संजय सिन्हा, संपादक, आजतक :
पिताजी कभी – कभी कमरे में टहलने लगते और जोर – जोर से गुनगुनाते “श्री कृष्ण गोविंद, हरे मुरारी, हे नाथ नारायण वासुदेव!”
जब पिताजी ये वाला मंत्र जाप करते तो हम समझ जाते कि हमसे कोई गलती हुयी है और पिताजी को बुरा लगा है, लेकिन वो हम पर गुस्सा करने की जगह कमरे में टहलना शुरू कर देते और अपने भगवान को याद करने लगते – “श्री कृष्ण गोविंद, हरे मुरारी, हे नाथ नारायण वासुदेव!”
बड़ा होने पर मैंने पिताजी से पूछा कि मैं बचपन से आपको ऐसा करते देख रहा हूँ।
आप गुस्सा नहीं करते, बल्कि हरे कृष्ण गोविंद हरे मुरारी करने लगते हैं। पिताजी मुस्कुराये। कहने लगे कि तुम बच्चों से अगर कोई गलती हो ही जाती है और मुझे बुरा लग भी जाता है तो कोई बात नहीं, लेकिन मुझे ये बात हमेशा कचोटती है कि किसी की गलती पर मुझे इतना गुस्सा क्यों आया। गुस्सा आना तो सबसे बड़ी कमजोरी है। मैं जब ईश्वर को याद करने लगता हूँ तो मैं तुम लोगों पर आये गुस्से से अधिक अपने मन में उपजने वाले गुस्से के लिए ईश्वर से माफी माँगने लगता हूँ।
मैंने पिताजी से कहा कि गुस्सा आना तो स्वाभाविक है। क्रोध मनुष्य के मूल व्यवहार का हिस्सा है।
“होगा, लेकिन क्रोध में अपना आपा खो देना, किसी को कुछ भी कह देना, कोई गलत कदम उठा लेना, सामने वाले की गयी गलती से बड़ी गलती होती है और उस गलती से बचने के लिए मैं गुनगुनाने लगता हूँ- श्री कृष्ण गोविंद, हरे मुरारी, हे नाथ नारायण वासुदेव! इससे मुझे तत्काल फायदा मिलता है। पहली बात तो ये कि अगर गुस्सा क्षणिक है तो अपने आप काफूर हो जायेगा और नहीं तो मुझे ये सोचने का मौका मिल जाता है कि ऐसी परिस्थिति में क्या करना चाहिए। गुस्से में कभी तुरंत कोई फैसला नहीं लेना चाहिए।”
मैंने कहा कि ये तो बहुत मुश्किल है कि आदमी को गुस्सा आये और वो अपनी प्रतिक्रिया जताने की जगह प्रभु को याद करने बैठ जाये।
पिताजी कहते, संजू बेटा जब समुद्र मंथन हुआ था, तब उसमें से हालाहल विष भी निकला था। अब सवाल ये उठा कि विष कौन लेगा। जब ये विष चारों दिशाओं में उड़ने लगा तो सारे देवता भगवान शिव के पास पहुँचे और रक्षा की गुहार लगाने लगे।
शंकर भगवान ने उन्हें भरोसा दिया, “आप परेशान न हों, मैं उसका सेवन कर लूंगा।”
माँ पार्वती शंकर जी के इस फैसले पर हैरान रह गयीं।
“नाथ! आप विष पान करेंगे? फिर मेरा क्या होगा?”
“देवी! जिस तरह आपने मुझे नाथ कहा है, उसी तरह इन सब का भी मुझ पर भरोसा है। इन्हें भरोसा है कि जब ये मुसीबत में होंगे तो मैं इनकी रक्षा करूँगा और सबसे बड़ी बात ये कि जिस तरह ये विष ब्रह्ममांड में फैल रहा है उसमें तो कोई भी सुरक्षित नहीं रहेगा। ऐसे में मुझे वो विष पान करना ही पड़ेगा।”
“लेकिन प्रभु आप ही क्यों?”
“देवी अगर हर कोई यही सोचने लगे कि मैं ही क्यों, तब तो हो चुका जगत का कल्याण। अगर इसे इस तरह सोचें कि मैं ही क्यों नहीं, तो आज इन तमाम देवताओं में से कोई न कोई ये कर ही लेता और मेरे पास आने की जरूरत ही नहीं पड़ती। खैर…”
और शिव ने तीक्ष्ण हालाहल विष का पान कर लिया। पर न तो वो उस विष को पेट में ले गये, न मुँह में रखा। क्योंकि विष उनके कंठ में रह गया, उनका कंठ नीला पड़ गया।
“ओह इसीलिए उन्हें नीलकंठ भी कहते हैं। अच्छा पिताजी इस कहानी का अर्थ क्या है?”
“बेटा हर कहानी का एक अर्थ होता है। हमारी जितनी पौराणिक कहानियाँ हैं, वो चाहे सच न भी हों लेकिन हर कहानी के पीछे अपना एक संदर्भ होता है, जिस तरह तुम फिजिक्स, केमेस्ट्री और गणित पढ़ते हो उसी तरह हमारी ये धार्मिक कहानियाँ हैं। मुश्किल ये है कि इन कहानियों को पढ़ने और पढ़ाने वाले उसके मूल भाव को समझ और समझा नहीं पाते। अगर ऐसा कर पाते तो तुम्हारे बहुत से सवालों के जवाब तुम्हें वहीं से मिल जाते। जैसे भगवान शंकर ने विष अपने गले में ले लिया। इसका मतलब तुम चाहो तो इस तरह भी लगा सकते हो कि समाज में जो समर्थ होता है उसे मुश्किल घड़ी में उस मुसीबत को अपने ऊपर लेना चाहिए। यही गुण होता है एक समर्थ व्यक्ति का। यही कर्तव्य होता है मुखिया होने का।
“और उसे कंठ में रोक लेने के पीछे का अर्थ?”
“दुनिया में किसी बुराई को आत्मसात नहीं करना चाहिए। शंकर जी अगर उस विष को मुँह में रखते तो वातावरण विषाक्त बनता। पेट में सहेजते तो खुद मुश्किल में पड़ जाते। उसे कंठ में रख कर उन्होंने संपूर्ण ब्रह्ममांड की और खुद की रक्षा की। ठीक वैसे ही जैसे कर्कश वाणी कोई मुँह में रखे तो अपने आस-पास का माहौल जहरीला बना देता है और उसके मन में रह जाती है तो खुद को जला लेता है। उसे कंठ में रख लेना एक योग के समान है, जिसे न तुमने अंदर लिया न बाहर किया। दोनों बच गये।”
“ओह! इसका मतलब हुआ कि जब आपको हम पर गुस्सा आता है तो पहले आप श्री कृष्ण गोविंद हरे मुरारी कह कर अपने गुस्से पर नियंत्रण करते हैं।”
“हाँ। मैं जब तक खुद के गुस्से को नहीं नियंत्रित कर लूंगा मैं तुम्हें कैसे समझाऊँगा कि तुम्हें क्या करना चाहिए, क्या नहीं। गलती पर गुस्सा करना आग में घी डालने की तरह, होता है। जब मैं सारी परिस्तिथि समझ लेता हूँ, अपने गुस्से को नियंत्रित कर लेता हूँ फिर मैं कुछ सही समझा पाने की स्थिति में होता हूँ।”
“बहुत मुश्किल है, पिताजी। ऐसा कर पाना आसान नहीं है। हमें तो जब गुस्सा आता है, वहीं का वहीं निकाल देते हैं।”
“लेकिन ये उचित नहीं है। इससे तुम खुद परेशानी में पड़ते हो। अपने आप को जलाते हो। अपने दुश्मन बनाते हो। अच्छे रिश्तों को खो देते हो। ऐसा करो, अगर तुम्हें किसी बात पर गुस्सा आए तो तुम एक से लेकर दस तक की गिनती गिनने लगो। गिनती गिनने के बाद फिर गुस्सा करो।”
मैंने कई बार इस गिनती फार्मूले का इस्तेमाल किया है। सचमुच बहुत आराम मिलता है।
(देश मंथन, 13 अप्रैल 2015)