अपने कर्मों का भोजन हम स्वयँ बनाते हैं

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संजय सिन्हा, संपादक, आजतक : 

चार दोस्त थे। 

अब अगर चार की जगह तीन दोस्त भी होते तो वही होता, जो चार के होने पर हुआ। 

खैर, संख्या की कोई अहमियत नहीं। न ही ये बहस का विषय हो सकता है।

चार दोस्त थे, तो हम चार ही मान कर चलते हैं। अब उनके नाम कुछ भी हो सकते हैं। अजय, विजय, संजय और जसबीर या फिर चारों को प्रान्त के हिसाब से भी बाँट लें तो किसी को क्या आपत्ति होगी। अजय बंगाल का रहने वाला था, विजय बिहार का और संजय यूपी का। अब बचा जसबीर, तो उसे पंजाब का मान लेते हैं।

“यार इतनी भूमिका मत बनाओ। कोई पुराना चुटकुला सुनाओगे और सस्पेंस ऐसे बना रहे हो, जैसे एकदम ताजा आज का सुना चुटकुला हमें सुनाने जा रहे हो।”

कल दफ्तर के लन्च टाइम में जैसे ही हम चारों दोस्तों ने अपने-अपने घर से लाए लन्च बॉक्स को खोला, सबके मुँह उतर गए थे। मेरे लन्च बॉक्स में वही कद्दू की सब्जी, दाल और रोटियाँ। अजय के लन्च बॉक्स में वही कढ़ी चावल। विजय बेचारा टिन्डे की सब्जी और रोटी लिए बैठा था। रहा जसबीर तो उसके डिब्बे से निकला आलू का पराठा और दही।

चारों दोस्त थक चुके थे। अगर इसी खाने के लिए वे जिन्दा हैं, तो इस जिन्दगी का कोई लाभ नहीं। 

एक ने अपना मोबाइल निकाला और व्हाट्स ऐप पर आया मेसेज पढ़ने लगा, “आज तक समझ में नहीं आया कि जीने के लिए काम करता हूँ या काम करने के लिए जीता हूँ।”

दूसरे ने पढ़ा, “एक और जिन्दगी माँग लो खुदा से, ये वाली तो ऑफिस में ही कट जाती है।”

तीसरे ने पढ़ा, “इस जिन्दगी में जब हँसने की इच्छा न हो, तो भी हँसना पड़ता है। कोई जब पूछे कि कैसे हो तो, मजे में हूँ कहना पड़ता है।”

जसबीर ने अपने मोबाइल पर पढ़ा, “थक गया हूँ तेरी नौकरी से ऐ जिन्दगी, मुनासिब होगा मेरा हिसाब कर दे।”

जैसे ही जसबीर ने व्हाट्स ऐप के इस मेसेज को पढ़ा, “ जिन्दगी मेरा हिसाब कर दे…” तीनों दोस्तों की आँखें फटी की फटी रह गईं। वाह! क्या शेर कहा है मेरे जसबीर ने। “थक गया हूँ तेरी नौकरी से ऐ जिन्दगी, मुनासिब होगा मेरा हिसाब कर दे।”

चारों दोस्तों ने अपने-अपने लन्च बॉक्स की ओर देखा और तय कर लिया कि अगर हमें रोज-रोज यही खाना खाना है, तो बेहतर है कि हम भी अपनी-अपनी जिन्दगी का हिसाब कर लें। चारों दोस्तों ने योजना बना ली कि रोज-रोज एक ही खाना खाने से बेहतर है, मर जाना। फाइनल हुआ कि कल लन्च बॉक्स खोला जायेगा और अगर यही थकाऊ खाना निकला तो चारों दफ्तर की बिल्डिंग से कूद कर जान दे देंगे।

चारों दोस्त घर चले गये।

सुबह हुई। चारों दोस्त हँसते-खेलते दफ्तर पहुँचे। लन्च टाइम हुआ। चारों साथ बैठे। पहले अजय ने अपना लन्च बॉक्स खोला, वही कढ़ी और चावल। संजय के लन्च बॉक्स में फिर वही रामदेव का कद्दू, अरहर की पीली दाल और गोल-गोल रोटियाँ। विजय के पीछे तो टिन्डा मानो हाथ धो कर पड़ा था, आज भी वही टिन्डा और रोटी।

अब सबकी निगाहें लगी थीं, जसबीर के लन्च बॉक्स पर। जसबीर ने लन्च बॉक्स खोला, अरे इसमें भी वही आलू पराठा और दही।

अब एकदम साफ हो चुका था कि आज जिन्दगी से उसका हिसाब चुकता कर लिया जायेगा। अजय गया दफ्तर के सबसे ऊपर वाले माले पर और वहाँ से उसने नीचे छलाँग लगा दी। विजय ने भी यही किया। संजय ने भी यही किया। बच गया जसबीर तो उसे जिन्दगी से कौन सी मुहब्बत थी! अरे रोज-रोज एक ही खाना खा कर जीने से बेहतर तो यही है कि जान दे दी जाये, और वो भी कूद गया।

चारों दोस्त नीचे गिर कर मर गये। चारों को रोज-रोज के उबाऊ भोजन से मुक्ति मिली। चारों ने खाने की मेज पर पर्चा लिख छोड़ा था। चारों ने लिखा था कि रोज-रोज एक ही तरह के खाने से वो ऊब चुके हैं। ऐसी जिन्दगी से तो मौत बेहतर है।

खूब हो हल्ला मचा। चारों के घरों में खबर भिजवायी गयी। चारों की पत्नियाँ दफ्तर आईं। रो-रो कर सबके हाल बुरे थे। किसी तरह अजय, विजय, संजय की पत्नी का रोना रुका। तीनों अफसोस कर रही थीं, कि हाय! हमने कभी ये जानने की कोशिश क्यों नहीं की कि इन्हें क्या खाना पसन्द था।

रह गई जसबीर की पत्नी, तो जसबीर की पत्नी सिर पटक-पटक कर रोये जा रही थी। सबने उसे पकड़ा। समझाना शुरू किया कि जो हुआ सो हुआ। आपको भी ध्यान देना चाहिए था कि खाने में कम से कम रोज एक मेनू नहीं होना चाहिए था।

अजय, विजय, संजय की पत्नी तो मान भी गईं कि गलती हुई है। लेकिन जसबीर की पत्नी जोर-जोर से चिल्ला कर रोती जा रही थी कि हाय जस्सी तो अपना लन्च रोज खुद ही बनाता और खुद ही पैक करता था। अगर उसे ये आलू के पराठे पसन्द नहीं थे, तो क्यों बनाया और क्यों पैक किया?”

चुटकुला पुराना था। लेकिन हम चार दोस्तों की जिन्दगी का अधूरा सच भी यही है। रोज-रोज वही खाना। अजय, विजय, संजय की तो पत्नियाँ खाना बना कर पैक करती हैं। मुमकिन है उन्हें पता भी न हो कि इन्हें ये पसन्द नहीं। लेकिन बेचारा जसबीर तो मुफ्त में मरेगा न! वो तो खुद ही अपना लन्च बनाता और पैक करता है, फिर वो गलती क्यों करता है।

अक्सर ऐसा होता है कि हम खुद ही अपनी गलतियों को दुहराते हैं। हम जानते हैं कि हम गलत कर रहे हैं, लेकिन हम उस गलती को फिर करते हैं। अपने कर्मों का भोजन हम स्वयँ तैयार करते हैं। खुद ही उसे पैक करते हैं। खुद ही उसे लेकर खाने बैठते हैं। खुद ही शोक मनाते हैं। खुद ही मरने पर मजबूर होते हैं।

दूसरों के किए की वजह से अगर आदमी को तकलीफ हो तो फिर भी शिकायत कर सकते हैं, लेकिन जसबीर की तरह अपने कर्मों से भी वाकिफ नहीं होने वाले की मौत पर कोई शोक नहीं मनाता। जसबीर की मौत पर चुटकुले बनते हैं।

चुटकुला चाहे कितना भी पुराना पड़ जाए, लेकिन होता हँसने के लिए है।

तो, मेरे प्यारे परिजनों मुझे पता है कि आपने ये चुटकुला पहले जरूर सुना होगा। लेकिन अगर आप खुद भी अपनी जिन्दगी में अपने कर्मों का भोजन खुद पकाते और पैक करते हैं, तो बाद में उसके नतीजों को देख कर अफसोस मत कीजिएगा। आपके अफसोस की वजह आप खुद हैं, इसलिए आपके जान देने की कोई कीमत नहीं। अपने बनाए आलू-पराठे के लिए अफसोस कैसा? या तो जो बनाया है उसे ही खाइए या फिर विलाप बन्द कीजिए। 

जिन्दगी से अपने किए का हिसाब नहीं माँगना चाहिए। वो तो वही लौटाती है, जो हम देते हैं।

(देश मंथन, 12 मई 2015)

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