संजय सिन्हा, संपादक, आज तक :
मेरी एक जानने वाली ने बहुत पहले तय कर लिया था कि उनकी बेटी हुई तो उसे वो डॉक्टर बनाएँगी, बेटा हुआ तो इंजीनियर।
जिन दिनों मैं स्कूल में पढ़ रहा था, मैं माँ से पूछा करता था कि मैं क्या बनूँगा, तो माँ का बहुत सीधा सा जवाब होता, “बस आदमी। एक अच्छा आदमी।”
खैर, मैं जिनकी बात कर रहा हूँ कि उन्होंने तय कर लिया था कि वो अपनी बेटी को डॉक्टर बनाएँगी और बेटे को इंजीनियर, उनकी मुराद पूरी हुई। उनकी बेटी हुई और उसे उन्होंने डोनेशन वाले कॉलेज में पढ़ा कर गले में स्टेथेस्कोप लटकवा दिया। बेटा भी दक्षिण के किसी कॉलेज में कुछ लाख रुपयों के बूते इंजीनियर बन गया और अब करोड़ों पीट रहा है।
मेरी आज की कहानी बहुत मार्मिक है। अपनी कहानी सुनाने से पहले मैं आपको याद दिला दूँ कि कल मैंने आज की शिक्षा व्यवस्था पर चर्चा की थी। मैंने लिखा था कि आज के छात्रों के लिए सहज रूप से कुछ भी अंदाज लगा पाना मुश्किल है। वो मीटर, फीता, पैमाना के बिना अपनी आँखों से न कुछ तौल सकते हैं, न नाप सकते हैं। उनकी जानकारी मशीनी रह गयी है। उनका व्यवहारिक ज्ञान शून्य हो चुका है। शिक्षा का अर्थ ही पैसा कमाने वाली विद्या में सिमट कर रह गया है।
तो, जनाब आज मैं उसी बात को आगे बढ़ाता हुआ अपने वादे को पूरा करने जा रहा हूँ, और बताने जा रहा हूँ कि पैसे के बूते मशीनी डॉक्टर और इंजीनियर बनाने का जो खेल हमारे यहाँ चल रहा है, वो दरअसल कितना खरतनाक है।
मैंने बहुत पहले यहाँ आपसे साझा किया था कि मेरे पिताजी को बड़ौदा में फाल्सीफेरम मलेरिया हुआ था, और डॉक्टरों को यह पता करने के लिए खून की जाँच करानी पड़ी, रिपोर्ट आने में दो दिन का समय लगा था और जब तक रिपोर्ट आई, संक्रमण उनके फेफड़ा, दिमाग और किडनी तक पहुँच चुका था। डॉक्टर को शायद लेरियेगो या लेरियम नामक कोई गोली देनी थी, जिसे देने में उसने देर कर दी, क्योंकि मशीनी रिपोर्ट उसके पास नहीं थी। और उस नादान डॉक्टर की वजह से मेरे पिता इस संसार में नहीं रहे, मैं कुछ नहीं कर पाया।
ठीक यही बीमारी उसी साल मेरी सास को हुई और हम बहुत अलर्ट थे, इसलिए हम उन्हें लेकर एक पुराने डॉक्टर के पास गये। उस पुराने डॉक्टर ने उनकी नब्ज देखी और कहा कि इन्हें फाल्सीफेरम मलेरिया है, और उसने दूसरे मिनट में बिना किसी ब्लड रिपोर्ट की जाँच के लेरियोगो या लेरियम नामक दवा लिख कर दे दी। मेरी सास तीसरे दिन ही ठीक हो गईं।
तब से मैं अस्पताल और डॉक्टर चुनने में बहुत सावधानी बरतता हूँ।
अभी मेरी एक परिचित को स्तन कैंसर की शिकायत हुई। उसे लेकर हमलोग दिल्ली के सबसे बड़े अस्पताल में भागे। सारी जाँच हुई। जाँच में पाया गया कि दो गाँठ हैं, लेकिन दोनों पास-पास हैं, दोनों के बीच की दूरी 6 मिलीमीटर है। जाहिर है कि ऑपरेशन में सिर्फ गाँठ निकालने की जरूरत है। लेकिन वहाँ की रेडियोलॉजिस्ट ने जो रिपोर्ट सौंपी उसमें दोनों के बीच की दूरी 6 सेंटीमीटर लिख कर दे दी। उस एक रिपोर्ट के आधार पर डॉक्टरों की पूरी टीम उलझ गयी।
6 सेंटीमीटर का मतलब पूरा ऑपरेशन। 6 मिलीमीटर का मतलब सिर्फ गाँठ का ऑपरेशन।
हम हफ्ता भर इसी उलझन में रहे कि अब किया क्या जाए। बहुत चक्कर लगाने के बाद पता चला कि डॉक्टर महोदया ने गलती से 6mm की जगह 6cm टाइप कर दिया है। जब सारी प्रक्रिया दुबारा दुहराई गयी तो उन्होंने बिना शर्मिंदगी के सॉरी कह दिया।
पर अगर हम सर्जरी की प्रक्रिया से गुजर चुके होते, तो हमारा क्या होता ये सोचने की उन्हें फुर्सत भी नहीं।
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मुझे अपनी उस परिचित की बेटी का चेहरा याद नहीं, जिन्होंने उसके जन्म से पहले ही तय कर लिया था कि वो उसे डॉक्टर बनाएँगी। पर सोचता हूँ कि एक दिन जाकर उनसे मम्मी का नाम पूछ कर आऊँ। कहीं वो वही तो नहीं, जो सिर्फ मम्मी की चाहत और उनके पैसों के बूते डॉक्टर बन गयी है।
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अब सोचता हूँ तो कभी-कभी लगता है कि मेरी माँ ने कभी मुझे डॉक्टर या इंजीनियर बनाने के विषय में क्यों नहीं सोचा। वो हमेशा इतना ही कहती थी कि आदमी को पहले आदमी बनने की कोशिश करनी चाहिए। शिक्षा का मूल इसी में छिपा है। जिसे शिक्षा का मूल पता चल जाएगा, वही तय कर सकता है कि उसे डॉक्टर बनना है, इंजीनियर बनना है, पत्रकार बनना है या फिर कुछ और।
पर इतना तय है कि आदमी बनने के बाद ही उसे तय करना चाहिए कि उसे क्या बनना है।
और रही बात पैसा कमाने की, तो मेरा अनुरोध है कि पैसा कमाने के लिए सीधे चोर बन जाएँ, स्मगलर बन जाएँ, नकली नोट छापने का धन्धा शुरू कर दें पर ऐसे सफेद कोट पहन कर, गले में स्टेथेस्कोप लगा कर या फिर इंजीनियर बन कर, पत्रकार बन कर, देश के रहनुमा बन कर पैसे के बारे में मत सोचिए। कुछ पेशों की गरिमा होती है, उसकी गरिमा बनाए रखनी चाहिए।
याद रखिए बाड़ जब खेत खाने लगे, तो खेत का मालिक भगवान ही होता है।
(देश मंथन 15 जुलाई 2015)