संजय सिन्हा, संपादक, आज तक :
मेरे फिजिक्स के टीचर डॉर्विन का सापेक्षता का सिद्धान्त पढ़ा रहे थे।
वो कह रहे थे कि यही सिद्धान्त अन्तिम प्राकृतिक सत्य है।
संजय सिन्हा ने बीच में खड़े होकर मास्टर को याद दिलाने की कोशिश की कि सर ये सापेक्षता का सिद्धान्त तो अलबर्ट आइंस्टीन का दिया है, डॉर्विन ने तो बन्दर से आदमी बनने का सिद्धान्त पेश किया था।
बन्दर से आदमी? ये कौन सा सिद्धान्त है? बन्दर भला कब आदमी बनते हैं? तुम्हें किसी ने उल्लू बना दिया है। बन्दर कभी आदमी नहीं बन सकते। हाँ, आदमी बेशक बन्दर हो सकता है। और तुम्हारे अलबर्ट आइंस्टीन, जिनके बारे में तुम कह रहे हो कि उन्होंने सापेक्षता का सिद्धान्त पेश किया, वो दरअसल डार्विन साहब की ही देन है। सबसे पहले ‘सर्वाइवल ऑफ फिटेस्ट’ का सिद्धान्त उन्होंने दिया और सापेक्षता के सिद्धान्त का जन्म इसी से हुआ है।
मैं भयंकर दुविधा में फँस गया था। ये फिजिक्स के मास्टर को क्या हो गया। ऐसे तो सारे बच्चे फेल ही हो जायेंगे। ये डार्विन और आइंस्टीन में घालमेल कर रहे हैं। लेकिन डाँट पड़ चुकी थी, इसलिए चुप हो गया।
परीक्षा में न तो डार्विन के विषय में कोई सवाल पूछा गया न आइंस्टीन के विषय में, इसलिए सभी बच्चे पास हो गए। लेकिन संजय सिन्हा के मन में खटका बैठ गया था कि मास्टर साहब ने आखिर ऐसा क्यों कहा कि बंदर कभी आदमी नहीं बनते, बेशक आदमी बन्दर बन सकता है।
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मैं बड़ा हुआ। मैंने दुनिया देखी। मैं बहुत से लोगों से मिला। मैंने अमीर देखे। मैंने गरीब देखे। मैं राजा से मिला। मैं प्रजा से मिला। इतना सब देखने के बाद मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि मेरे फिजिक्स के टीचर ने बिल्कुल सही कहा था कि बन्दर आदमी नहीं बनते, हाँ! आदमी बन्दर बन जाता है। मैंने देखा है कि पूरी दुनिया में एक वर्ग है जो मिनरल युक्त साफ पानी पीता है, जो किटाणु रहित साफ पानी से नहाता है, जिसके भोजन में शरीर के लिए जरूरी हर पौष्टिक तत्व मौजूद रहते हैं, जिसका शरीर किसी ग्लोबल वार्मिंग की गर्मी में नहीं झुलसता, जो कभी बारिश में नहीं भीगता, जिसे गैस की वजह से भी सीने में होने वाले दर्द की शिकायत पर दुनिया के सबसे बेहतरीन डॉक्टर से इलाज मिल जाता है।
लेकिन एक ऐसा वर्ग भी है जिसे पानी, खाना तो छोड़िए पूरी रात की नींद तक नहीं मिल पाती। इस वर्ग की आबादी ज्यादा है। बहुत साजिश करके साफ पानी और पौष्टिक खाना वाले वर्ग ने दूसरे वर्ग को उन सुविधाओं से वंचित रखा है। और जो इससे वंचित हैं, उन्हें दूसरे वर्ग ने अपनी दौलत, अपनी ताकत के बूते आदमी से बन्दर बना रखा है। दिखने में ये आदमी की तरह है, लेकिन हकीकत में वो सारा दिन दूसरे के इशारे पर गुलाटियाँ मारता है।
आप सब बहुत पढ़े-लिखे हैं। आप सबने पढ़ा ही होगा कि बहुत पहले आदमी-आदमी को गुलाम बना कर रखता था। जो गुलाम होते थे वो शासक वर्ग की तुलना में दोयम दर्जे के होते थे। पैसे की कमी, ताकत की कमी, भोजन की कमी ने उन्हें दोयम दर्जे का बना दिया था। और ये सब किया जाता ही इसलिए है, ताकि संसार का बहुत बड़ा वर्ग गुलाम बन सके।
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अजीब विडंबना है। पहले दूसरे देशों से आये लोगों ने हमारे देश के लोगों को आदमी से बन्दर बनने पर मजबूर किया। अपने खाने, अपनी शिक्षा और अपनी सुविधा में उसने इतना फर्क पैदा कर लिया कि उसके आगे हम दोयम दर्जे के बन गये। फिर हमें बन्दर बना कर वो खुद मदारी बन बैठा। बहुत मुश्किल से चार्ल्स डॉर्विन के सिद्धान्त के तहत कुछ लोग उस जंजीर को तोड़ कर बाहर निकल पाये और उन्होंने अपनी तरह के दूसरे बन्दरों की मुक्ति की लड़ाई लड़ी। उन्होंने तमाम बन्दरों को समझाया कि तुम बन्दर नही, मदारी बनो।
फिर हम में से कुछ मदारी बन गये और उन्होंने हमारे जैसे बन्दरों को यकीन दिलाया कि अब हमारा इवोल्यूशन होगा। अब हमें बेहतर खाना, बेहतर पानी, बेहतर सोना, बेहतर… सब कुछ बेहतर मिलेगा। और एक दिन हम तन से नहीं मन से भी आदमी बन जायेंगे।
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लेकिन ऐसा हुआ नहीं।
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बहुत पहले एक आदमी शारीरिक शक्ति का इस्तेमाल दूसरे आदमी को बन्दर बनाने के लिए करता था। फिर यही काम सामूहिक रूप में किया जाने लगा और पूरा एक समाज दूसरे समाज को बन्दर बनाने लगा।
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आज कोई किसी का गुलाम नहीं है। सुना है कि देश दर देश आजाद हो चुके हैं। डॉर्विन साहब ने अनाउंस कर दिया है कि अब कोई आदमी बन्दर नहीं, बल्कि बन्दर भी आदमी बन चले हैं। लेकिन कई साल पहले मेरे फिजिक्स के टीचर ने डॉर्विन के सापेक्षता का सिद्धान्त पढ़ाते हुए मुझे समझाया था कि अगर आदमी ने अपनी शिक्षा, अपनी बुद्धि, अपने विवेक का सही इस्तेमाल नहीं किया, तो सापेक्षता के सिद्धान्त के तहत वो फिर आदमी से बन्दर बन जायेगा। वो मदारी के इशारे पर सिर्फ जीने के उपक्रम में लगा हुआ नजर आने लगेगा। उसके पास जीने की फुर्सत ही नहीं होगी। जिन्दगी को जीने का काम कुछ लोग करेंगे। बाकी लोग उनके जीने के लिए सारी सुविधा मुहैया कराने का यन्त्र बन जायेंगे।
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मनुष्य सिर्फ मृत्यु से शापित हो तो कोई बात नहीं, लेकिन जिन्दगी से उसे शापित नहीं होना चाहिए। जो जिन्दगी से शापित होते हैं उनकी भुजाओं में ताकत तो होती है, लेकिन खुद के लिए नहीं। सारा ब्रह्मांड उनमें होता है, लेकिन दूसरों के लिए। जो जिन्दगी से शापित होते हैं, उन्हें अपनी गुलामी का अहसास ही नहीं होता। वो समझते हैं कि डॉर्विन के जो बन्दर इवोल्यूशन के जरिये मनुष्य बन गये हैं, उनमें उनका नंबर अभी भी नहीं आया।
शायद मेरा भी नहीं आया। बहुत देर से मैं पीछे छू कर देख रहा हूँ, क्या पता मेरी पूँछ निकल आई हो!
(देश मंथन 16 जून 2015)