तेरे नाम पे सबको नाज है, उसका नाम गरीब नवाज है…

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विद्युत प्रकाश मौर्य, वरिष्ठ पत्रकार : 

1998 के वसन्त में पहली बार अजमेर की यात्रा पर गया था। जयपुर के बाद बस से अजमेर। फिर पुष्कर। एक बार फिर 2008 के मार्च में अनादि और माधवी के साथ अजमेर जाना हुआ। आज इच्छा हुई ख्वाजा को याद किया जाए। 

अजमेर शरीफ में महान सूफी संत ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह है।  ख्वाजा पर हर धर्म के लोगों का विश्वास है। यहाँ आने वाले जायरीन चाहे वे किसी भी मजहब के क्यों न हों, ख्वाजा के दर पर दस्तक देने कहा जाता है कि उनकी मुरादें पूरी होती हैं। 

अजमेर शहर में तारागढ़ पहाड़ी की तलहटी में स्थित ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती की दरगाह शरीफ वास्तुकला की दृष्टि से भी अभूतपूर्व है। यहाँ ईरानी और हिन्दुस्तानी वास्तुकला का सुन्दर संगम दिखता है। दरगाह का निर्माण हुमायूँ के शासनकाल में हुआ था।

प्रवेश द्वार के निकट मस्जिद का निर्माण अकबर के शासनकाल में हुआ था तथा मजार के ऊपर की आकर्षक गुंबद शाहजहाँ के शासनकाल में निर्मित की गयी। माना जाता है कि दरगाह को पक्का करवाने का काम गयासुद्दीन खिलजी ने करवाया था। दरगाह के अन्दर बेहतरीन नक्काशी किया हुआ एक चाँदी का कटघरा है। इस कटघरे के अन्दर ख्वाजा साहब की मजार है। यह कटघरा जयपुर के महाराजा राजा जयसिंह ने बनवाया था। दरगाह में एक सुन्दर महफिलखाना तथा कई दरवाजे हैं, जहाँ कव्वाल ख्वाजा की शान में कव्वाली गाते हैं।

भारत का मक्का 

इस्लाम धर्म के लोगों के लिए मक्का के बाद सबसे बड़े तीर्थस्थल के रूप में ख्वाजा साहब या ख्वाजा शरीफ अजमेर का दूसरा स्थान है। लिहाजा यह भारत का मक्का कहलाता है। भारत में दरगाह अजमेर शरीफ ऐसा पाक स्थल है, जिसका नाम सुनते ही जायरीनों को रूहानी सुकून मिल जाता है। ख्वाजा की पूरी जिन्दगी इंसानियत, खासकर गरीबों की भलाई को समर्पित रही, गरीबों के प्रति दया, करुणा व समर्पण भाव रखने से वह गरीब नवाज कहलाये। कहा जाता है कि ख्वाजा हर दुआ कुबूल करते हैं।

ईरान निवासी थे ख्वाजा 

ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती ईरान के निवासी थे। उनका जन्म 18 अप्रैल 1143 ( 537 हिजरी) में ईरान के सीस्तान कसबे के संजर गाँव में माना जाता है। इनके वालिद सय्यद गयासुद्दीन थे और वालिदा का नाम सय्यदा बीबी उमु वरा माहे नूर था। बाद में उनके माता-पिता इसहाक शामी हेरात के पास चिश्त नामक स्थान पर बस गये। ख्वाजा के नाम में चिश्ती लफ्ज यहीं से जुड़ा। ख्वाजा के उस्ताद (गुरु) उस्माने हारुनी पीर थे। उस्ताद की खिदमत के दौरान ख्वाजा ने सीखा कि मुफलिसों के लिए मन में प्रेम-स्नेह रखो। बुरे कामों से दूर रहो। गर्दिश में भी इरादे फौलादी रखो। उस्ताद के संदेशों का ख्वाजा ने घूम-घूम कर प्रचार किया। अजमेर में ख्वाजा का आगमन 1195 ईसा बाद माना जाता है। कहते हैं, मुगल बादशाह अकबर ने भी संतान पाने के लिए ख्वाजा की दरगाह पर सजदा किया था।

अजमेर शरीफ में मजार 

चिश्ती के दुनिया से रुखसत का दिन 11 मार्च 1233 रजब 633 हिजरी माना जाता है. कहते हैं कि रोज की तरह एक रात गरीब नवाज ख्वाजा अल्लाह की इबादत को अपने कमरे में गये और जब वह पाँच दिन तक बाहर नहीं निकले, तब उनके अनुयायियों ने अगले दिन कमरा खोला, तो देखा ख्वाजा यह दुनिया छोड़ चुके हैं। उन्हें उसी कमरे में सुपुर्द-ए-खाक कर दिया गया। यह मजार वहीं बनी है।

एक दिन के बादशाह की मजार 

यहाँ बादशाह औरंगजेब द्वारा अपने हाथ से लिखी गई कुरान सुरक्षित है। बेगमी दालान से पूरब दिशा में भिश्ती की मजार है। यह मकबरा उसी एक दिन के बादशाह भिश्ती का है, जिसने चौसा के युद्ध के दौरान नदी में डूब रहे हुमायूँ की जान बचाई थी। 

राजस्थान के अजमेर शरीफ में हजरत ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती रहमतुल्ला अलैह की मजार पर हर साल उर्स लगता है। उर्स इस्लामी कैलेंडर के अनुसार रजब माह में पहली से छठी तारीख तक मनाया जाता है। छठी तारीख को ख्वाजा साहब की पुण्यतिथि मनायी जाती है। उर्स के दिनों में महफिलखाने में देश भर से आये कव्वाल अपनी कव्वालियाँ गाते हैं। मान्यता है कि यदि जायरीन यहाँ आने से पहले हजरत निजामुद्दीन औलिया, दिल्ली के दरबार में हाजरी लगाता है तो उसकी मुराद यहाँ 100% पूरी होती है।

कैसे पहुँचे 

अजमेर शहर राजस्थान की राजधानी जयपुर से तीन घंटे का रास्ता है। दूरी 140 किलोमीटर के करीब है। जयपुर से नियमित बस और रेल सेवा है। आप अजमेर में रहकर ख्वाजा की दरगाह के अलावा ढाई दिन का झोपड़ा और पुष्कर घूम सकते हैं। रेलवे स्टेशन से पैदल चलकर दरगाह शरीफ पहुँचा जा सकता है। दरगाह का रास्ता संकरी गलियों से होकर जाता है। दिल्ली से अजमेर के लिए आठ दैनिक ट्रेने हैं, इसके अलावा कई ट्रेनें अलग-अलग दिनों में भी चलती हैं। 12015 अजमेर शताब्दी एक्सप्रेस रोज सुबह 6.05 बजे चलती है जो दोपहर एक बजे के करीब अजमेर पहुँचा देती है। 

(देश मंथन, 06 अक्तूबर 2015)

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