संजय सिन्हा, संपादक, आज तक :
आज जो कहानी आपको सुनाने जा रहा हूँ, वो पता नहीं क्यों मुझे लग रहा है कि मैंने पहले भी आपको सुनायी है।
अगर मैंने नहीं सुनायी, तो फिर फिल्म में ये कहानी देखी होगी।
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आपने शाहरुख खान और जूही चावला की फिल्म ‘डर’ देखी होगी। नहीं देखी तो मुझसे ही कहानी सुन लीजिए। शाहरुख खान अपने कॉलेज में पढ़ने वाली एक लड़की जूही चावला से मन ही मन प्रेम करते हैं, पर उसे सामने से कभी जता नहीं पाते कि वो उन्हें अच्छी लगती है। लेकिन वो उसे फोन करते हैं और क…क…किरण बोलते हैं। एक ऐसा वक्त आता है, जब लड़की फोन कॉल से डरने लगती है। इस बीच उसकी शादी सनी देओल से हो जाती है, पर शाहरुख उसका पीछा नहीं छोड़ते। और पूरी फिल्म टेलीफोन कॉल की उस घंटी के खौफ के इर्द-गिर्द घूमती है।
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बहुत पुरानी बात है। तब मैं जनसत्ता में था। एक शाम मैं दफ्तर से घर आया, मेरे घर के लैंड लाइन फोन की घंटी बजी। मैंने फोन उठाया। मुझे पूरी बातचीत जस की तस याद है।
“हैलो।”
“हैलो, संजय सिन्हा बोल रहे हैं?”
“हाँ।”
आज आप नीली कमीज और काली पैंट में बहुत हैंडसम लग रहे थे।”
“आप कौन बोल रही हैं?”
“आपकी चाहने वाली।” एक खिलखिलाहट के साथ फोन बन्द हो गया।
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मुझे लगा किसी ने मजाक किया होगा। मैंने पूरी कॉल को बहुत गंभीरता से नहीं लिया। पत्नी ने पूछा भी कि किसका फोन था, मैंने राँग नंबर कह कर टाल दिया।
बात टल तो गयी थी, लेकिन देर रात जब मैं कपड़े बदलने लगा तो मैंने ध्यान दिया कि मैंने तो नीली कमीज और काली पैंट ही पहनी थी। मतलब जिसने फोन किया था, उसने मुझे देखा था।
मेरे मन में खटका सा हुआ। पर मैंने बात को तवज्जो देना मुनासिब नहीं समझा।
अगले दिन शाम को फिर फोन की घंटी बजी। मैंने फोन उठाया, हैलो बोलने से पहले ही उधर से हंसी की आवाज सुनायी पड़ी।
“संजय सिन्हा, आज तो आपने जो पीली कमीज़ पहनी थी न, वो बहुत अच्छी थी।”
“आप कौन बोल रही हैं?”
“आप मुझे नहीं पहचानते? ओह! ये तो बहुत गलत बात है। मैं आपको रोज देखती हूँ, रोज मिलती हूँ। आप मुझे नहीं पहचानते?”
“जी नहीं, नहीं पहचानता। नाम तो बताइए?”
“छोड़िए, नाम में क्या रखा है? ये बताइए कि आपने इतनी कम उम्र में शादी क्यों कर ली? थोड़ा इन्तजार कर लिए होते।”
पहली बार मैं जरा घबराया था। इस बात के लिए नहीं कि फोन पर उसने कुछ उटपटांग कहा था। पर घबराहट इस बात के लिए हुई थी कि कोई है, जो मुझे देख रहा था, नोट कर रहा था, फॉलो कर रहा था।
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धीरे-धीरे फोन की घंटी देर रात भी बजने लगी। मैं फोन का रिसीवर उठा कर फोन को इंगेज भी नहीं कर सकता ता। फोन ऑन रहना हमारे लिए बहुत जरूरी था। खास कर इसलिए, क्योंकि तब मेरी पत्नी भी इंडियन एक्सप्रेस में नौकरी करती थीं और देर रात हमारी बात फोन पर होती थी।
अब फोन की घंटी मेरे लिए चिन्ता की बात हो गयी थी।
मैंने अपने दफ्तर की हर लड़की के बारे में सोच लिया। रजनी, पारूल, नीलम, उषा सबकी आवाज को मैंने याद करने की कोशिश की। पर कहीं उनमें कोई समानता नहीं थी। फिर ये सारी लड़कियाँ मेरी दोस्त थीं, समझदार थीं, इसलिए उनसे ऐसी हरकत की उम्मीद नहीं की जा सकती थी।
फिर कौन?
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करीब हफ्ते भर ऐसा चलता रहा। मेरा यकीन कीजिए पहली बार मुझे अहसास हुआ कि लड़के जब लड़कियों के पीछे भागते हैं, तब वो उन्हें भले सुखद लगता हो, पर जब कोई लड़की किसी लड़के के पीछे पड़ जाती है, तो दारा सिंह तक को पसीना आने लगेगा, ऐसा मुझे लगता है।
तो, जनाब ऐसा हो गया कि घर में लैंड लाइन फोन की घंटी बजती थी, और मुझे पसीने छूटने लगते थे। मैंने पूरी बात पत्नी को बताई। उसे भी चिन्ता हुई।
वैसे तो लड़के जन्मजात शापित होतें हैं, दुनिया ये माने बैठी है कि लड़कियाँ लड़कों को नहीं छेड़तीं। लड़के ही लड़कियों को छेड़ते हैं। और कोई लड़की बेवजह किसी लड़के को क्यों तंग करेगी, लड़के ने कुछ न कुछ किया ही होगा।
वो तो समझदार पत्नी थी, जिसने इस पूरे मामले को गंभीरता से सुना और समझा। वर्ना मैं यकीन से कह सकता हूँ कि दूसरी कोई पहले ही माथा फोड़ने लगती, चूड़ी तोड़ने लगती और अपनी फूटी किस्मत की दुहाई देने लगती कि आपने कुछ न कुछ किया होगा, तभी तो वो कॉल कर रही है।
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मेरी पत्नी फोन उठाती, तो उधर से चुप्पी साध ली जाती। मैं उठाता, तो आवाज आती कि आप खुद क्यों नहीं फोन उठाते? अगली बार अगर आपकी पत्नी ने फोन उठाया तो ठीक नहीं होगा।
ठीक नहीं होगा? ये तो धमकी थी।
“हाँ, धमकी समझ लीजिए। मेरा जब मन होगा, मैं आपको फोन करुँगी और आप फोन उठाएँगे।”
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अजीब मुसीबत थी।
फिल्म ‘डर’ में घर का फोन बजता, तो जूही चावला यानी किरण के पसीने छूटने लगते। यहाँ मेरे घर में फोन की घंटी ट्रिन, ट्रिन करती और मेरे पसीने छूटने लगते।
आखिर में मैंने अपनी इस मुसीबत को अपने प्रिय साथी Sanjaya Kumar Singh से साझा किया। उन्होंने पूरी कहानी ध्यान से सुनी। फिर वो घर पर आये। वो बैठे थे कि घंटी बजी। मैंने लैंड लाइन फोन का स्पीकर ऑन कर दिया। संजय सिंह ने पूरी बात सुनी। बहुत दिमाग दौड़ाया कि ये कौन लड़की है, पर कुछ समझ में नहीं आया।
इत्तेफाक से उन दिनों लैंड लाइन फोन पर हमने कॉल ट्रांसफर की सुविधा ली हुई थी। कॉल ट्रांसफर मतलब, अपना नंबर किसी दूसरे के फोन पर ट्रांसफर कर देना। कभी और बताऊँगा कि हमने ये सुविधा क्यों ली थी, पर उस दिन अचानक संजय सिंह ने कहा कि तुमने हाल ही में जो मोबाइल फोन खरीदा है, उस पर अपना ये लैंड लाइन नंबर ट्रांसफर करो।
दिल्ली में मोबाइल फोन को लाँच हुए कुछ ही दिन हुए थे और मैं उन भाग्यशाली लोगों में से था, जिसने 16 रुपये प्रति मिनट इन कमिंग और 32 रुपये आउट गोइंग कॉल वाले फोन को खरीदा था। हमने लैंड लाइन का फोन मोबाइल पर ट्रांसफर किया। अब अगली घंटी बजी तो कॉल सीधे मोबाइल पर आया। मोबाइल पर नंबर डिस्प्ले होता था, सो नंबर दिखा। मैंने फोन उठाया, ये उसी लड़की का फोन था।
“आज तो आपने गजब ड्रेस पहनी थी।”
मैंने फोन काटा, 16 रुपये ड्रेस के नाम पर खर्च हो चुके थे। फिर इधर से संजय सिंह ने उस नंबर पर फोन किया।
उधर से किसी ने फोन उठाया, तो पता चला कि वो तो गर्ल्स हॉस्टल का नंबर था।
गर्ल्स हॉस्टल से मुझे फोन? दूर-दूर तक कनेक्शन समझ में नहीं आया।
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मैं जानता हूँ कि आपके मन में सवाल उठ रहा होगा कि ये संजय सिन्हा बहुत हीरो बन रहे हैं। लंबी-लंबी छोड़े जा रहे हैं। पर मैं सच कह रहा हूँ कि मैं यहाँ जो कुछ लिख रहा हूँ, उसका एक-एक शब्द सच है।
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हमें ये पता चल चुका था कि वो फोन किसी गर्ल्स हॉस्टल से आता है। पर कोई वहाँ से कोई लड़की क्यों फोन क्यों करती है, इसका पता चलना बाकी था।
हम इसी उधेड़बुन में दफ्तर चले गए। वहाँ संजय सिंह ने मेरी इस समस्या की चर्चा ‘जनसत्ता रविवारी’ में काम करने वाली एक लड़की उषा से की। उषा ने संजय सिंह की बात सुनी और फटाक से बोली कि उस हॉस्टल में तो फलाँ इंटर्न रहती है।
“इंटर्न? लेकिन तुम्हें कैसे पता?”
“अरे, वो कभी-कभी जनसत्ता के रविवारी अंक में कुछ लिखती है, तो मैंने अभी उसका चेक बनवाया था। उसमें उसी हॉस्टल का पता दर्ज है।”
अब हमारी आँखें चमकीं। हमने फटाक से उससे पता निकलवाया। उसमें लड़की का नाम पता चल गया।
अब हमारी बारी थी। हमने तुरन्त उस हॉस्टल में फोन किया। वो सार्वजनिक फोन था। किसी लड़की ने फोन उठाया। हमने पूछा कि फलाँ लड़की वहाँ है क्या? उधर से किसी ने फोन उस लड़की को बुला कर पकड़ा दिया कि तुम्हारे घर से फोन आया है।
हमने फोन उठाने वाली लड़की से पूछा कि आज नहीं बताओगी कि मैंने कौन से रंग की पैंट और कमीज पहनी है या पहनूँ?
भाई साहब! उधर तो मानो साँप ही सूँघ गया। उधर से थूक गटकती हुई आवाज आई कि आप कौन बोल रहे हैं?
“वो तो बताऊँगा, इंतजार करो।”
शाम को वो लड़की दफ्तर आई। हमने उसे घेर लिया। पहले तो वो बहस करती रही कि उसने कभी फोन नहीं किया। पर हम भी अड़े रहे।
आखिर वो टूट गई। रोने लगी। कहने लगी कि आप मुझे बहुत अच्छे लगते हैं। सामने से बात करने की हिम्मत नहीं होती थी, इसीलिए ऐसा किया।
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बात लड़की की थी। हालाँकि उन दिनों लड़कियों की ओर से लड़कों पर बदतमीजी करने का आरोप लगा कर उन्हें फँसा देने की शिकायतें नहीं सामने आती थीं, वर्ना आज का समय होता, तो मुझे नहीं लगता कि हम इतनी हिम्मत दिखा पाते। उस लड़की ने सबकुछ कबूल कर लिया। उसे बिठा कर समझाया गया कि मैं शादीशुदा हूँ। कोई स्कोप नहीं है। अपना समय मत खराब करो। कहीं ऐसी जगह कोशिश करो, जहाँ कुछ भविष्य हो।
लड़की समझ गयी।
संजय सिंह ने करमचंद जासूस बन कर मेरी जिन्दगी और शादी दोनों बचाई। मैंने उन्हें धन्यवाद कहा।
शाम को हमारे घर खाना खाते हुए संजय सिंह, मेरी पत्नी और मैं, हम तीनों हंस-हँस कर पागल हुए जा रहे थे।
पर मेरा दिल जानता है कि जब कोई लड़की किसी लड़के के पीछे पड़ जाती है, तो फिर जिन्दगी कैसे तबाह हुई जाती है। कितना डर लगता है। अच्छे-अच्छे मर्दों की मर्दानगी फुर्र हो जाती है।
(देश मंथन 16 जुलाई 2015)