क्यों ‘आरक्षण-मुक्त’ भारत का नारा?

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कमर वहीद नकवी, वरिष्ठ पत्रकार :  

गुजरात के पाटीदार अनामत आन्दोलन (Patidar Anamat Andolan) के पहले हार्दिक पटेल को कोई नहीं जानता था। हालाँकि वह पिछले दो साल में छह हजार हिन्दू लड़कियों की ‘रक्षा’ कर चुके हैं! ऐसा उनका खुद का ही दावा है! बन्दूक-पिस्तौल का शौक हार्दिक के दिल से यों ही नहीं लगा है।

वह कहते हैं कि हिन्दू समाज की ‘रक्षा’ के लिए बन्दूक-पिस्तौल तो रखनी ही पड़ती है। ‘हिन्दू हृदय सम्राट’ प्रवीण तोगड़िया भी ‘हिन्दू समाज की रक्षा’ के काम में जुटे हैं, इसलिए हार्दिक के दिल के नजदीक हैं! वैसे अपने भाषण में हार्दिक ने नाम महात्मा गाँधी का भी लिया, नीतीश कुमार और चन्द्रबाबू नायडू को भी ‘अपना’ बताया, लेकिन वह साफ कहते हैं कि सरदार पटेल के अलावा सिर्फ बालासाहेब ठाकरे ही उनके आदर्श हैं! गुजरात यात्रा के दौरान अरविन्द केजरीवाल की कार भी उन्होंने चलायी, लेकिन अब वह कहते हैं कौन केजरीवाल? आज के नेताओं में बस वह राज ठाकरे को पसन्द करते हैं और उनके साथ मिल कर काम करने को भी तैयार हैं!

क्यों पाटीदार अनामत आन्दोलन?

परतें खुल रही हैं। धीरे-धीरे! सवालों के जवाब मिल रहे हैं। धीरे-धीरे! कौन हैं हार्दिक पटेल? पाटीदार अनामत आन्दोलन क्या है? क्या उसे वाकई पटेलों के लिए आरक्षण चाहिए? या फिर नयी पैकेजिंग में यह आरक्षण-विरोधी आन्दोलन है? क्या गुजरात को अब आरक्षण की प्रयोगशाला बनाने की तैयारी है? क्या यह जातिगत आरक्षण के ढाँचे को ध्वस्त कर आर्थिक आधार पर आरक्षण लागू कराने की किसी छिपी योजना का हिस्सा है? राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ शुरू से ही जातिगत आरक्षण का विरोधी रहा है और बीजेपी भी 1996 में अपने चुनावी घोषणापत्र में आर्थिक आधार पर आरक्षण की बात शामिल कर चुकी है। गुजरात सरकार ने भी आन्दोलनकारियों के खिलाफ कभी कोई कड़ा रुख नहीं अपनाया, फिर किसने पुलिस को पटेलों के ख़िलाफ ऐसी बर्बर कार्रवाई का हुक्म दिया और क्यों? और वह भी रैली निबट जाने के बाद! आखिर कौन पटेलों को भड़काये रखना चाहता था? सवाल कई हैं, जवाब आते-आते आयेंगे। कौन है इस आन्दोलन के पीछे?

पटेलों को हिस्से से ज्यादा मिला!

पटेलों में आरक्षण की माँग अचानक इतनी जोर क्यों पकड़ गयी? आर्थिक-राजनीतिक रूप से पूरे गुजरात पर पटेलों का वर्चस्व है। मुख्य मन्त्री पटेल, बाकी 23 में से छह मन्त्री पटेल, करीब चालीस से ज्यादा विधायक पटेल, लेकिन राज्य की आबादी में पटेलों का हिस्सा करीब 15 प्रतिशत ही। इस हिसाब से उन्हें अपने हिस्से से कहीं ज्यादा मिला। राज्य की अर्थव्यवस्था में कृषि के अलावा कपड़ा, हीरा, फार्मा, शिक्षा, रियल एस्टेट, मूँगफली तेल उद्योग के अलावा लघु और मध्यम उद्योगों में पटेल छाये हुए हैं। फिर उनमें इतना असन्तोष क्यों? वैसे पटेलों की कहानी नरेन्द्र मोदी के उस गुजरात मॉडल की कलई खोल देती है, जिसमें भारी निवेश तो हुआ, चमक-दमक खूब बढ़ी, बड़े-बड़े उद्योग तो खूब लगे, लेकिन इसमें छोटे-मँझोले उद्योगों, आम काम-धन्धों और खेती आदि उपेक्षित रह गये।

गुजरात के हालात यूपी, बिहार जैसे: हार्दिक पटेल

पटेल मूल रूप से नकद फसलों की खेती में लगे रहे हैं और बड़े भूस्वामियों में सबसे ज्यादा संख्या पटेलों की है। लेकिन गुजरात में 2012-13 में कृषि विकास दर नकारात्मक या ऋणात्मक -6।96 रही है। फिर जो किसान बहुत बड़े भूस्वामी नहीं थे, उनकी जोत परिवारों में बँटवारे के कारण लगातार छोटी होती गयी, भूगर्भ जल का स्तर भी पिछले कुछ सालों में गुजरात में बेतहाशा गिरा है, सिंचाई के संकट और महँगी होती गयी खेती ने किसानों की कमर तोड़ दी। जिन किसानों के पास बड़ी जमीनें और संसाधन थे, उनके लिए भी खेती में पहले जैसा मुनाफा, आकर्षण नहीं रहा। हार्दिक पटेल ने कुछ अखबारों को दिये इंटरव्यू में कहा कि गाँवों में जाइए, तो पता चलेगा कि गुजरात की हालत भी बिलकुल यूपी, बिहार जैसी ही है और पिछले दस सालों में यहाँ करीब नौ हजार किसान आत्महत्या कर चुके हैं।

बन्द उद्योग, बेरोजगार कारीगर

पटेल व्यापारी छोटे कारोबार, मशीनरी उद्योग और सूरत में हीरा निर्यात और तराशने के काम में भी मुख्य रूप से हैं। इनमें काम करनेवाले भी ज्यादातर पटेल समुदाय से आते हैं। गुजरात में करीब 48 हजार छोटी-मँझोली औद्योगिक इकाइयाँ बीमार हैं और इस मामले में राज्य उत्तर प्रदेश के बाद दूसरे नम्बर पर है। बड़ी-बड़ी कम्पनियों के मैदान में आ जाने के कारण सूरत में हीरा निर्यात और तराशने का धन्धा भी काफी दबाव में है और करीब डेढ़ सौ छोटी इकाइयाँ भी बन्द हो चुकी हैं, जिनके दस हजार से ज्यादा पटेल कारीगर छँटनी के शिकार हुए हैं। गुजरात में बरसों तक सरकारी नौकरियों में भर्ती बन्द थी। 2009-10 में यह सिलसिला खुला तो पहले से ओबीसी में आनेवाले काछिया और आँजना पटेलों को आरक्षण का लाभ मिला, लेकिन लेउवा और कडवा पटेलों के युवाओं को सामान्य श्रेणी में प्रतिस्पर्धा करनी पड़ी। इसलिए आरक्षण की जरूरत उन्हें शिद्दत से महसूस हुई।

विकास के मौजूदा मॉडल का दोष!

हालाँकि इस सबके बावजूद सच्चाई यह है कि गुजरात सचिवालय से लेकर शिक्षकों, स्वास्थ्य व राजस्व कर्मियों व कई अन्य सरकारी नौकरियों में पटेलों की हिस्सेदारी 30% के आसपास है। सरकारी मदद पाने वाले आधे से अधिक शिक्षा संस्थान भी पटेलों के हाथ में हैं। इसके बावजूद उन्हें शिकायत है कि मेडिकल, इंजीनियरिंग या इसी तरह की पढ़ाई में आरक्षण के कारण कम नम्बर पाने वाले छात्र सरकारी शिक्षण संस्थानों में एडमिशन और छात्रवृत्तियाँ पा जाते हैं और सामान्य श्रेणी के ‘योग्य’ छात्र वंचित रह जाते हैं, जिन्हें निजी कालेजों में पढ़ाई का भारी-भरकम खर्च उठाने पर मजबूर होना पड़ता है। इसका एक निष्कर्ष साफ है। वह यह कि विकास के मौजूदा मॉडल में खेती के अनाकर्षक हो जाने, बड़ी कम्पनियों द्वारा छोटे-मँझोले उद्योगों को विस्थापित कर दिये जाने और निजीकरण के कारण शिक्षा का भयावह रूप से महँगा हो जाना मौजूदा आन्दोलन के उभार का एक बड़ा कारण है।

फिर भी पटेल दूसरों से बहुत आगे

लेकिन दूसरी तरफ, यह भी सच है कि राजनीतिक-सामाजिक-आर्थिक रूप से वह बाकी दूसरे सभी वर्गों से बहुत आगे हैं। फिर आरक्षण का यह शोशा क्यों? फिर पिछले कुछ डेढ़ महीने से गुजरात को क्यों मथा जा रहा है? इतना आवेश, इतनी भीड़, इतने संसाधन, कहाँ से और क्यों? इसके पीछे कुछ न कुछ और कारण तो हैं, चाहे वह स्थानीय राजनीति हो, या फिर कोई और गुणा-भाग! पटेलों ने 1985 में ओबीसी आरक्षण के खिलाफ बड़ा आन्दोलन चलाया था। क्या अब यह उसी आरक्षण-विरोधी आन्दोलन की ‘रि-पैकेजिंग’ नहीं है, वरना यह जिद क्यों कि आरक्षण हमें मिले या फिर किसी को न मिले! और अब तो उन्होंने एक इंटरव्यू में साफ कह दिया कि या तो देश को ‘आरक्षण-मुक्त’ कीजिए या फिर सबको ‘आरक्षण का ग़ुलाम’ बनाइए। (The Hindu, Click Link to Read) यानी अब यह बिलकुल साफ हो चुका है कि पाटीदार अनामत आन्दोलन (Patidar Anamat Andolan) के पीछे असली मकसद क्या है?

अभी बहुत-से सवालों के जवाब नहीं!

कौन है इस ‘आरक्षण-मुक्त’ भारत के नारे के पीछे? उसकी मंशा क्या है? अभी फिलहाल इन और इन जैसे कई सवालों के जवाब नहीं हैं। हार्दिक पटेल क्या गुजरात के दूसरे मनीष जानी होंगे? दिसम्बर 1973 में अहमदाबाद के एलडी इंजीनियरिंग कॉलेज से मेस के खाने के बिल में बढ़ोत्तरी के मामले पर मनीषी जानी के नेतृत्व में छात्रों का आन्दोलन शुरू हुआ था, देखते ही देखते संघ के कार्यकर्ता इसमें कूद पड़े और महँगाई और भ्रष्टाचार के खिलाफ ‘नवनिर्माण आन्दोलन’ शुरू हो गया, जिसकी डोर लेकर बाद में जेपी ने सम्पूर्ण क्रान्ति का नारा दिया और अन्तत: इन्दिरा सरकार का पतन हो गया। क्या गुजरात के आरक्षण की चिनगारी का इशारा आरक्षण-विरोध को देश भर में फैलाने का है? वरना हार्दिक हिन्दी में भाषण क्यों देते? आखिर, गुजर, जाट और मराठा आरक्षण के मामले अभी सुलग ही रहे हैं।

(देश मंथन, 31 अगस्त 2015)

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