विंडोज का ताजमहल

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आलोक पुराणिक, व्यंग्यकार :

घर के दरवाजे दादाजी बनवा गये थे, सो चले जा रहे हैं, विंडोज हमारी जनरेशन का काम था, 1998 से अब तक जाने कित्ती बार बदलवानी पड़ीं।

कंप्यूटर विंडोज 1998 पर चकाचक काम चलता था कि विंडोज एक्सपी आ गया। मुझे इस संबंध में विंडोज से जुड़े कंप्यूटर से हुआ अपना वार्तालाप याद है-

विंडोज कंप्यूटर इंजीनियर- जी अब एक्सपी पर अपग्रेड करवा लीजिये। 

मैं- जी मेरा काम विंडोज 1998 से बढ़िया चल रहा है।

विंडोज कंप्यूटर इंजीनियर- पर हमारा काम ना चल रहा है। हमारा काम चकाचक चले इसलिए, हमें अब विंडोज एक्सपी 10 लगाना है।

आप काम चल जाये, इतना काफी नहीं है। विंडोज वालों का काम ना चलता, सो वह नया ले आते हैं। विंडोज विस्टा, विंडोज सेवन पता नहीं जाने क्या। क्या होता कि ऊपर वाला हड़काता कि साँसों के लेटेस्ट आपरेटिंग सिस्टम से साँस लेना नहीं सीखेंगे, तो साँस ना ले पायेंगे। साँसों के पुराने सिस्टम को हम सपोर्ट ना करेंगे- ऊपर वाले के सर्विस इन्जीनियर डांटते। थैंक गाड ऊपर का कामकाज पुराने टाइप से चल रहा है, साँसों का आपरेटिंग सिस्टम वैसे का वैसे ही चल रहा है।

ताजमहल अगर विंडोज के हाथों में पड़ जाता, तो बुरा हाल हो जाता।

1653 में ताजमहल अगर विंडोज ने बनाया होता, तो शाहजहाँ की नाक में दम हो गया होता।

शाहजहाँ ताजमहल बनने के बाद करीब तेरह साल जीवित रहा। इतने में ताज के बीसियों नये वर्जन लाँच करने का प्लान विंडोज वाले ठेल देते-ताज 1653 न्यू, ताज न्यू ड्रीम, ताज सुपर, ताज सुपर क्रीम। शाहजहाँ को सलाह दे मारते विंडोज वाले- 1653 वाले ताज को दोबारा डिजाइन करके नया बनाओ, पुराने वाले को उखाड़ो वहाँ से।

शाहजहाँ औरंगजेब से इतना परेशान ना होता, जितना विंडोज वालों के नये लाँच उसे परेशान कर देते। नयी-नयी विंडोज से जब मैं परेशान होता हूँ तो यही सोचकर दिल बहला लेता हूँ कि थैंक गाड ये पुराने को मेटकर नये लांच सिर्फ कंप्यूटर साफ्टवेयर में हैं। लाल किले या कुतुब मीनार में इस तरह का काम हो रहा होता, परसों लाँच हुई एक मन्जिल की कुतुबमीनार 2012 को दिखाने के अलावा दिल्ली में कुछ ना होता।

(देश मंथन 29 जून 2015)

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