असग़र वजाहत:
यह कोई 1982-83 की बात है। मैं दिल्ली की एक लोकल बस मेँ चढ़ा। बस के कंडक्टर ने कहा, जाकर बैठ जाओ टिकट देता हूँ।’ लेकिन कंडक्टर टिकट देना भूल गया ओर मैं लेना भूल गया। इतनी देर मेँ बस के ऊपर छापा पड़ा और मुझे टिकट न होने की वजह से गिरफ्तार करके पास खड़ी मोबाइल कोर्ट में बंद कर दिया गया।
मोबाइल कोर्ट में कोई 6-7 बे-टिकट यात्री बंद थे। मुझे आदेश दिया गया कि उनके साथ बेंच पर बैठ जाऊँ। अनुभवी मुलजिमों से पता चला की अभी हम लोगों का मुकद्दमा मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया जायेगा। वह फैसला सुनाएगा। बहरहाल सारे मुलजिमों को भरने के लिए एक-एक फॉर्म दिया गया। फॉर्म में एजुकेशनल क्वॉलिफिकेशन का एक कॉलम था।
मैंने उसमेँ एमए,पीएचडी भर दिया। जब मजिस्ट्रेट के सामने पेशी हुई तो मेरा फॉर्म देख कर मजिस्ट्रेट ने कहा- इतने पढ़े-लिखे होने के बाद भी आप बिना टिकट यात्रा करते हैं।’ मैंने कहा- आपने मुकदमे की सुनवाई करने से पहले ही फैसला सुना दिया कि मैं बिना टिकट यात्रा कर रहा था।’ मजिस्ट्रेट ने मेरी बात के जवाब में कहा- सौ रुपये जुर्माना।’ मैंने कहा मेरी बात तो सुनिए।’ मजिस्ट्रेट ने कहा- दो सौ।’ मैंने कहा- यह आप क्या कर रहे हैं?” उसने कहा- तीन सौ।’ मैंने कहा- यह तो बड़ा अन्याय है।’ मजिस्ट्रेट ने कहा- चार सौ।’ फिर किसी ने मेरी कमीज पीछे से खींची और एक आदमी ने मेरे कान मेँ कहा -आप जो कुछ भी कहते जाएँगे ये सौ रुपया बढ़ाता जायेगा, इसलिए आप चुप हो जाइए। मैं चुप हो गया। अब सवाल ये था कि चार सौ रुपये जुर्माना देकर में बाहर कैसे निकालूँ क्यूँकि मेरे पास चार सौ रुपये नहीं थे। मैं बहुत परेशान हो गया। यह भी बताया गया था कि जो लोग जुर्माना नहीं भर सकेंगे उन्हें तिहाड़ जेल में बंद कर दिया जायेगा। अचानक मैंने सुना कि मोबाइल कोर्ट के बाहर से आवाजेँ आ रही हैं- सौ पर बीस। सौ पर बीस। मैंने पूछा कि यह क्या है तो बताया गया कि बाहर महाजन खड़े हैं। वह आपको सौ रुपये उधार देंगे और आप जब बाहर निकल आयेंगे तो एक सौ बीस ले लेंगे। मैंने ब्याज पर पैसा देने वालों से चार सौ रुपये लेकर अदालत में दाखिल कराये और बाहर निकला।
मुझे अपने देश की ‘व्यवस्था’ पर गर्व हुआ और पुलिस तथा मजिस्ट्रेट के ‘कम सुनाई’ देने पर विश्वास हो गया। बाहर निकला तो मुझे कर्ज देने वाले ने तकरीबन पकड़ लिया। मैं उसको लेकर अपने घर आया। सोचा था पत्नी से पैसे लेकर दे दूँगा पर देखा कि घर में ताला बंद है। पत्नी कहीं चली गयी थीं। अब एक ही रास्ता था। घर के पास वाली बनिए की दुकान गया। वहाँ से पैसे उधार लेकर कर्ज चुकाया।
(देश मंथन, 28 अगस्त 2015)