संजय सिन्हा, संपादक, आज तक :
मुझे खुद ही याद नहीं कि आज जो कहानी मैं आपको सुनाने जा रहा हूँ, उसे पहले आपको सुना चुका हूँ या नहीं।
लेकिन आज वो कहानी सुनाने का मन है।
गाँव के स्कूल में एक मास्टर जी थे। बहुत सीधे-सादे।
एक दिन मास्टर जी साइकिल से कहीं जा रहे थे कि मुखिया के बेटे ने उनकी चलती साइकिल के पहिये के बीच एक लाठी घुसेड़ दी।
मास्टर जी गिर गये।
मास्टर जी गिर गये, तो चोट भी लगी। पर बेचारे कुछ कर क्या सकते थे। कहाँ एक मामूली मास्टर, कहाँ मुखिया का बेटा।
गाँव में किसी की हिम्मत नहीं थी कि मुखिया के बेटे से कुछ कह सके।
आखिर मास्टर साहब अपनी धोती संभालते हुए उठे, मुस्कुराये और जेब से दस रुपये का नोट निकाल कर मुखिया के बेटे के हाथ में रख दिये।
मुखिया के बेटे की समझ में नहीं आया कि ये क्या हुआ। उसे तो उम्मीद थी कि मास्टर उठेगा, दो गाली देगा। लेकिन मास्टर साहब उठे, आह, ऊह करने और गाली देने की जगह उन्होंने कहा, “बहुत बढ़िया खेल सीख गये हो, बेटा।” और दस का नोट मुखिया के बेटे के हाथ में थमा कर चले गये।
मुखिया के बेटे को लगा कि इसका मतलब ये हुआ कि मास्टर को इस तरह गिरना अच्छा लगा।
अपने खेल पर वो खुशी में झूम उठा।
तभी गाँव का दारोगा अपनी मोटर साइकिल पर उधर से गुजरा। मुखिया का बेटा अभी भी मन ही मन खुद को थापियाँ दे रहा था। जैसे ही दारोगा की मोटर साइकिल उसके सामने से गुजरी उसने अपनी लाठी उसकी चलती मोटर साइकिल के पहियों के बीच घुसेड़ दी। दारोगा गिर पड़ा।
मुखिया का बेटा मन ही मन तय कर चुका था कि जब इस खेल के बदले मास्टर ने दस का नोट दिया था, तो यहाँ कम से कम पचास तो बनता ही है।
दारोगा उठा, उठते ही मुखिया के बेटे को एक झन्नाटेदार थप्पड़ मारा और पकड़ कर उसे थाने ले गया। थाने में क्या हुआ होगा इसे लिखने की जरूरत मुझे नहीं, क्योंकि चोटिल दारोगा ने वहाँ क्या-क्या किया होगा ये तो संजय सिन्हा जैसे पत्रकार रोज अखबार में लिखते और टीवी पर दिखाते ही हैं।
गाँव में हड़कम्प मच गया। मुखिया का बेटा गिरफ्तार।
मुखिया जी अपने ढेर सारे चेले चंपुओं के साथ थाने तक पहुँचे।
पहले बेटे के पास गये। बेटे का शरीर लाल हुआ पड़ा था। थाने में गाल-नाक तो सूजना तो कोई बड़ी बात नहीं, पर यहाँ तो शरीर का अंग-अंग सूजा नजर आ रहा था। बहुत मुश्किल से अपने पर नियंत्रण रखता हुआ मुखिया दारोगा के पास गया और उसने पूछा कि किस जुर्म में तुमने मेरे बेटे को बन्द किया है।
दारोगा ने जवाब दिया, “अपने लाडले से पूछ।”
मुखिया ने अपने लाडले से पूछा, “बेटा तुमने ऐसा क्या किया कि इतनी सुताई हो गयी?”
“बाऊजी, मैंने तो कुछ न किया। वो मास्टर का बच्चा साइकिल से जा रहा था, मैंने अपनी लाठी उसकी साइकिल में घुसेड़ दी। मास्टर ने कहा कि बहुत बढ़िया खेल सीखे हो। ये लो दस का नोट। और दस का नोट देकर वो चला गया। मुझे लगा कि सचमुच में मैंने बढ़िया खेल सीखा है, मास्टर को मजा आया, तो मैंने दारोगा जी की मोटर साइकिल में भी लाठी घुसेड़ दी। बस तब से मेरी सुताई हो रही है।”
तुरन्त मास्टर जी को बुलाया गया।
मास्टर जी थाने पहुँचे। मुखिया ने पूछा, “मास्टर जी आपने साइकिल से गिरने के बाद मेरे बेटे को दस का नोट क्यों थमाया?”
“वो जी ऐसा है कि मैं ठहरा गरीब, कमजोर मास्टर। आपके नौनिहाल ने जब अपनी लाठी मेरी चलती साइकिल में घुसेड़ी तो मैं गिर पड़ा। बहुत चोट लगी। मन में तो आया कि यहीं धो दूँ। लेकिन मैं जानता था कि ये आपका बेटा है। अगर मैंने कुछ कहा और किया तो आप और आपके लोग मेरा क्या हाल करेंगे। इसलिए मैंने इसे दस का नोट दिया, ताकि कोई तो होगा जो इसका पर्मानेंट इलाज करेगा। और मुझे लगता है कि दारोगा ने पर्मानेंट इलाज किया है।”
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मेरे एक पुलिस अफसर मित्र हैं। अभी मैं उनके साथ पटना से दिल्ली राजधानी एक्सप्रेस में आ रहा था। हम फर्स्ट क्लास में बैठे थे कि खबर आयी कि कोई सज्जन ट्रेन में दारू पी रहे हैं और किसी यात्री से बेवजह उलझ रहे हैं। यात्री ने टीटीई से शिकायत की। टीटीई ने उन सज्जन को ट्रेन मे दारू पीने से रोकने की कोशिश की तो सज्जन भड़क गये। कहने लगे कि उन्हें दारू पीने का लाइसेंस मिला हुआ है। वो बड़े अधिकारी हैं। कोई उनका कुछ नहीं कर सकता। टीटीई बेचारा मास्टर की तरह निरीह नजर आने लगा। यात्री कुढ़ने लगा। अब पहली बार तो नहीं हो रहा था कि राजधानी एक्सप्रेस में कोई दारू पी रहा हो। खैर बात मेरे पुलिस वाले मित्र तक पहुँची। उसने उस आदमी को बुला कर बातचीत करने की कोशिश की। पर पैसे की गर्मी भला किस एसी ट्रेन की ठंडक में खत्म होती है। तो जनाब उलझते चले गये। देख लूँगा, दिखा दूँगा की रट लगाये रहे।
तब तक ट्रेन पटना से मुगल सराय पहुँच चुकी थी।
मेरे मित्र ने मुगल सराय में पुलिस वाले को फोन करके बुला लिया था। चार पुलिस वाले आये और दारू पीने वाले साहब को उठा कर ले गये।
बस इतना और हुआ कि उनके चक्कर में तीन और दारूला ट्रेन से उतार लिये गये।
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मैंने अपने मित्र से पूछा कि ट्रेन में तो लोग रोज दारू पीते होंगे। तो, रोज क्यों नहीं पकड़ने का अभियान चलाते हो?
उसने कहा कि ये सारे मुखिया के बेटे होते हैं। इन्हें यूँ ही पकड़ लिया तो छूट जायेंगे। इसलिए कई बार इतना हंगामा करने दिया जाता है, ताकि पर्मानेंट इलाज हो।
अब उन भाई साहब का पर्मानेंट इलाज हुआ है। आना था दिल्ली, उतार लिए गये मुगल सराय, वहाँ से भेजा जाएगा चन्दौली। एक रात हवालात में, फिर मेडिकल, फिर घर को खबर, मीडिया को खबर।
इलाज ऐसा हुआ है कि अब बोतल देख कर ही ट्रेन से कूद पड़ेंगे।
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आदमी को गलत काम नहीं करने चाहिए। वो 364 दिन बच जाता है, तो उसका हौसला बढ़ जाता है। पर एक दिन वो किसी न किसी दारोगा के चंगुल में फंस ही जाता है। अगर किसी गलती पर किसी ने नहीं रोका, नहीं टोका तो खुश होने की जगह सोचना चाहिए कि कहीं पर्मानेंट इलाज की तैयारी तो नहीं चल रही न!
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कृष्ण ने भी शिशुपाल का पर्मानेंट इलाज करने से पहले खूब गलती करने का मौका दिया था।
(देश मंथन 03 जून 2015)