संजय सिन्हा, संपादक, आज तक :
“आओ संजू, मेरे पास बैठो।”
माँ मुझे पास बुला कर मेरा सिर सहला रही थी।
माँ बीमार पड़ चुकी थी और जब कभी यूँ लेटे-लेटे मुझे अपने पास बुला कर बिठाती, तो वो कुछ न कुछ समझाना चाहती थी। कभी कोई वो बात सीधे ही कह देती, कभी बड़ी लंबी कहानी सुना कर समझाती। जो भी था, माँ का मुझे बुलाना मेरे लिए हमेशा बहुत सुखद था।
“हाँ माँ, कहिए।”
“कल तुमने बातचीत में मुझसे कहा था कि तुम्हें नहीं लगता कि शकुनी दुर्योधन का हितैषी था।”
“माँ, दुनिया कहती है कि मामा शकुनी अपने भांजे का सर्वत्र भला चाहता था, उसकी आत्मा अपनी बहन के बेटों में बसती थी और उसने अपनी बहन के प्यार में अपने राज्य गंधार तक को त्याग दिया था, लेकिन पता नहीं क्यों मुझे लगता है कि वो अपनी बहन से प्यार नहीं करता था, अपने भांजों से प्यार नहीं करता था।”
“तुमने बहुत बारीक बात पकड़ी है, बेटा। सच यही है कि शकुनी ही वो इकलौता व्यक्ति था, जिसकी वजह से महाभारत का पूरा युद्ध हुआ।”
“इसका मतलब ये कि शकुनी ही हस्तिनापुर के पतन का कारक बना?”
“नहीं। हस्तिनापुर के पतन का कारक तो वो विकल्प था, जिसकी वजह से संकल्प दुर्बल हुआ।”
“ये क्या माँ, इतने कठिन इशारों में मुझे समझाओगी तो मैं कैसे समझूँगा। मुझे क्या पता कि ये विकल्प और संकल्प क्या होता है?”
“तुम्हारी ये बात सही है। बड़ों की तरह समझने की तुलना में बच्चों की तरह समझना आसान और आनंददायक होता है। बड़े तो सब समझ कर भी कुछ नहीं समझते, क्योंकि अपने सिर पर ज्ञान की गठरी का बोझ लेकर उस ओर चलते हैं, जो दरअसल ज्ञात होकर भी अज्ञात होता है, जबकि बच्चे अज्ञात की ओर दौड़ते हुए भी ज्ञात को प्राप्त होते हैं, क्योंकि उनके सिर पर कोई गठरी नहीं होती।”
“बहुत सही कहा आपने, माँ। मेरे सिर पर कोई गठरी नहीं। आपकी सुनाई कहानियों से मैं तो इतना ही सोच सका हूँ कि जो बात मेरे जैसे बच्चे की भी समझ में आ रही थी कि ऐसा करने से वैसा होगा, वो बात भला इतने बड़े-बड़े ज्ञानी क्यों नहीं समझ पाये कि इसका नतीजा ये होगा। अगर वो समझ पाते, तो क्या हस्तिनापुर का इस तरह पतन होता?”
“ऐसा नहीं है कि कोई कुछ समझ नहीं रहा था। सब समझ रहे थे, लेकिन राजनीति में जब कोई किसी की गलती पर अपनी आँखें बन्द कर ले, तो समझना चाहिए कि वो कहीं न कहीं अपनी गलतियों पर पर्दा डालने की कोशिश कर रहा है। राजनीति की बिसात जब राजा की कमजोरियों के चौसर पर बिछती है, तो सब देख कर भी अनदेखा करना उसकी मजबूरी बन जाती है।”
“माँ, इसका मतलब ये हुआ कि आने वाले राजा भी अगर किसी की गलतियों पर पर्दा डालते नजर आएँ तो मुझे ऐसा सोचना चाहिए कि ये उनकी किसी कमजोरी का नतीजा है?”
“जब तक आदमी अपनी दुर्बलता का दास नहीं होता, वो किसी से नहीं डरता। और अपने राज्य में अपने लोगों से डरने का सीधा अर्थ यही होता है कि उसका जो अपना है, वो उसकी दुर्बलता के सच को जानता है। शकुनी को मालूम था कि पितामह ने अपने नेत्रहीन वंशज के लिए उसकी फूल जैसी खूबसूरत बहन गांधारी को जबरन विवाह के लिए राजी किया है। ऐसा नहीं है कि शकुनी अपनी बहन से प्यार नहीं करता था। वो बहुत प्यार करता था। लेकिन उसकी खुद की विकलांगता उसके प्यार की सबसे बड़ी कमजोरी थी। वो जानता था कि उसके पिता ने अपनी बेटी का हाथ एक नेत्रहीन के हाथों में इसलिए नहीं दिया कि वो उन्हें बतौर दामाद पसन्द आ गया था, बल्कि उसने इसलिए दिया था, क्योंकि विकल्प नहीं था। भीष्म की ताकत के सामने वो बेबस थे। उनकी इसी बेबसी ने शकुनी को उस षड़यंत्र के लिए तैयार किया, जिससे भविष्य में हस्तीनापुर का पतन होना तय था।”
“माँ, आज कहानी जरा उलझी हुई सी लग रही है।”
“ठीक है, और आसान करती हूँ। शकुनी अपनी बहन से बहुत प्यार करता था और भीष्म शकुनी की बहन को अपनी ताकत के दम पर धृतराष्ट्र के लिए जबरन उठा लाए। यहाँ तक तो स्पष्ट है?”
“हाँ।”
“जब भीष्म ने जबरन शकुनी की बहन की शादी धृतराष्ट्र से करा दी और शकुनी चाह कर भी कुछ नहीं कर पाया तो उनसे मन ही मन तय कर लिया कि वो इन सभी शूरवीरों से बदला लेगा। उसके पास इतनी ताकत नहीं थी कि वो उन्हें युद्ध में परास्त कर सके। इसलिए उसने छल युद्ध की तैयारी शुरू कर दी। युद्ध अगर रणभूमि में हो, तो उसका नतीजा अलग होता है, लेकिन युद्ध अगर मन में हो, तो उसका नतीजा अलग होता है।
अब क्योंकि पूरा हस्तीनापुर जानता था कि भीष्म ने ताकत के बूते धृतराष्ट्र का विवाह शकुनी की बहन से किया है, इसलिए जब शकुनी अपनी बहन के पीछे-पीछे हस्तीनापुर चला आया, यहीं रहने लगा तो सब जानते और समझते हुए भी चुप रहे। राजनीति में चुप्पी की सबसे बड़ी विडंबना की शुरुआत भी यहीं से हुई। शकुनी हस्तीनापुर में ठीक भीष्म की नाक के नीचे बैठा था। उन दिनों अखबार नहीं थे, टीवी नहीं थे। अगर होते तो शकुनी की एक से बढ़ कर एक खबरें छपतीं और पूरा राज्य उसपर पर्दा डालता नजर आता। कोई नहीं चाहता कि राज्य की बदनामी हो। इनमें से कोई शकुनी से नहीं दबा था, सब अपनी-अपनी कमजोरियों से दबे थे।
शकुनी कभी अपने दम पर हस्तिनापुर को बर्बाद नहीं कर सकता था, इसलिए उसने अपनी बहन के प्यार की आड़ में उसके पुत्रों के भीतर सत्ता का जहर भरना शुरू किया। दुर्योधन के मन में महत्वाकांक्षा के रथ को सजा कर शकुनी उसका सारथी बन बैठा। उसने ही ऐसी पृष्ठभूमि रची कि पांडवों के प्रति उसके मन में नफरत भर जाए। और युद्ध के लिए पूरा माहौल तैयार होने दिया।”
“लेकिन माँ, तब तो धृतराष्ट्र का पूरा मन्त्रिमंडल इतना पावरफुल था, शकुनी की मंशा समझ ही गये थे तो उसे वहाँ से भगा देते।”
“आदमी अपनी ताकत से जितने युद्ध नहीं जीतता बेटा, अपने मन की कमजोरी से उससे अधिक युद्ध हार जाता है। वहाँ सभी मन से कमजोर थे। शकुनी उन सबकी उन कमजोरियों का फायदा उठा रहा था। सब जानते थे कि शकुनी ने जिस हथियार को भीष्म के सामने खड़ा कर दिया है, उसका मुकाबला चाह कर भी भीष्म तो क्या खुद महाराज भी नहीं कर सकते थे। इसीलिए तो कहती हूँ बेटा कि कभी कमजोरी को अपना दोस्त मत बनने देना। आदमी की हर कमजोरी अपनी औकात से अधिक कीमत वसूल कर ले जाती है। भीष्म कमजोर थे, क्योंकि उन्होंने गांधारी की मर्जी के बिना उसका विवाह धृतराष्ट्र से किया था। धृतराष्ट्र कमजोर थे, क्योंकि अपनी नेत्रहीनता को उन्होंने अपने मन पर हावी हो जाने दिया था। विदुर कमजोर थे, क्योंकि उन्होंने सिर पर ज्ञान की गठरी लाद ली थी। द्रोण कमजोर थे, क्योंकि दौलत की चकाचौंध में उनकी आँखें पूरी तरह बन्द हो चुकी थीं। मतलब ये कि पूरा राज्य पूरे आर्यावर्त में सबसे शक्तिशाली होने का दंभ भरते हुए भी भीतर से बहुत कमजोर था। शकुनी इस कमजोरी को पहचान गया था। उसने उनकी इसी कमजोरी का फायदा उठाया और दुर्योधन को युद्ध में झोंक दिया। जो बात सभी जानते थे, उसे वो भी जानता था। लेकिन उसने दुर्योधन को हथियार बनाया हस्तिनापुर की हार का। वो जानता था कि पांडवों से युद्ध में वही जीतेंगे, पर दुनिया के सामने उसने ये छवि बनाई कि वो पांडवों का दुश्मन था, और कौरवों का हितैषी। जबकि सच ये नहीं था।
आदमी जब अपने अहँकार की लड़ाई लड़ता है तो उसका हित और अहित समझ पाना बहुत मुश्किल होता है। आदमी दुश्मनों से तो लड़ सकता है, लेकिन अगर कोई उसी के खेमे में बैठ कर मन ही मन उसे ही परास्त करने की चाल, चले तो उसका पता चल पाना मुश्किल होता है।”
“मैं समझ गया माँ। शकुनी कौरवों के बीच घुस कर अपना बदला कौरवों से ले रहा था। ले क्या रहा था, ले ही लिया। लेकिन माँ, क्या आगे भी राजनीति में ऐसा होगा, जब कोई अपना ही अपने राज्य को मिटा देने का संकल्प लेकर बैठा होगा, और कोई कुछ नहीं कर पायेगा?”
“हाँ, मेरे प्यारे बेटा। महाभारत में ऐसी कोई घटना घटी नहीं, जो इस दुनिया में पहले कभी घटी नहीं, और जो आगे नहीं घटेगी।”
***
जो लोग ठीक और अठीक का निर्णय लेने में देर करते हैं, वो दरअसल खुद को भले किसी मोड़ पर विजयी मानें, लेकिन होते वो पराजित ही हैं। उन्हें भले लगे कि वो मारे नहीं गये, लेकिन सच यही है कि उनका धर्म मारा जाता है, उनका सत्य भी मारा जाता है। और जिसका धर्म ही मर गया, सत्य मर गया उसके जीवित होने और मृत होने में कितना अन्तर रह जाता है।
महाभारत का युद्ध भले कुरुक्षेत्र में लड़ा गया था, लेकिन शकुनी के मन में वो युद्ध बहुत पहले लड़ा जा चुका था। उस युद्ध में उसने बहुत पहले देख लिया था कि सबके सत्य की हत्या की जा चुकी है, सबका धर्म मारा जा चुका है, क्योंकि संपूर्ण राज्य में एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं था, जिसने ठीक और अठीक में भेद करने के लिए मुँह भी खोला हो। सबको पता था कि गांधारी का विवाह धृतराष्ट्र से कराना एक अठीक निर्णय था। सबको पता था कि युद्ध किसी और के बीच होगा और मजा किसी और को आयेगा।
(देश मंथन 19 जून 2015)