परंपराओं की जंजीरों में जकड़ी लड़कियाँ

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संजय सिन्हा, संपादक, आजतक : 

आइए आज आपको एक लड़की से मिलवाता हूँ। 

एक ऐसी लड़की से जिससे मेरा परिचय इंदौर के जाने-माने चित्रकार ईश्वरी रावल ने कराया। करीब 17-18 साल की यह लड़की रोज शाम को घर के पीछे से बाहर निकलती है और रुक जाती है। उसका एक पाँव उसे उकसाता है, आगे बढ़ने के लिए। दूसरा पाँव टूटे पत्थरों पर ठिठक कर, सहम कर थम सा जाता है। 

मैं इंदौर आया तो धर्म सम्मेलन का हिस्सा बनने था, पर मैं भी क्या करूँ, जहाँ जाता हूँ, रिश्तों की कहानियाँ ढूंढने लगता हूँ। 

मुझे हर शहर, हर मुहल्ले और हर गली में रिश्तों की ये कहानियाँ मिल ही जाती हैं। तो यही कहानी मुझे मिल गयी ईश्वरी रावल के ड्राइंग रूम में। 

***

ईश्वरी रावल के घर मैं चला गया था, बस चाय पीने। पर उनके ड्राइंग रूम के कोने में मेरी निगाह उस लड़की की तस्वीर पर जा कर अटक गयी, जो दबे पाँव अपने घर के पीछे से बाहर निकल कर उस संसार को अपनी आँखों से देख लेना चाहती थी, जिसके बारे में न जाने किस-किस से सुन कर वो 17-18 साल की हो चुकी थी। पर क्या किसी लड़की के लिए घर की दहलीज लाँघना आसान होता है? अम्मा-बाबूजी और भैया का खौफ तो बाद की बात है, वो अपने ही मन के खौफ से कहाँ निकल पाती है? सुबह से शाम तक उसे कोई परेशानी नहीं होती, पर जैसे ही शाम को सूरज आसमान के दूसरे सिरे से अपने घर लौटने को होता है, उसका मन तड़प उठता है, एक बार घर से बाहर निकल कर देखे तो सही कि आखिर सूरज डूब कर जाता कहाँ है? 

पर क्या किसी अकेली लड़की के लिए इतना आसान है, अकेले डूबते सूरज की एक झलक भी देख पाना?

यकीनन नहीं। हमारे देश में लड़कियाँ बाहर निकलने के लिए नहीं होतीं। अकेली तो बिल्कुल नहीं। इसीलिए ईश्वरी रावल के घर की दीवार पर टंगी वो लड़की अपना एक कदम तो टूटे पत्थरों पर जमा कर उतरने को व्याकुल नजर आ रही थी, पर उसी का दूसरा पाँव जरा उल्टा सा वापसी के संशय में नजर आ रहा था। मैं बहुत गौर से तस्वीर को देख रहा था। 

रावल साहब मुझसे पूछ रहे थे, क्या देख रहो हो संजय? 

मैंने कहा, “लाल कपड़ों वाली इस लड़की को देख कर पता नहीं क्यों लग रहा है कि मैं इससे कहीं मिला हूँ।”

“मिले हो?”

“हाँ।”

“घर में ही मिले होगे क्योंकि यह लड़की तो कभी घर से बाहर निकली ही नहीं। इसका मन मान्यताओं और परंपराओं की जंजीरों में जकड़ा हुआ है। यह हर शाम डूबते सूरज से मिलने को बेताब होती है, फिर खुद ही रुक जाती है। घर के पीछे की इस पथरीली जमीन को पार करने की हिम्मत इसमें नहीं। यह कोशिश करती है, हर शाम एक नाकाम कोशिश। 

“और इसकी हथेलियों में उँगलियां क्यों नहीं?”

“क्या करेगी ये उँगलियों का? इसे किसकी उँगलियां पकड़नी हैं? 

“और चेहरा? वो भी तो नजर नहीं आ रहा।”

“लड़कियों के चेहरे कहाँ होते हैं? तुम इसमें चाहे जिस लड़की का चेहरा देख लो। क्या ये हर लड़की की कहानी नहीं?

***

ईश्वरी रावल ने लाल लहंगे और काली चोली में बिना चेहरे वाली इस लड़की की पेंटिंग 1987 में बनायी थी। पेंटिग अब बिक चुकी है। यह तो अब कैमरे में उतरी एक याद भर है। 

एक संवेदनशील पेंटर मुझसे कह रहा था, “ऐसी पेंटिग हर घर में होती है, देखने वाले की आँखें चाहिए। शाम को घर के पिछले दरवाजे पर आधे थमे, आधे बाहर निकलते पाँव की कहानी कोई नयी तो नहीं। फिर मैं इस पेंटिग को रख कर क्या करता? मैंने पेंटिंग बेच दी। ऐसी लड़कियों की पेंटिंग बिक जाने के लिए ही होती है। ऐसी लड़कियों से रिश्ते नहीं जोड़ते। इंदौर आये हो तो घूमो, शहर की रौनक देखो, धर्म पर चर्चा करो। लड़कियों का क्या है, हजारों सालों से ऐसी ही थीं, ऐसी ही रहेंगी। 

(देश मंथन, 26 अक्तूबर 2015)

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