश की जा रही है! वहाँ सेकुलर बुद्धिजीवियों के खात्मे के लिए हिंसक अभियान चलाया गया, अब भी चलाया जा रहा है, ये सेकुलर वहाँ इसलामी राष्ट्रवाद के लक्ष्य में रोड़ा हैं? तो क्या आपको इस सवाल का जवाब अब भी नहीं मिला कि हमारे यहाँ के ‘हिन्दू राष्ट्रवादी’ आखिर सेकुलर शब्द से इतना क्यों चिढ़ते हैं? यहाँ सेकुलर उनके किस लक्ष्य में रोड़ा हैं?
जरा ईसाई राष्ट्रवाद को भी देखिए
और दिलचस्प बात यह है कि अमेरिका में भी पिछले तीन दशकों से ईसाई धर्म-राज्य की कल्पना भी जोर पकड़ने लगी है। इसके पैरोकारों की नजर में आधुनिक और सेकुलर विचार ईश्वर-विरोधी हैं और शैतान की देन हैं, क्योंकि सेकुलरिज्म तर्क पर चलता है और शैतान ने सृष्टि की शुरुआत में मनुष्य को तर्क से बहकाया और ‘वर्जित’ फल चखा दिया! इसलिए सेकुलरिज्म ईश्वर-विरोधी ‘वर्जित’ फल है! तर्क और बुद्धि बुरी चीज है, आस्था ही ईश्वर को प्रिय है! चरमपंथी ईसाइयत के विचार से राज्य पर चर्च का पूरा नियंत्रण होना चाहिए, स्कूलों और सरकारी दफ्तरों में ईसाई प्रार्थनाएँ होनी चाहिए। बाइबिल आधारित समाज व्यवस्था होनी चाहिए और इस उग्र ईसाई राष्ट्रवाद के लिए वहाँ भी धर्म और संस्कृति की रक्षा, देशभक्ति और राष्ट्रीय सुरक्षा की गुहार लगायी जा रही है! एक अमेरिकी संगठन ‘एलाएंस डिफेंडिंग फ्रीडम’ पिछले पन्द्रह साल से ‘ब्लैकस्टोन लीगल फेलोशिप’ चला रहा है, जिसके तहत कानून के छात्रों को विशेष ढंग से पुरातनपंथी ईसाई विचारों में प्रशिक्षित और दीक्षित किया जाता है। इसके पीछे सोच यह है कि अमेरिकी न्याय व्यवस्था में कट्टर दक्षिणपंथी पुरातनवादी वकीलों, जजों और विधिवेत्ताओं की संख्या लगातार बढ़ायी जाये ताकि एक दिन अमेरिका का समूचा कानूनी तंत्र सदियों पुरानी धार्मिक मान्यताओं पर चलने लगे और आधुनिक व सेकुलर विचारों व कानूनों का अन्त हो जाये! यह फेलोशिप अब तक गर्भपात, समलैंगिक यौन सम्बन्ध, विवाह में स्त्री-पुरुष की बराबरी जैसी आधुनिक अवधारणाओं का विरोध करनेवाले वकीलों की अच्छी-खासी फौज खड़ी कर चुकी है। है न खतरनाक योजना!
अद्भुत है न! इसलामी राष्ट्रवाद, हिन्दू राष्ट्रवाद और ईसाई राष्ट्रवाद तीनों का एक ही चरित्र क्यों है? और तीनों के लिए सबसे बड़ा दुश्मन सेकुलरिज्म ही क्यों है? इतिहास बोल रहा है, आप सुनेंगे क्या?
(देश मंथन 04 अप्रैल 15)