कमर वहीद नकवी, वरिष्ठ पत्रकार :
तो साल बदल गया। जैसा हर साल होता है, हर साल कुछ बदलता है, लेकिन बहुत-कुछ नहीं भी बदलता। जो कभी नहीं बदलता, उस पर बात भी कभी नहीं होती। आखिर यथावत पर क्या बात की जाये? वह तो जैसा है, वैसा ही रहेगा। गरीब हैं तो हैं, गरीबी है तो है, करोड़ों लोग बेघर हैं तो हैं, वह तो वैसे ही रहेंगे और विकास का सिनेमा देखते रहेंगे, रैलियों में भीड़ बनते रहेंगे, भाषणों पर तालियाँ बजाते रहेंगे, वोट देते रहेंगे, जिन्दगी बदलने की आस में सरकारें बदलते रहेंगे और यथावत जीते रहेंगे, यथावत मरते रहेंगे।
यथावत प्राणी और बुलेट ट्रेन
इन यथावत प्राणियों के लिए सिर्फ कैलेंडर बदलता है! वैसे कैलेंडर की भी इनके जीवन में कहाँ जगह है? जिनके पास टाँगने को दीवार भी न हो, वह कैलेंडर का भी क्या करें? पिछले सड़सठ बरसों में इन यथावत की प्राणियों की कुल उपलब्धि क्या हैं? आधार कार्ड, बीपीएल कार्ड, मनरेगा, जन-धन योजना! बुलेट ट्रेन वे टीवी में देखेंगे, और देश की प्रगति पर गर्वित होंगे!
2016 में क्या बदलेगा, क्या नहीं?
तो 2016 आ गया। देश में इस साल क्या-क्या बदल सकता है? और क्या-क्या नहीं बदल सकता? बड़े आराम से कहा जा सकता है कि क्या नहीं बदलेगा-यथावत प्राणियों का हाल, काँग्रेस की अड़बंगी चाल, केजरीवाल और दिल्ली सरकार की लड़ाई, विकास और गुड गवर्नेन्स की शहनाई, मीडिया वालों की सेल्फ़ी दौड़ और भ्रष्टाचार के नये तरीकों की खोज और संघ परिवार का एजेंडा!
क्या कम होंगी मोदी की विदेश यात्राएँ?
2016 and India – Modi’s Foreign Visits and Election Rallies | और बदलेगा क्या? सुना है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कुछ कटौती का एजेंडा बनाया है। खबरें हैं कि इस साल वह कम विदेश यात्राएँ करेंगे। पिछले साल उन्होंने 26 देशों की यात्राएँ की थीं। उनके नामधारी सूट के बाद उनकी इतनी ज्यादा विदेश यात्राएँ राजनीतिक दलों के बीच, मीडिया में और सोशल मीडिया में लगातार चर्चा का विषय रहीं। लेकिन इस बार सुना जा रहा है कि उन्होंने हिदायत दे दी है कि उनकी केवल उतनी ही विदेश यात्राओं का कार्यक्रम बनाया जाये, जो वाकई जरूरी हों। कहा जा रहा है कि नमो ने इतनी विदेश यात्राएँ दो कारणों से की। एक इस बात को झुठलाने के लिए कि मुख्यमंत्री होने के कारण उन्हें कूटनीतिक कौशल नहीं होगा और दूसरा उन्हें वीसा न दिये जाने के लिए चलाये गये अभियान को ठेंगा दिखाने के लिए। ये दोनों मकसद वह 2015 में पूरे कर चुके हैं, इसलिए अब तूफानी विदेश दौरों की जरूरत नहीं। और सिर्फ विदेश यात्राएँ ही नहीं, बल्कि सुनते हैं कि इस बार पाँच राज्यों के विधानसभा चुनावों में मोदी जी उतनी ताबड़तोड़ चुनावी रैलियाँ भी नहीं करेंगे, जितनी उन्होंने बिहार में की थीं। चलिए, बिहार की हार से कुछ तो सबक सीखा गया!
इस साल काम पर जोर!
2016 and India – Much More Focus on Work and Delivery | यानी 2016 में मोदी जी विदेश दौरों और चुनावी रैलियों को कम कर अपने दफ्कर को काफप ज्यादा समय दे पायेंगे। देना भी चाहिए। 2016 के खत्म होते-होते मोदी सरकार के 31 महीने पूरे हो चुके होंगे। तब तक उन्हें कम से कम कुछ काम करके तो दिखाना ही होगा, जिसके बड़े-बड़े वादे करके वह सत्ता में आये थे। बीते साल के आखिरी दिन उन्होंने अपने अफसरों को बुला कर कहा कि कृषि, किसान कल्याण, शिक्षा और स्वास्थ्य, रोजगार, समावेशी विकास, गंगा, स्वच्छ भारत और गुड गवर्नेन्स जैसे आठ प्राथमिकता क्षेत्रों के लिए वह दो हफ्के मंक अपनी कार्ययोजना पेश करें और उसके बाद 2016 में इन पर तेजी से अमल किया जाये क्योंकि जनता तो ‘काम ही देखती है।’
पाँच राज्यों के चुनाव: क्या तवा गरम होगा?
2016 and India – Elections in Five States | जनता तो काम देखती है, लेकिन मोदी सरकार बनने के बाद से देश में काम पर कब बात हुई। पिछले डेढ़ साल में सारी चर्चा तो संघ के एजेंडे पर ही होती रही। ‘लव जिहाद’, ‘घर-वापसी’, ‘रामजादे-हरामजादे’, गोमांस, असहिष्णुता, लेखकों की हत्याएँ, पुरस्कार-वापसी और विवादास्पद बयान 2015 में रोज-रोज खबरों में छाये रहे। तो इस साल संघ क्या करेगा? चुप बैठेगा? लगता तो नहीं है। राम मन्दिर निर्माण का मुद्दा तो पहले ही उछल चुका है। 2017 में उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव हैं। तवा अगर अभी से गरम नहीं किया जायेगा, तो दो साल बाद चुनाव में रोटियाँ कैसे सिकेंगी? इसलिए अचानक से विहिप और यदा-कदा बीजेपी के कुछ नेताओं ने जल्दी से जल्दी मन्दिर बनाये जाने की चर्चाएँ शुरू कर दी हैं। फिर अभी पाँच राज्यों के चुनावों में कम से कम असम, पश्चिम बंगाल और केरल में तो हिन्दू-मुस्लिम साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण का लाभ लेने कोशिश की ही जा सकती है, क्योंकि यहाँ मुसलिम मतदाताओं की संख्या काफी है। पश्चिम बंगाल और केरल में दो कट्टर हिन्दुत्ववादी नेताओं को प्रदेश संगठन की कमान देकर बीजेपी साफ संकेत दे चुकी है कि उसके इरादे क्या हैं!
नोटों पर छपे किस-किसकी फोटो?
और खबरों को देख कर लग रहा है कि कुछ नये मुद्दे भी 2016 में गरमायेंगे। हो सकता है कि अगले कुछ दिनों में देश में इस पर बहस हो रही हो कि करेंसी नोटों पर किस-किसकी फोटो छपे। गाँधी के हत्यारे गोडसे को नायक माननेवाली हिन्दू महासभा ने पिछले साल जनवरी में प्रधानमंत्री को चिट्ठी लिख कर कहा था कि नोटों पर शिवा जी, महाराणा प्रताप, भीमराव आम्बेडकर की फोटो छापी जानी चाहिए। तब बात आयी-गयी हो गयी थी। लेकिन अभी कुछ दिन पहले यह मामला फिर से उठा है। सोनिया गाँधी की अध्यक्षतावाली राष्ट्रीय सलाहकार समिति के सदस्य रहे अर्थशास्त्री नरेन्द्र जाधव ने प्रधानमंत्री को प्रस्ताव भेजा है कि नोटों पर आम्बेडकर और स्वामी विवेकानन्द की तस्वीरें भी छापी जानी चाहिए। कहा जा रहा है कि दुनिया के तमाम देशों में करेंसी नोटों पर कई अलग-अलग व्यक्तियों की तस्वीरें छपती हैं, तो यहाँ क्यों नहीं?
जम्मू-कश्मीर के झंडे का विवाद
और दूसरा एक बड़ा विवादास्पद मुद्दा इस साल जम्मू-कश्मीर से उठ सकता है। वह यह कि वहाँ के राज्यपाल को सदर-ए-रियासत और मुख्यमंत्री को वजीर-ए-आजम कहा जाये, जैसा कि 1965 के पहले होता था। जम्मू-कश्मीर उच्च न्यायालय के एक जज ने पिछले दिनों यह टिप्पणी यह फैसला सुनाते हुए की कि हर सरकारी इमारतों और वाहनों पर जम्मू-कश्मीर का झंडा लगाया जाये और ऐसा न किया जाना जम्मू-कश्मीर के संविधान के विरुद्ध है। वैसे यह कालम छपने के लिए भेज दिये जाने के बाद खबर आयी कि जम्मू-कश्मीर हाइकोर्ट की एक बड़ी बेंच ने 1 जनवरी को इस पर रोक लगा दी। लेकिन यह मामला वहाँ गरमा रहा है या गरमाया जा रहा है! शायद लोगों को याद हो कि मार्च 2015 में मुफ्ती सरकार ने जम्मू-कश्मीर का ध्वज फहराये जाने के बारे में एक सर्कुलर जारी किया था, जिसे बाद में बीजेपी के दबाव में वापस ले लिया था। तभी यह मामला हाइकोर्ट पहुँचा था। कहा नहीं जा सकता कि आगे चल कर यह क्या मोड़ लेगा और मोदी सरकार इससे कैसे निबटेगी? इससे पहले वहाँ गोमांस निषेध को लेकर भी हाइकोर्ट के आदेश पर अच्छा-खासा विवाद हो गया था, जब हाइकोर्ट की जम्मू और श्रीनगर बेंचों ने इस मुद्दे पर अलग-अलग रुख अख्तियार किया था, बाद में हाइकोर्ट की एक बड़ी बेंच ने इस मामले पर विराम लगाया था। दोनों मामले एक खतरनाक संकेत हैं। पिछले चुनाव के समय जम्मू और घाटी के बीच जो स्पष्ट विभाजन दिखा था, वह पीडीपी-बीजेपी सरकार बनने के बाद से लगातार बढ़ता जा रहा है और हर स्तर पर बढ़ता दिख रहा है। जम्मू-कश्मीर में इतने बरसों की अथक मेहनत के बाद जो कुछ अर्जित किया गया था, क्या हम उसे गँवाने की तरफ तो नहीं बढ़ रहे हैं?
आईएसआईएस, अल कायदा और आईएसआई!
और इन सबके बीच आईएसआईएस और अल कायदा की तरफ से भी खतरे की तलवार लटक रही है। मोदी जी भले लाहौर जा कर नवाज शरीफ से गले मिल आये हों, लेकिन वहाँ की आईएसआई के इरादे क्या हैं, कोई नहीं जानता! पंजाब में खालिस्तान आन्दोलन को भड़काने की कोशिशें हाल-फिलहाल फिर सामने आयी हैं। कुल मिला कर जितनी बातें अभी हवा में तैरती दिख रही हैं, वह सब जहर फैलानेवाली हैं, खुशबू बिखेरनेवाली नहीं। चिन्ता की बात है, लेकिन फिलहाल, आज जनवरी की दूसरी तारीख को 2016 की तस्वीर तो ऐसी ही दिखती है।
(देश मंथन 02 जनवरी 2016)