बीसीसीआई आज जहाँ है मीडिया की वजह से पर इतना अहंकार और इतनी कृतघ्नता!!

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पद्मपति शर्मा, वरिष्ठ खेल पत्रकार :

सात तारीख से आईपीएल लीग का आठवाँ संस्करण रंगारंग उद्घाटन समारोह के साथ शुरू होने जा रहा है। विश्व कप सम्पन्न हुए एक पखवाड़ा भी नहीं बीता होगा कि टी-20 का झमाझम सामने है, लेकिन आपको यदि खेल देखना है तो फिर अधिकृत ब्राडकास्टर चैनल का ही आपको सहारा है।

यदि आप चाहें कि किसी न्यूज चैनल पर कुछ देखें तो मायूसी ही हाथ लगेगी। क्योंकि चैनल दिन भर में दो मिनट की ही फुटेज केवल दिखा सकते हैं। अब आप ही बताइए कि इतने भर में नंगा क्या तो नहायेगा ओर क्या निचोड़ेगा। पैसे के मद में चूर देश के राष्ट्रीय क्रिकेट बोर्ड में इतना अहंकार घर कर चुका है कि वह यह भूल गया कि आज वह जहाँ पहुँचा है, उसके पीछे मीडिया खासकर प्रिंट का अतुलनीय अंशदान रहा है। हालत यह हो गयी है कि मीडिया और टीम इंडिया आज एक नदी के दो किनारे बन चुके हैं। चैनलों को तो मैच के समय मैदान में कैमरा ले जाने की इजाजत नहीं है और अखबार के प्रतिनिधियों की यह स्थिति है कि खिलाड़ी से मिलना तो दूर उन्हें तो होटल की लाबी में भी घुसने की इजाजत नहीं है। कवर कर रहे पत्रकारों को टीम के पीआरओ की, जो बाउंसर ज्यादा है, सुबह एक मेल मिलती है- नो मीडिया एक्टिविटी टुडे। 

कभी वे भी दिन थे जब टीम और मीडिया में दूरी नाम की कोई चीज तक नही थी। दोनों ही अपनी जिम्मेदारी और जवाब देही खूब समझते थे। एक पत्रकार जो आज भी सक्रिय हैं, कभी-कभी खिलाड़ियों के कमरे में फर्श पर ही सो जाया करते थे। न शराब पीते न सिगरेट बस दीवानगी इतनी ही कि कितनी अधिक से अधिक एक्सक्लूसिव कवरेज दी जा सके। आज वही उदास है बोर्ड की कृतध्नता देख कर। मैंने सोचा कि चलो इस बोर्ड को, जिसका दामन कितना दागदार हो चुका है, क्यों न आइना दिखाया जाये। चलिए उलटता हूँ इतिहास के पन्नों को। मैं नहीं जानता कि कितनी लड़ियों को जोड़ सकूंगा और कितने अंकों तक लिखूँगा पर यह पहली किस्त आप पढ़िए। विचार प्रगट कीजिए और अपनी राय दीजिए। आपका उत्साहवर्धन ही मेरा संबल होगा अगली कड़ियों का जहाँ तक सवाल है।

जब मैंने पत्रकारिता की दुनिया में पग रखा था तब मन में एक आग सी धधक रही थी कि हिंदी मीडिया में खेलों को वरीयता में अंतिम स्थान पर क्यों रखा जाता है और अखबारों में खेल हाशिये पर क्यों हैं? खेल डेस्क तो दीगर, तब कोई पार्ट टाइमर शाम को आता था रीजनल हिंदी अखबारों में और दो घंटे के भीतर काम निबटा कर चल देता था। यह सत्तर के दशक का उत्तरार्ध था। ‘आज’ में बतौर सर्वकालिक प्रथम सब एडिटर (खेल) काम शुरू किया तब आठ पेज के इस अखबार में दो कालम जगह मिलती थी। तभी अखबार ने कलकत्ता के लिए प्रतिदिन पाँच हजार प्रतियों का करार किया पर शर्त यह थी कि शाम पाँच बजे तक की कवरेज होनी चाहिए। उन दिनों कालका मेल शाम साढ़े सात बजे मुगलसराय आती थी और सुबह छह बजे के आसपास हावड़ा पहुँचती थी। तैयारी शुरू हुयी तब ‘आज’ की पहचान देश के सबसे बेहतरीन अखबारों में थी, आज तो वह बस घिसट रहा है।

खैर, तत्कालीन संपादक देश के जाने-माने पत्रकार पं. विद्या भास्करजी ने मुझको बुला कर पूछा कि खेल समाचार कैसे दिये जा सकते हैं ? 1977-78 का सत्र था और बिशन सिंह बेदी की कप्तानी में भारतीय टीम पाँच टेस्ट मैचों की सिरीज खेलने आस्ट्रलिया में मौजूद थी। पाताल देश हमसे साढ़े पाँच घंटा आगे था। यानी जब वहाँ खेल समाप्त होता तब यहाँ दिन के साढ़े बारह बजते थे। भास्करजी को मैने आश्वस्त किया कि दिन के खेल की पूरी एनालिसिस दूंगा। 

मेरे लिए यह बड़ा अवसर था। काशी के सांध्य दैनिक गाडीव में मैं सफल प्रयोग कर चुका था। बस क्या था रेडियो की कमेंट्री (रेडियो आस्ट्रेलिया 13 मीटर बैंड पर पकड़ता था और घर में पुराने रेडियो में यह सुविधा थी) के आधार पर लंच और चाय-पान के खेल का विवरण घर में तैयार कर लेता था और खेल समाप्ति की संपूर्ण एनालिसिस आफिस में लिखता था। दो बजे मैटर पूरा कंपोज हो जाता और खड़ा दो कालम टेस्ट रिपोर्ट से ही भर जाया करता था जीवंत शब्द चित्र बनाने के चलते। दो तीन दिनों में ही हड़कंप मच गया और समाचार संपादक बाबू दूधनाथ सिंह, जो मेरे गुरुओं में एक थे, न सिर्फ कवरेज के मुरीद हो गये बल्कि उन्होंने पूरा पेज भी खेल को दे दिया। 

इसके बाद से हिंदी खेल पत्रकारिता परवान चढ़ती चली गयी। साल भर बाद ही पाकिस्तान जाकर सिरीज कवर करने का दुर्लभ सुयोग भी हाथ लग गया। अखबार बदलते गये और कवरेज का दायरा भी बढ़ता चला गया। लोग पिछले पन्ने से पढ़ने की शुरुआत करने लगे। प्रायोजक आगे आने लगे। जागरण ने इसका पूरा लाभ उठाया और विश्वास कीजिए कि वेस्टइंडीज में सिरीज की पूरी कवरेज सुबह जब लोगों को मिली तब यह सातवाँ आश्चर्य था कि खेल साढ़े चार-पाँच बजे भोर में समाप्त हुआ था और पूरी कवरेज हाजिर। सुबह लोगों के घर आठ बजे तक अखबार मिलता था पर पाठक गदगद थे। टैक्सियाँ भी गंतव्य तक देरी से पहुँचती थी पर किसी को शिकवा नही। मील के तब न जाने कितने पत्थर छुये होंगे हिंदी के अखबारों ने। गला काट स्पर्धा का पाठकों को लाभ मिल रहा था, जिन्होंने भी उस युग को देखा है, वे इसकी तस्दीक भी करेंगे कि तब कवरेज कितनी समृद्ध हुआ करती थी। रेडियो की हिंदी कमेंट्री सोने में सुहागा थी। क्रिकेट का खेल अभिजात्य वर्ग के ड्राइंग रूम से निकल कर हल जोतते युवा किसान के बैल के जुये में लटके ट्रांजिस्टर तक कब पहुँच गया, पता ही नहीं चला। क्रमश:

नोट : डालमिया का पत्र है आप पढ़िए। खुद समझ में आ जायेगा कि उस जमानें में मैच के फोटो प्रसारण के दौरान टीवी से कैसे सीधे खींचे जाते थे पर गुणवत्ता तब भी ऐसी कि डालमिया बोर्ड के लिए हमसे सारे फोटो ही माँग बैठे।

(देश मंथन, 07 अप्रैल 2015)

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