संजय सिन्हा, संपादक, आजतक :
मैंने कहीं पढ़ा था कि एक बार एक अमेरिकी, जो घनघोर नास्तिक था, भारत घूमने आया और यहाँ से वापस जाते हुए वो अपने साथ भगवान की एक मूर्ति लेकर गया। लोगों को बहुत आश्चर्य हुआ कि ये नास्तिक अमेरिकी भला भारत से भगवान की मूर्ति क्यों खरीद लाया है। लोगों ने उससे पूछा कि भाई, इस मूर्ति में ऐसी क्या बात है।
आप तो भगवान में यकीन करते नहीं थे, फिर ऐसा मन परिवर्तन क्यों हुआ।
अंग्रेज ने मूर्ति को माथे से लगाते हुए कहा, “जब तक मैं भारत नहीं गया था, मुझे ईश्वर पर भरोसा नहीं था। लेकिन वहाँ जाने और घूमने के बाद मैंने महसूस किया कि सचमुच ईश्वर है और वो देश ईश्वर के भरोसे ही चल रहा है। जहाँ पीने के लिए पानी नहीं, खाने के लिए खाना नहीं, चारों ओर गंदगी ही गंदगी वहाँ के लोग भी खुशी से जी रहे हैं। वहाँ के लोगों को भगवान पर भरोसा है, और वो उसी भरोसे के बल पर जीते चले जा रहे हैं। सच यही है कि उस देश को भगवान ही चला रहा है।”
ये सच है। मेरी दादी उस अंग्रेज से चार कदम आगे थी। दादी तो मानती थी कि सारा संसार ही भगवान ही चला रहा है। मेरे दादा जमींदार थे और दादी में जमींदार की पत्नी होने वाली सारी ठसक मौजूद थी। लेकिन दादी का भरोसा भगवान पर ही था।
क्या विरोधाभास था। नाना स्वतंत्रता सेनानी, दादा जमींदार।
दादा का निधन आजादी से पहले ही हो चुका था, इसके बाद तो दादी का सारा समय टुन-टुन घंटी बजाने और भगवान को मिश्री का भोग चढ़ाने में ही बीतने लगा था। दादी को न इमरजंसी से कोई मतलब था, न इन्दिरा गाँधी से। लेकिन जबसे उन्होंने सुन लिया कि संजय गाँधी ने लोगों को पकड़-पकड़ कर नसबंदी करानी शुरू कर दी है, तो उनकी दिलचस्पी राजनीतिक खबरों में होने लगी। वो घर के बाहर सबकी दादियों और नानियों के साथ दोपहर में बैठ जातीं और उनकी चर्चा का विषय होता, “ये देश अब रसातल में जाकर रहेगा। कोई भला ऐसे करता है। भगवान के बनाए नियमों से कोई छेड़खानी करता है। अरे क्या आदमी के हाथ मैं है बच्चे पैदा करना। ये तो भगवान की मर्जी है, जिसके हाथ की लकीर में जितने बच्चे लिखे होंगे उतने होंगे। बुरा हो इन्दिरा गाँधी का, जो बच्चा पैदा करने पर ही रोक लगाने का फरमान सुना बैठी है। खुद की तो मरद से बनी नहीं, बाकी मरदों को नामरद बनाने पर लग गयी है।”
मैं वहीं पास में गेंद से खेलता रहता। कभी-कभी हमारी गेंद दादी की मंडली के पास चली जाती, तो दादी मुझे पास बुलाती, मेरे बाल सहलाती और कहती कि बेटा तुम अकेले घर से बाहर मत निकलना। और हाँ, सुनो कोई तुम्हें लड्डू, पेड़ा दे तो खा मत लेना। उसमें जहर मिला कर वो बच्चों को खिला देते हैं, और फिर पकड़ कर ले जाते हैं। मैंने दादी की बात सुनी थी और मैंने तय कर लिया था कि अपने अहाते से बाहर जाने की जरूरत ही क्या है। लेकिन नवीन भैया ने नहीं सुनी। क्या पता नवीन भैया से दादी ने कुछ कहा भी न हो। नवीन भैया हमारे ही मुहल्ले में रहने वाले तिवारी चाचा के बेटा थे। हमसे बहुत बड़े थे। उनके पास राजदूत मोटरसाइकिल थी। भैया की शादी हुई नहीं थी और कॉलेज-फालेज बंद थे, तो वो इधर-उधर मोटरसाइकिल लेकर मटरगश्ती किया करते थे। कभी-कभी कुछ दाढ़ी वाले भइयाओं को मोटरसाइकिल पर साथ बिठा कर लाते।
नवीन भैया उस शाम घर नहीं आये। देर शाम तक तो सब ठीक रहा, लेकिन रात होते ही तिवारी चाचा को परेशान होने लगे। हम बच्चों के पास आये कि तुम लोगों ने नवीन को देखा है।
बड़ा अजीब सवाल था। नवीन भैया को तो पूरे मुहल्ले ने देखा है। फिर आज चाचा क्यों पूछ रहे हैं कि तुमने नवीन को देखा है।
खैर, नवीन भैया उस रात घर नहीं आए। बहुत इधर-उधर हुआ। हमारे घर यही चर्चा होती रही कि नवीन घर नहीं लौटा। सुबह-सुबह नवीन भैया को लेकर कोई आया और घर के बाहर छोड़ कर चला गया।
नवीन भैया मिल गए, नवीन भैया मिल गये। पूरे मुहल्ले में खुशी की लहर फैल गई।
कई लोग तिवारी चाचा के घर पहुँचे।
पर वहाँ मातम तो मचा था। तिवारी चाची नवीन भैया को गले से लगाये रोये जा रही थीं। नवीन भैया लेटे हुए थे, उनकी आँखों से आंसू बह रहे थे।
मेरी समझ में नहीं आया कि आखिर हुआ क्या? कहीं किसी ने नवीन भैया को लड्डू या पेड़ा तो नहीं खिला दिया।
तभी तिवारी चाची अचानक उठीं और उन्होंने दोनों हाथ जोड़ कर सबके सामने इन्दिरा गाँधी और संजय गाँधी को शाप देना शुरू कर दिया।
पूरा मामला मेरे पल्ले तो पड़ नहीं रहा था, पर मुहल्ले के सभी लोग संजय गाँधी को कोस रहे थे।
मैं घर चला आया। बड़ा हृदय विदारक सीन था। नवीन भैया अच्छे आदमी थे। उनके एकाध दाढ़ी वाले दोस्तों से भले मुझे चिढ़ होती थी, पर नवीन भैया कभी-कभी मुझे मोटरसाइकिल पर घुमाते थे।
आज वो नवीन भैया रो रहे थे।
घर पर माँ दादी को बता रही थी कि नवीन की नसबंदी हो गयी है। नसबंदी? दादी तड़पीं। उनकी आँखें मेरी ओर घूमी। “अरे तुम बाहर मत निकलना मेरे लाल। बड़ा बुरा वक्त आया हुआ है। हाय ई नवीनवा की
की नसबंदी करा दी गई थी। मैं तो कहती थी कि बाहर मत जाना, बाहर मत जाना। कोई मेरी सुने तब न! लो, अब कर लो जो करना है। अभी मरद बने नहीं थे, नामरद पहले बन गये। यही होता है जब किसी के घर में औरत अपने माथा पर पगड़ी बांध कर मरद बन जाती है। जिस घर में औरत पगड़ी पहन ले, तो समझो उस घर का नाश तय है। ई इन्दिरा गाँधी अब पगड़ी पहन ली है। अब इस देश का पतन होकर रहेगा।”
दादी की इस सोच को बल मिला उस बाबाजी की भविष्यवाणी से, जिसमें उन्होंने ये ऐलान कर दिया था कि दुनिया अब नहीं बचेगी। जिसे उनकी भविष्यवाणी पर संदेह हो, वो अपने घर में मौजूद रामायण या रामचरित मानस खोल कर देख ले, उसमें कहीं न कहीं पन्नों के बीच बाल मिलेगा।
दादी ने फटाफट रामचरितमानस उठाया। रामचरितमानस हमारे घर में कई वर्षों से पड़ा था। दादी ने उसके पन्ने पलटने शुरू किए तो उसके बीच में एक बाल मिला। दादी का चेहरा चमक उठा। ये पंडित सही कहता है। दादी करीब-करीब दौड़ती हुई मुहल्ले वाली मंडली के पास पहुँचीं। उन्होंने कहा कि अब दुनिया खत्म होने वाली है। रामायाण में बाल मिला है। बाकी सारी महिलाएँ भी रामायण लेकर आ गईं। इत्तेफाक से सबके पन्नों के बीच छोटा, बड़ा, काला, सफेद एक दो बाल निकल आया।
बाद में पिताजी दादी को समझाने की पूरी कोशिश की कि ये आपका ही बाल है, जो पढ़ते हुए कभी गिर पड़ा होगा। हर घर में रामायण और रामचरित मानस लोग रखते हैं, पढ़ते हैं, बाल गिर जाना कोई बड़ी बात नहीं। पर दादी पिताजी की दलील को नहीं मानने को तैयार थीं। कहने लगीं कि तिवारी जी के बेटे का जो ऑपरेशन हुआ है, ये सब उसी का शाप है। देखना अब ये देश नहीं बचेगा। मैं तो कहती हूँ कि दुनिया ही नहीं बचेगी।
***
इलाहाबाद के जिस जज जगमोहन लाल सिन्हा ने 12 जून 1975 को अपने फैसले में इन्दिरा गाँधी के चुनाव को अवैध घोषित कर दिया था, उनसे मुझे जून 2000 में मिलने जाना था। मैं जी न्यूज में था और मुझसे कहा गया कि इमरजंसी की पच्चीसवीं सालगिरह आ रही है। पच्चीसवीं सालगिरह मतलब सिल्वर जुबली। टेलीविजन में ऐसी तारीखों पर आधे या घंटे भर का प्रोग्राम दिखाने का नया-नया रिवाज शुरू हो रहा था। इससे पहले तो दूरदर्शन पर रात नौ बजे के समाचार में देश-दुनिया की सारी खबरें समाहित होती रहती थीं। पर जी न्यूज नया-नया 24 घंटे का चैनल था, और प्रयोग के नये दौर से गुजर रहा था।
मुझसे कहा गया कि मैं बिना किसी पूर्व अनुमति के इलाहाबाद चला जाऊँ और जस्टिस सिन्हा का इंटरव्यू करके ले आऊँ।
मैं सुबह की फ्लाइट से लखनऊ पहुँचा। तब वाशींद्र मिश्र लखनऊ में जी न्यूज के ब्यूरो चीफ हुआ करते थे। मैं सीधे उनके पास पहुँचा और उनसे मैंने कहा कि मेरे लिए एक टैक्सी का इंतजाम कर दीजिये, इलाहाबाद जाना है।
मैं इलाहाबाद पहुँच गया। बहुत ढूँढ़ कर मैं जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा के घर पहुँचा। मुझे बताया गया कि जज साहब घर पर नहीं हैं। मुझे घोर निराशा हुई। मैं वहीं खड़ा होकर सोचने लगा कि अब क्या करूँ।
पता नहीं क्यों, लेकिन मेरा दिल कह रहा था कि जज साहब घर के भीतर हैं, लेकिन मीडिया से नहीं मिलना चाह रहे।
मैं अपने साथ कुछ नोट बना कर ले गया था, मैंने बैग से उन्हें निकाला और वहीं एक खड़े होकर पढ़ना शुरू किया।
आखिर इमरजंसी क्यों लगानी पड़ी?
1971 में रायबरेली लोकसभा सीट से राज नारायण इन्दिरा गाँधी से चुनाव हार गये, तो उन्होंने इलाहबाद हाईकोर्ट में केस किया कि इन्दिरा गाँधी गलत तरीके से चुनाव जीती हैं। मामले की चार साल सुनवाई हुई। जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा ने 12 जून 1975 को इन्दिरा गाँधी को दोषी पाया और चुनाव रद्द कर दिया। मामला सुप्रीम कोर्ट में गया और न्यायमूर्ति वीआर कृष्ण अय्यर ने हाईकोर्ट के फैसले पर स्टे लगा दिया। इस फैसले से नाराज इन्दिरा ने कैबिनेट की औपचारिक बैठक बुलाई और अगले दिन राष्ट्रपति से आपातकाल की अनुशंसा करवा दी। हालाँकि ये इकलौती वजह नहीं थी इमरजंसी के लिए।
जो नोट मैंने तैयार किया था, उसमें ये भी लिखा था कि गुजरात के इंजीनियरिंग कॉलेज में मेस की फीस बढ़ने के विरोध से शुरू हुआ जयप्रकाश नारायण का आंदोलन दरअसल इन्दिरा गाँधी के लिए मुसीबत बन गया था। जेपी ने इन्दिरा गाँधी के खिलाफ आंदोलन शुरू किया और जल्दी ही इन्दिरा विरोधी लोग जेपी के साथ हो लिए। राजनीति में आंदोलन कोई शुरू करता है, रोटी किसी की सिंकती है। जेपी ने बेशक मेस फीस कम कराने के मकसद से इन्दिरा गाँधी के विरोध में आवाज उठाई होगी, लेकिन तमाम विपक्षी दल इस आंदोलन से जुड़ गये। सबको लगा कि जेपी की पीठ पर इन्दिरा गाँधी से हिसाब चुकाने का ये मौका है।
इससे पहले जार्ज फर्नांडीस ने अप्रैल 1974 में रेलवे में हड़ताल करा दी थी। ये पहला मौका था जब रेल गाड़ियाँ ठप हो गयी थीं। इन्दिरा गाँधी ने डिफेंस ऑफ इंडिया एक्ट के नाम पर इस आंदोलन को तीन हफ्ते में ही कुचल तो दिया, पर आग खूब भड़की। आखिरकार अराजकता का हवाला देकर इन्दिरा ने आपातकाल जरूरी बता दिया।
सारी घटनाएँ एक दूसरे से जुड़ती चली गईं और इन्दिरा गाँधी की पूरी तस्वीर निरंकुश शासक के रूप में सबके मन में बैठ गई। ऐसे में इन्दिरा गाँधी को लगने लगा कि उनके हाथ से सिर्फ कुर्सी ही नहीं जायेगी, बल्कि विरोध इतना बढ़ गया है कि जनता विद्रोह कर सकती है। वो शायद आंतरिक इमरजंसी जैसा फैसला नहीं लेतीं, अगर देवकांत बरुआ जैसे कुछ और चाटुकारों की उन तक पहुँच न होती।
मैं मन ही मन सोच रहा था कि अगर जस्टिस सिन्हा नहीं मिले, तो मैं यहीं इनके घर के बाहर से पीटीसी (पीस टू कैमरा) करूँगा और बताऊँगा कि इसी घर में वो जज रहते हैं, जिनके फैसले ने इन्दिरा गाँधी को इमरजंसी लगाने के लिए उकसाया।
मैंने कैमरा बाहर निकाला ही था कि दरवाजा खुला। सामने एक नौजवान खड़ा था। उसने मुझसे पूछा कि आप क्या चाहते हैं।
मैंने बहुत मायूस होकर कहा कि देश में इमरजंसी की पच्चीसवीं सालगिरह पर मैं जी न्यूज के लिए एक प्रोग्राम बनाना चाहता हूँ। पर जज साहब नहीं हैं, तो मैं यहीं से पीटीसी करूँगा। इस घर के सामने से।
उस युवक को पता नहीं क्या लगा कि उसने मुझे भीतर चलने का इशारा किया। मैं घर के भीतर पहुँचा तो एक बुजुर्ग से सज्जन पैंट कमीज पहने ड्राइंग रूम में बैठे थे। उन्होंने मुझसे उनका परिचय कराया। यही हैं जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा।
“और आप?” मेरा सवाल उस नौजवान से था।
“मैं इनका बेटा हूँ।”
“ओह! नमस्ते।”
इतना कहने के बाद मैंने आगे बढ़ कर जगमोहन लाल सिन्हा के पाँव छुये और कहा कि मेरा नाम संजय सिन्हा है। मुझे आप प्लीज इंटरव्यू दे दें।
जज साहब ने मुस्कुराते हुए कहा कि अब इतने पुराने मामले में क्या रखा है। छोड़ो इंटरव्यू और चाय पीयो।
मैं बैठ गया। मैंने उनसे कहा कि मैं पाँचवीं में पढ़ता था, जब इमरजंसी लगी थी। मेरी यादों में इमरजंसी की कई कहानियाँ बसी हैं। मेरी दीदी की शादी इसी इमरजंसी के चक्कर में स्कूल खत्म होने से पहले हो गयी। सच कहूँ तो जिन्दगी शुरू होने से पहले खत्म हो गई।
मुझ जैसे पाँचवीं में पढ़ने वाले बच्चे को भला इमरजंसी के बारे में क्या पता होगा। मैंने इमरजंसी को आज पहली बार आपके घर के बाहर खड़े होकर समझा है। मैं जानता हूँ कि ये बहुत बड़ी बात रही होगी जब आपने ऐसा फैसला सुनाया होगा। मैं समझ सकता हूँ कि एक जज को किन मानसिक परिस्थितियों से गुजरना पड़ सकता है, जब इन्दिरा गाँधी जैसी प्रधान मन्री ो के खिलाफ फैसला सुनाना पड़ जाये। ये तो बहुत बड़े कलेजे की बात थी। सचमुच बहुत बड़े कलेजे की बात।
जज साहब ने कहा, “तुम बहुत जिद्दी हो। मैंने दिल्ली से आये एक रिपोर्टर को सुबह ही भगाया है। अब तुम इंटरव्यू लोगे और मेरे लिए मुश्किल खड़ी करोगे।”
मैं चुप रहा और इंटरव्यू शुरू हो गया।
जज साहब ने पहले चाय मंगवाई। फिर नाश्ता और फिर चाय। मैं देर शाम तक उनके पास बैठा रहा। वो फैसले की यादों में खोये रहे।
मैं इमरजंसी की यादों में खोया रहा। दीदी मेरी आँखों के आगे घूमती रही। दीदी की शादी हो रही थी। माँ बिलख रही थी। पिताजी को पकड़ कर दीदी बार-बार बेहोश हो रही थी। सब मेरी आँखों के आगे घूमते रहे।
जय प्रकाश तुम संघर्ष करो, हम तुम्हारे साथ हैं।
कौन किसके साथ होता है।
राजनीति साथ चलने के लिए नहीं होती।
राजनीति उस सीढ़ी का नाम है, जिस पर चढ़ने वाला, ऊपर पहुँच कर सीढ़ी खींच लेता है।
मेरी यादों में प्याज का दाम बढ़ जाना भी था। जेपी का मर जाना भी था। माँ की मौत भी आँखों के आगे तैरती रही।
इंटरव्यू होता रहा, मैं रोता रहा।
***
अब पाँचवी में पढ़ने वाले बच्चे की यादों पर इतिहास का ताना-बाना बुनेंगे, तो ऐसी गलती तो होगी ही कि यादें कभी 1975 से निकल कर 1980 पर पहुँच जायेंगी, कभी 1977 में। मेरी यादों में सब समाहित है, एकदम फिल्म की तरह। पर सवाल मेरी यादों का नहीं, सवाल आपकी दिलचस्पी का है। आपको पसंद आए तो आगे चलूंगा, नहीं तो रुक जाऊँगा।
(देश मंथन 27 जून 2015)