प्यार को प्यार ही रहने दो

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संजय सिन्हा, संपादक, आज तक :

“माँ, उठो। माँ, सुनो मैं क्या पूछ रहा हूँ। दो दिन पहले मैंने पोस्ट में लिख दिया था कि पांचाल के नृपति द्रुपद ने कृष्ण को अपनी बेटी द्रौपदी से विवाह के लिए आमंत्रित किया था, तो कुछ लोगों ने नाराजगी जताई और कहा कि मैं धर्म और पौराणिक कहानियों के विषय में कुछ नहीं जानता, केवल काल्पनिक कहानी लिख रहा हूँ। 

तो क्या माँ, तुमने मुझे केवल काल्पनिक कहानी ही सुनाई थी? जवाब दो माँ। मुझे अपने उन कुछ फेसबुक परिजनों को जवाब देना ही होगा, जिन्होंने मुझे से सवाल किये हैं। जिन्होंने बतौर सबूत पेश किया है कि असल में द्रुपद ने द्रौपदी के जन्म के समय ही अर्जुन को अपना दामाद बनाने की कल्पना कर ली थी। और कृष्ण से उसके विवाह की बात सोचना मेरे मन की कल्पना है। 

माँ, जवाब दो।”

“सुनो बेटा! तुम जरा भी विचलित मत होना। मैंने तुम्हें जितनी पौराणिक कहानियाँ सुनाई हैं, तुमने उन्हें आत्मसात किया है। तुम अपने परिजनों को जो सुना रहे हो, उसका एक-एक शब्द सत्य है। सत्य का अर्थ कहीं न कहीं दर्ज है।सभी पौराणिक कहानियाँ अपने भीतर एक नहीं, कई अर्थ समेटे हुई हैं। बहुत से लोग उन अर्थों को नहीं समझ पाते, इसलिए तुम्हारे विरोध में ऐसी टिप्पणियाँ कर बैठते हैं। मैंने भी कई टिप्पणियाँ पढ़ीं, तुम्हें उनसे परेशान होने की जरूरत नहीं। तुम उन्हें फिर से वही कहानी सुनाओ और उसका अर्थ भी समझाओ। मेरा यकीन करो, तुम्हारी दाढ़ी नहीं है, तुम्हारे नाम के आगे स्वामी भी नहीं लगा, लेकिन मेरे लाल, तुम किसी ऐसे आदमी की परवाह मत करना, जिसने अपना नाम श्रीकृष्णा या प्रेमी रख लिया हो, जिसने दाढ़ी बढ़ा ली हो, जिसने माथे पर तिलक लगा कर खुद की साधु वाली तस्वीर खिंचवा कर फेसबुक पर खुद को समाहित कर रखा हो। ऐसे लोग ठीक से पढ़ाई -लिखाई कर नहीं पाये होते हैं और धर्म के नाम पर अज्ञान और अविश्वास फैलाने का धन्धा करते हैं। तुमने जो कहानी लिखी थी, वही सच थी, वही सही थी। फिर भी उन लोगों को, जिन्होंने महाभारत पढ़ने का दंभ भरा है और तुम पर सवाल उठाने की कोशिश की है, उसे द्रोण और द्रुपद के झगड़े के विषय में पहले बताओ। फिर बताओ कि कृष्ण कैसे द्रौपदी के सखा बने। एकाध लोगों के उस सवाल का जवाब भी आज ही दे देना कि द्रौपदी को तुमने एक दो बार पांचाली क्यों लिखा है।”

“ठीक है, माँ। मैं आज उन्हें वो सब फिर से सुना देता हूँ, जिसे उन्हें अपनी दादी-नानी से ठीक से सुनना चाहिए था।”

द्रुपद और द्रोण दोनों एक ही स्कूल में साथ-साथ पढ़ते थे। 

“माँ स्कूल लिखूँ तो ठीक रहेगा न? या विद्यालय लिखूँ?”

“दोनों सही हैं मेरे प्यारे संजू बेटा। तुम रुको मत, लिखते जाओ।”

हाँ, तो द्रोण और द्रुपद दोनों साथ-साथ पढ़ते थे। द्रोण ने अपने स्कूली जीवन में द्रुपद को बाण विद्या सीखने में मदद की थी। द्रुपद राजपुत्र थे। एक दिन द्रुपद ने द्रोण से कहा कि यार, जब मैं राजगद्दी पर बैठ जाऊँगा, तो मैं तुझे अपना आधा राज्य दे दूँगा। इस तरह हम दोनों जनम-जनम साथ रहेंगे, भाइयों की तरह।

द्रुपद के ऐसा कहने से द्रोण बहुत खुश हुये।

जब दोनों ने तीरंदाजी में ग्रेजुएशन की पढ़ाई कर ली, तो द्रुपद अपने राज्य चले गये और राजा बन गये। द्रोण ने इधर-उधर नौकरी के लिए आवेदन दिए, लेकिन कैंपस में उनका प्लेसमेंट नहीं हुआ। आखिर हार कर वो अपने स्कूल फ्रेंड द्रुपद के पास गए लेकिन द्रुपद ने द्रोण को पहचानने से इनकार कर दिया। 

ले बलइया। द्रोण का मुँह लटक गया। बहुत अपमान महसूस हुआ और वो ठगे से वापस लौट आये। 

कुछ दिनों बाद उन्हें महाराज धृतराष्ट्र के यहाँ से नौकरी का ऑफर आया कि वो उनके सौ पुत्रों और पाँच भतीजों को तीरंदाजी के लिए ट्यूशन दें। द्रोण तैयार हो गये। पर उनका मन द्रुपद के हाथों हुए अपमान पर अटका था।

आदमी के मन पर जब कोई गहरी चोट लग जाती है, तो वो जब तक ठीक न हो, आदमी को आपना ही जीवन भार लगने लगता है। 

तो, द्रोण को हस्तिनापुर के राजकुमारों को पढ़ाने का ठीक काम मिल गया था, लेकिन वो व्याकुल भारत बने हुये थे, द्रुपद से बदला लेने के लिए। 

एक दिन उन्होंन मन की व्यथा अपने शिष्यों के आगे रखी कि जो भी राजा द्रुपद को पकड़ कर उनके आगे ले आयेगा, वो उनका सबसे प्रिय शिष्य होगा। 

अर्जुन इस काम के लिए आगे आये। उन्होंने द्रुपद के राज्य में जाकर उनपर नजर रखनी शुरू कर दी। उन्होंने पाया कि वो सुबह-सुबह अकेले सैर के लिए निकलते हैं। अर्जुन ने उन्हें ऐसी ही एक सुबह मौका देख कर पकड़ लिया और अपने गुरु के पास लेकर आये। द्रोण ने उनसे कहा कि उन्होंने अपने अपमान का बदला ले लिया और फिर उन्हें छोड़ दिया। अब बारी थी द्रुपद के अपमान का बदला लेने की। उस दिन तो उन्होंने कुछ नहीं किया लेकिन वो मन ही मन द्रोण से चिढ़ गये। ये अलग सत्य है कि अर्जुन अपनी वीरता की वजह से उन्हें बहुत पसन्द आये, और उन्होंने अपने लिए बेटी की कामना की ताकि अर्जुन उन्हें दामाद के रूप में मिल सके। उनके मन में अर्जुन के लिए सॉफ्ट कॉर्नर का जन्म हो चुका था। लेकिन जब द्रुपद के बेटी हुई और उसे पिता के बन्धक बनाये जाने के विषय में पता चला तो शुरुआत में उसके मन में अर्जुन के लिए नफरत थी, जिसका जिक्र उसने कृष्ण से मुलाकात में किया था। 

कोई भी बेटी अपने पिता का अपमान करने वाले को अपना वर नहीं चुनना चाहेगी। ऐसे में कृष्ण दोनों को सुयोग्य वर लगे। ये अलग बात है कि कृष्ण की भी अर्जुन से दोस्ती निकल आयी और भविष्य में वही हुआ, जो होना था। 

कहानी बहुत साफ है कि द्रोण और द्रुपद दुश्मन बन गये थे। द्रौपदी किसी कीमत पर अर्जुन को वरण करने के पक्ष में नहीं थीं। कृष्ण से विवाह का प्रस्ताव सामने आया था, पर उन्होंने उन्हें सखी का दर्जा देकर ये जता दिया कि वो जो कहेंगे और जो करेंगे, वो द्रौपदी और उनके पिता के हित में होगा। इसीलिए मछली की आँख वाले स्वयंवर में अर्जुन के जीतने की सारी व्यवस्था कर दी गयी थी। 

अब बात ये कि द्रौपदी और कृष्ण में प्यार कैसे हुआ। तो भई जब बात विवाह तक पहुँच गई थी, द्रौपदी ने कृष्ण में अपना आकर्षण जता दिया था, तब चाहे विवाह न हुआ हो, पर जब एक बार प्रेम जुबाँ से खुल कर जाहिर हो जाता है, तो वो सामान्य रिश्ता नहीं रह जाता। ऐसी परिस्थितियों में या तो दोनों के मन में नफरत पलने लगती है, या फिर प्रेम। यहाँ प्रेम पला। 

बाद में कृष्ण की बहन सुभद्रा की शादी अर्जुन से हो गई, तो इस नाते कुछ लोगों ने कृष्ण और द्रौपदी को भी बहन बना दिया। वैसे भी प्रेम जब पराकाष्ठा पर हो तो उसे किसी नाम के क्या फर्क पड़ना है। तो, जिन तिलकधारियों की भावनाएँ ऐसी कहानियों से आहत होती हैं, उनके लिए सन्देश है कि वो तीन-चार बार और महाभारत पढ़ें। 

अब अगला सवाल। द्रौपदी का नाम पांचाली शादी के बाद पड़ा। 

ना भाई ना। पांचाली का अर्थ आपने पाँच पतियों से जोड़ लिया है, इसलिए ऐसी गलती हो रही है। पर इसका संबंध पाँच पतियों से नहीं, बल्कि पंचाल राज्य की पुत्री होने से है। इसीलिए मेरे परसों वाले लेख में कृष्ण ने एकाध दफा द्रौपदी को प्यार से पांचाली भी बुला लिया है। 

और आखिरी बात, मैं फुटबॉल पर नहीं लिखता, क्योंकि मुझे फुटबॉल के विषय में कुछ भी पता नहीं। मैं हवाई जहाज के बारे में भी नहीं लिखता, क्योंकि मुझे हवाई जहाज की तकनीक भी पता नहीं। इसी तरह मैं इसलाम धर्म और ईसाई धर्म पर भी नहीं लिखता, क्योंकि मुझे उनके विषय में भी ज्यादा नहीं पता। 

ऐसे में मेरी पोस्ट पर ये सब लिखने वालों को समझना चाहिए कि मैं जन्म से हिन्दू हूँ और मेरी हिन्दू माँ ने मुझे हिन्दू धर्म की सारी कहानियाँ बहुत विस्तार से सुनायी हैं, समझाई हैं। मुझे अपने धर्म से प्यार है, और मैं जो भी लिखता हूँ, बहुत सोच समझ कर लिखता हूँ। तो मेरी विनती है कि प्लीज मेरे लिखे पर अपने वाहियात कमेंट करने वाले अति हिन्दुवादी प्लीज कोई और वाल झाँकिए। वहाँ बहुत मौका मिलेगा आपके ज्ञान को परखने का। ये संजय सिन्हा के परिजनों का मिलन स्थल है। यहाँ अपने धार्मिक और भड़ाऊ ज्ञान से प्लीज किसी को आनन्द न पहुँचाएँ।

मुझे बचपन में कोई बच्चा धमकी देता था, तो मैं माँ को बुला लेता था। मेरी माँ पैंतीस साल पहले भगवान के पास चली जरूर गई है, लेकिन मेरी एक आवाज पर वो चली आती है। आज भी वो मेरे बुलाने पर चली आयी और उसने मुझे डबल कनफर्म किया कि मैंने जो लिखा था, सही लिखा था, सही के सिवा कुछ नहीं।

(देश मंथन 22 जून 2015)

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