संजय सिन्हा, संपादक, आज तक :
जब माँ मुझे और इस संसार को छोड़ कर जा रही थी तब मैं नहीं सोच पाया था कि माँ के चले जाने का मतलब क्या होता है। मेरी नजर में माँ कैंसर की मरीज थी और भयंकर पीड़ा से गुजर रही थी।
उसकी पीड़ा में ही मैंने ईश्वर से प्रार्थना की थी कि उसे उठा लो। दस साल का बच्चा जब अपनी ही माँ की मौत की कामना करने लगे, तो ईश्वर को भी पिघलना पड़ता है।
माँ मरने को तो मर गयी, लेकिन मेरे लिए माँ अपनी अमिट यादें छोड़ गयी। उसकी एक-एक बात में कई-कई अर्थ छिपे रहते थे। शायद माँ को पता चल गया था कि मैं भगवान से उसके मर जाने की कामना करता हूँ, इसलिए वो मुझे अपने पास बिठा कर बहुत सी कहानियाँ सुनाया करती थी, बहुत सी बातें समझाया करती थी। मैंने कई पोस्ट में इस बात का जिक्र किया है कि माँ ने मरने से एक रात पहले भी मुझे अपने बगल में बैठ कर जीवन का फलसफा समझाने की कोशिश की थी।
माँ चाहती थी कि उसका बेटा बड़ा होकर चाहे कुछ बने या न बने, पैसे कमाये या न कमाये। लेकिन उसे जीवन को सन्तोष के साथ जीने की कला आनी चाहिए। माँ का ध्यान उसकी हर कहानी में इस बात पर होता कि जीवन में जो संतुष्ट नहीं है, उसका जीवन संपूर्ण नहीं है।
मैं तब शायद माँ के उस मर्म को नहीं समझ पाता था, लेकिन जब कभी ये पूछता कि माँ संतोष कैसे हासिल होता है, तो माँ समझाती कि बेटा संतोष अपने मन के भीतर कहीं दबा पड़ा रहता है। अगर तुमने उससे दोस्ती कर ली, तो समझ लो कि तुम्हें कभी दुख नहीं होगा।
“संतोष का अर्थ क्या?”
“संतोष का अर्थ ये कि तुम जो भी काम करोगे, उसका नतीजा जो भी आयेगा, तुम उसे सहर्ष स्वीकार करोगे।”
“लेकिन माँ, इसका मतलब तो लोग ये भी लगा लेंगे कि जो है, ईश्वर की देन है, फिर तो आदमी कुछ करना ही बन्द कर देगा।”
“ये मतलब कुतर्की लोग लगायेंगे। तुम मत लगाना। तुम इसका मतलब बहुत बाद में गीता नामक ग्रन्थ में तलाशना, जब तुम्हें ये पढ़ने को मिलेगा कि तुम्हारा धर्म सिर्फ अपने कर्म करने तक सीमित है तो तुम उस पर यकीन करना। उसके आगे न तुम्हारा जोर है, न होना चाहिए।”
“लेकिन माँ, अगर मुझे अपने किये का लाभ ही नहीं मिलेगा, तो इसका मतलब तो यही हुआ न कि मेरा किया व्यर्थ गया।”
“नहीं बेटा, कभी किसी का किया व्यर्थ नहीं जाता। हर कार्य एक नतीजे में तब्दील होता है। कई बार नतीजा सूक्ष्म होता है, लेकिन उसका असर सूक्ष्म नहीं रहता। इसलिए तुम ऐसा कुछ कभी मत करना, जिसके नतीजे पर तुम्हें अफसोस हो।”
“माँ, तुम इतनी बातें मुझे सिखाती हो, जब तुम चली जाओगी, तो मुझे कौन इतनी सारी बातें सिखलाएगा?”
“तुम्हारे बहुत से दोस्त बनेंगे। ये सब फेसबुक पर तुम्हारे अपने होंगे। जब सारे संसार में फेसबुक पर मित्र बन कर लोग एक दूसरे से झूठ बोल रहे होंगे, एक दूसरे को धोखा देने की सोच रहे होंगे, तुम्हारे साथ जुड़े सभी लोग तुम्हारे अपने बन जायेंगे। सबके भीतर तुम्हारी माँ छिपी होगी।”
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मैं ये बात भूल ही गया था। कल मैंने धान की बोआई और उसकी रोपाई पर एक पोस्ट लिखी। मैंने लिखा कि कैसे धान की पहले बोआई होती है फिर उसे उखाड़ कर दूसरी जगह उसकी रोपाई होती है। माँ ने ही समझाया था कि उखड़ कर फिर से जमना ही जिन्दगी है।
कल मैंने अपनी पोस्ट पर आपकी एक-एक टिप्पणी को बहुत गौर से पढ़ा। आपके एक-एक शब्द को गहराई से समझने की कोशिश की। लगा कि सचमुच मेरी माँ आप सबकी लेखनी में समाहित हो गई है, वो मुझे जीवन का सन्देश दे रही है। वो मुझे याद दिला रही है कि “देखो मैंने कहा था न कि तुम्हारे बसाये संसार में मैं रहूंगी। मैंने कहा था न कि कभी कोई कार्य व्यर्थ नहीं जाता।”
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“माँ, मैं आदमी की पहचान कैसे करूंगा? कौन कैसा है?”
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“जलती हुई आग में सोने की पहचान होती है। सदाचार से सच्चे व्यक्ति की पहचान होती है। व्यवहार से साधु की पहचान होती है। भय के वक्त वीर पहचाना जाता है। आर्थिक कठिनाई में धीर की पहचान होगी। मुश्किल में मित्र की पहचान होती है।”
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मैंने सुना है कि फेसबुक पर लोग एक दूसरे से छल करते हैं, एक दूसरे को धोखा देते हैं। एक दूसरे का नुकसान करते हैं। मेरे पास न जाने कितनी ऐसी खबरें आती हैं। मैं सबसे कहता हूँ कि जिन लोगों को फेसबुक पर भरोसा नहीं, उन्हें मेरी वाल पर आना चाहिए। उन्हें देखना चाहिए कि रिश्ते क्या होते हैं। जिन्दगी कैसी होती है।
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आप सब से बातें करके मुझे सन्तोष मिलता है। क्योंकि, आप सबके भीतर मुझे माँ नजर आती है।
(देश मंथन 10 जून 2015)