संजय सिन्हा, संपादक, आज तक :
मैंने कल लिखा था न कि मेरी मुलाकात दिल्ली वाले लड़के से होगी।
तो मेरे प्यारे परिजनों, कल मैं दिल्ली वाले लड़के से मिला। बेशक वो दिल्ली आया था अपनी फिल्म ‘दिलवाले’ के प्रमोशन के लिए, लेकिन मेरा यकीन कीजिए, उसके दिल्ली आने में एक भाव अपने दोस्तों से मिलना भी छिपा रहता है। उसके दिल्ली आने में एक भाव अपनी माँ से मिलना भी छिपा रहता है।
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कल जब मैंने आपसे यह साझा किया था कि मेरी मुलाकात शाहरुख खान से होने वाली है, तो आप में से बहुत से लोगों ने बहुत खुशी जतायी थी। कुछ लोगों ने अपनी आपत्ति भी जतायी थी कि शाहरुख खान ने असहिष्णुता जैसे मुद्दे पर अपनी जो राय रखी है, उससे उनके मन में उनकी छवि पहले जैसी नहीं रही। किसी ने मुझसे कहा कि मैं शाहरुख खान के लिए अपनी दीवानगी जताता हूँ। कई लोगों ने तो पूछा कि संसार में ऐसे हजारों लोग हैं, जो अपनी मेहनत से बहुत ऊपर तक पहुँचे हैं, मैं उनके लिए तो नहीं लिखता, पर सिनेमा के पर्दे पर नाचने-गाने वाले इस आदमी की इतनी कहानियाँ आपको क्यों सुनाता हूँ?
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आपकी सारी शिकायतें सिर माथे पर।
आज मैं अपनी सफाई नहीं दे रहा। मैं अपने मित्र के बचाव में कुछ नहीं लिख रहा। आज मैं आपको सिर्फ उस आदमी से एक बार मिलवाना चाहता हूँ, जो न तो फिल्मी कलाकार है, न हिंदू या मुसलमान है। जो न बहुत अमीर है, न बहुत हैंडसम है। वो दिल्ली के एक कॉलेज में पढ़ने वाला बहुत सामान्य-सा लड़का है, वैसा ही जैसा मैं हुआ करता था।
हम दोनों 27 साल पहले दिल्ली के नजफगढ़ इलाके में जब पहली बार फौजी की शूटिंग के दौरान मिले थे, तब शाहरुख खान को नहीं पता था कि वो सारी जिन्दगी फिल्मों में काम करेंगे। तब हम दोनों को यह भी नहीं पता था कि हम आगे भी मिलते रहेंगे। पर मुझे इतना याद है कि उन दिनों शाहरुख खान की माँ थीं, क्योंकि बातचीत के किसी सिलसिले में उन्होंने बहुत शिद्दत से माँ की चर्चा की थी।
शाहरुख खान का पहला टेक ओके हुआ था और वहीं हमारी बातचीत में उन्होंने कहा था कि माँ को आज बताऊँगा, तो वो बहुत खुश होगी।
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मैं भी स्कूल से घर लौटते हुए रास्ते भर मन में सोचता आता कि आज माँ को ये बताऊँगा, वो बताऊँगा।
घर आता, माँ घर के दरवाजे पर ही मेरा इंतजार करती मिलतीं। मैं बस्ता एक ओर पटकता और माँ से लिपट जाता।
माँ बहुत देर तक प्यार करती, फिर हाथ-मुँह धोने को कहती। कहती कि आज तुम्हारे लिए आलू के पकौड़े बने हैं, बेसन की कढ़ी बनी है, और खाने के बाद गाजर का हलवा भी है।
माँ खाने की चीजें गिनाती जाती, मेरे मुँह में पानी आता जाता। मैं कहता, “माँ, खाना तो आप अपने हाथों से खिलाएँगी, फिर मुझे हाथ धोने की क्या जरूरत पड़ी है?”
और फिर शुरू हो जाता मैं।
माँ एक-एक कौर खिलाती जाती, मैं बबलू, मुन्ना, पिंकी, पुतुल, सबकी कहानियाँ माँ से साझा करने लगता।
खाना खत्म हो जाता पर मेरी बातें खत्म नहीं होती।
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फिर एक दिन मेरी माँ इस दुनिया से चली गयीं। उसे हम ढेर सारे लोग गंगा नदी के किनारे जला आये।
माँ चली गई, लेकिन मेरे जेहन से एक पल के लिए भी वो नहीं गई। माँ के चले जाने के बाद भी मैं स्कूल जाता था, कॉलेज जाता था, दफ्तर जाता था, पर मेरे पास ऐसा कोई नहीं था जिससे मैं उन कहानियों को साझा करता।
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उस दिन फौजी के सेट पर शाहरुख खान ने मुझसे कहा था आज माँ को इस शूटिंग के बारे में बताऊँगा, तो वो बहुत खुश होंगी।
मुझे नहीं पता कि मुझे आपसे ये बात साझा करनी चाहिए या नहीं, लेकिन यह सच है कि शाहरुख खान आज जिस मुकाम पर हैं, उस मुकाम तक तक वो पहुँचे ही माँ की दुआओं की वजह से हैं। उन्होंने बहुत पहले मुझे ही बताया था कि ऐक्टिंग के उनके पैशन को उनकी माँ ने हमेशा जीने के लिए उकसाया है। शाहरुख खान भी एक आम मिडल क्लास परिवार से ही थे, लेकिन उनकी माँ ने उनके भीतर ऐक्टिंग का वो जुनून देख लिया था और उन्होंने उनसे यही कहा था कि तुम अपने पैशन को जीना।
जिन दिनों वो टीवी पर ऐक्टिंग कर रहे थे, उन दिनों ऐसा नहीं था कि ऐक्टर का बहुत सुनहरा भविष्य हुआ करता था। मेरी आँखों के सामने ही न जाने कितने टीवी कलाकार थे, जिनके सामने कोई भविष्य नहीं था। पर शाहरुख खान उस पैशन को जीने जा रहे थे, माँ की दुआओं के साथ।
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मैंने पहले भी आपको ये बात बतायी है कि शाहरुख जब भी दिल्ली आते हैं, यहाँ देर रात अपनी माँ की मजार पर जाते हैं। अकेले में उनसे बातें करते हैं।
अपने काम के प्रति पैशन और माँ के लिए प्यार, ये दोनों बातें उन्हें मुझसे जोड़ रही थीं।
मैं आज भी गंगा नदी के किनारे जाता हूँ, तो उसके पानी को अपनी हथेलियों में भरता हूँ। मुझे उसमें अपनी माँ के होने का अहसास होता है। मैं जिन दिनों पत्रकारिता करने आया था, उसमें भी किसी को कोई भविष्य नजर नहीं आता था। पर मैं अपने लिखने के पैशन को जी रहा था।
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आप जिस शाहरुख खान को टीवी पर देखते हैं, सिनेमा में देखते हैं, अखबार में पढ़ते हैं, उस आधार पर आप उनके प्रति अपनी राय बना लेते हैं। इसीलिए वो आपको अच्छा लगता है, आपको बुरा भी लगता है।
मैं उसे माँ के प्रति समर्पित बेटा और काम के प्रति जुनून और पैशन के लिए सारी रात जागने वाले एक आदमी के रूप में देखता हूँ।
हमारे देखने के नजरिए में अंतर है।
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हँस दूध से पानी अलग कर लेता है। उसकी दिलचस्पी दूध में होती है, पानी में नहीं।
मैं भी आदमी में अच्छाई को ढूँढ लेता हूँ। उसकी कमियों पर मेरा ध्यान बहुत कम जाता है। इस संसार में ऐसा कोई है ही नहीं, जिसमें कमियाँ न हों। पर मेरी निगाहें उन कमियों पर कम ही रुकती हैं। क्या करूं, ऐसा ही हूँ। माँ ने यही सिखाया था कि तुम लोगों में कमियाँ मत ढूँढना, बुराइयाँ भी मत ढूँढना। जो अच्छा लगे, उसके साथ रहना। जो बुरा लगे, उससे दूर हो जाना।
माँ ने कहा था कि रिश्तों के धागे कच्चे रेशम से होते हैं। इन्हें आजमाना नहीं चाहिए, इन्हें महसूस करना चाहिए।
मैं माँ के साथ उन रिश्तों को गंगा के पानी में महसूस करता हूँ। शाहरुख मजार की मिट्टी में महसूस करते हैं। मैं आप में उन रिश्तों को जीता हूँ। शाहरुख मुझमें उन रिश्तों को जीते हैं।
आपमें, मुझमें, शाहरुख में, सबमें बहुत सी खूबियाँ भी हैं।
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आइए हम एक दूसरे में खूबियाँ ढूँढते हैं। कमियों को ढूँढने निकलेंगे, तो वक्त कम पड़ जाएगा। नफरत करने निकलेंगे, तो एक जिन्दगी छोटी पड़ जाएगी।
जिसके पास बहुत बड़ी जिन्दगी पड़ी हो, वो तो ऐसा कर सकते हैं।
मेरे पास तो नहीं है।
(देश मंथन, 16 दिसंबर 2015)