बदलाव ही जीवन है

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संजय सिन्हा, संपादक, आजतक : 

दशहरा के महीना भर पहले हमारे घर में सुगबुगाहट शुरू हो जाती थी। मुझे नहीं पता कि घर के बाकी लोग दशहरा का इंतजार क्यों करते थे, पर मैं दशहरा का इंतजार नहीं करता था। माँ सुबह से ही ढेर सारी खाने-पीने की चीजें बनाने में जुट जाती, पिताजी पूजा की तैयारी करते। लेकिन दशहरा का दिन मेरे लिए उदासी का सबब होता। हालाँकि दशहरा पर नये कपड़े पहनने को मिलते थे, पर मेरा मन यह सोच कर उदास रहता कि आज दुर्गा जी की मूर्ति उठ जाएगी, आज उसे नदी में बहा दिया जाएगा और पिछले नौ दिनों से जो उत्सव चल रहा था, वो खत्म हो जाएगा। 

जो चल रहा है, वो खत्म हो जाएगा, इस सोच से मैं हर साल दशहरा पर खुश होने की जगह मन ही मन दुखी रहता। दुर्गा पूजा के नौ दिन जगह-जगह लाउडस्पीकर बजते, दुर्गा जी के सजे हुए पंडालों में रौनक मिलती, लेकिन ठीक दशहरा वाले दिन वो पंडाल उजड़ने लगते, मूर्तियों का विसर्जन होने लगता और इसीलिए जब सारा शहर खुश भाव से दशहरा को जी रहा होता, मैं उदास रहता। 

जो आज है, वो कल नहीं रहेगा, इस सोच की वजह से मैं आज को भी नहीं जी पाता था। 

***

मैं माँ से पूछता था कि जिस दिन सबसे बड़ा त्योहार है, उसी दिन दुर्गा जी की मूर्ति क्यों उठ जाती है? 

माँ समझ जाती कि ठीक त्योहार वाले दिन पंडालों के उठ जाने से मैं उदास हो जाता हूँ। फिर माँ समझाती कि धर्म को जिन्दगी के फलसफे से जोड़ कर देखोगे तो तुम्हें सारी बात समझ में आ जाएगी। 

दुर्गा की मूर्ति मिट्टी से बनायी जाती है। हम नौ दिनों तक उस मूर्ति की पूजा करते हैं, फिर दसवें दिन हम उसे मिट्टी में मिला देते हैं। मिट्टी से मिट्टी के मिलन की यह संपूर्णता तो खुशी की बात होनी चाहिए न! इसमें दुख कैसा? 

“पर माँ, दशहरा ही तो मुख्य त्योहार है, उसी दिन मूर्ति का विसर्जन हो जाता है, मुझे जश्न की जगह उजड़े पंडाल नजर आते हैं, इसलिए मैं उदास हो जाता हूँ। 

माँ सिर पर हाथ फेरती। फिर कहती, “वो इसलिए क्योंकि तुम संपूर्ण होने का अर्थ अभी नहीं समझते। क्योंकि तुम मन ही मन दशहरा के दिन दुर्गा जी की मूर्ति के विसर्जन से इतना आहत रहते हो कि तुम बाकी के नौ दिन की खुशियों को भी नहीं जी पाते। पर यह सही नहीं है। तुम्हें यह सोच कर खुश होना चाहिए कि दस दिनों तक माँ दुर्गा तुम्हारे साथ रहीं, फिर वो चली गईं दुबारा आने के लिए।”

“पर माँ आना और जाना ही क्यों?”

“आना और जाना प्रकृति का चक्र है। इस संसार में कुछ भी स्थायी नहीं है। अगर जीवन में सबकुछ स्थायी हो जाए तो, फिर जीवन रुक जाएगा। मान लो सुबह के बाद शाम न हो तो तुम स्कूल से घर आओगे ही नहीं। तुम खेलने भी नहीं जाओगे। दिन के बाद रात न हो, तो तुम सो भी नहीं पाओगे। या फिर रात के बाद दिन ही न हो, तो तुम जागोगे कैसे? सो कर जागना, जाग कर सोना, यही जीवन चक्र है। 

अगर दुर्गा जी की मूर्ति को विसर्जित न किया जाए, तो फिर अगले साल तुम्हें दशहरा का इंतजार ही नहीं रहेगा। तुम्हें दशहरा के दिन इस बात से प्रसन्न होना चाहिए कि माँ दुर्गा आज चली जाएँगी, फिर आने के लिए। जैसे एक दिन मैं चली जाऊँगी, फिर से तुम्हारे पास आने के लिए।”

“पर माँ, तुम चली जाओगी, तो फिर तुम मेरे पास कैसे आओगी? तुम मत जाना माँ, मैं तुम्हारे बिना जी ही नहीं सकूँगा।” 

“मैं आऊँगी बेटा। आना ही नियती है। जैसे हर साल दुर्गाजी आती हैं। अपने अलग-अलग नौ रूपों में आती हैं। तुम तो जानते हो न कि वो सभी नौ रूप एक ही देवी के हैं। बस तुम जिस तरह मुझसे प्यार करते हो, उसी तरह उन सभी महिलाओं से करना, जिनसे तुम मिलोगे। मैं आज माँ बन कर तुम्हारे पास हूँ, मैं ही तुम्हारी बहन हूँ, मैं ही एक दिन प्रेमिका बन कर तुम्हारे पास आऊँगी, फिर पत्नी के रूप में तुम्हारे पास आऊँगी। एक दिन मैं ही बेटी भी बन कर आऊँगी, बहू बन कर आऊँगी। तुम उदास मत होना। मेरे रूप बदलते रहेंगे, नाम बदल जाएँगे, रिश्ते बदल जाएँगे। बस तुम हर रूप के प्रति आदर को बनाए रखना, श्रद्धा बनाए रखना। तुम ऐसा करोगे, तो अगली बार से दशहरा पर उदास नहीं रहोगे।”

उस दशहरा के बाद माँ चली गयी। 

पर अब मैं उदास नहीं होता। मैं इस सच को जान गया हूँ कि माँ मेरे पास है, मेरे साथ है। अलग-अलग रूपों में। वो मेरे घर में पत्नी बन कर है। वो मेरी बहन बन कर है। वो फेसबुक पर मेरी परिजन बन कर है। माँ दुर्गा जी की तरह अलग-अलग रूपों में मेरे साथ है।  

(देश मंथन, 22 अक्तूबर 2015) 

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