दिल्ली वालों का अभी कुछ होना बाकी है

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संजय सिन्हा, संपादक, आज तक :

बहुत साल पहले जब मैं स्कूल में पढ़ता था, जय प्रकाश नारायण ने बिहार में स्कूल बंद करा दिये थे। 

 जय प्रकाश नारायण जनता के नेता थे और उन्होंने इंदिरा गाँधी को मात देने के लिए छात्रों से अपील की थी कि वो आंदोलन करें और स्कूल-कॉलेज बंद करा दें। बिहार के लोगों को लगने लगा था कि जेपी ऐसा कुछ करने जा रहे हैं, जिससे उनकी जिन्दगी के सभी दुख दूर हो जाएँगे। 

काश ऐसा होता! 

तब मैं बहुत छोटा बच्चा था। जिस उम्र में धर्मेंद्र मेरी दीदी के हीरो थे, सुनील गावस्कर मेरे चाचा के हीरो थे, मेरे मन में जेपी की तस्वीर बतौर हीरो उभर रही थी। 

मैंने यहीं फेसबुक पर बहुत पहले लिखा था कि एक बार मैं अपनी साइकिल से पटना में जेपी के घर पहुँच गया था। जेपी पलंग पर लेटे हुए थे और बहुत मनुहार के बाद मुझे उनसे मिलवा दिया गया था। निकर और बुशर्ट पहने हुए एक छोटा-सा लड़का, जिसका नाम संजय सिन्हा था, जेपी के सामने था। जेपी बहुत बूढ़े से लग रहे थे। कई लोग उन्हें घेरे हुए खड़े थे। मैं जेपी के सामने गया, तो जेपी ने मेरे सिर पर हाथ फेरा और कहा था कि तुम मन लगा कर पढ़ाई करना।

इतना सुन कर मैं जब उनके घर से निकला, अपनी साइकिल पर बैठा तो मेरे मन में ये सवाल बार-बार उठा कि जेपी ने तो स्कूल-कॉलेज नहीं जाने की बात कही थी, फिर उन्होंने मुझसे क्यों कहा कि तुम पढ़ाई करना। 

***

शायद जेपी समझ गये थे कि उन्होंने स्कूल-कॉलेज बंद करा कर जिस आंदोलन को जन्म दिया है, वो दरअसल इतिहास की किताब में भले जन आंदोलन के नाम से दर्ज होगा और उनके लड़ाके छात्र नेता कहे जाएँगे, पर हकीकत में यह बिहार के साथ अन्याय हो गया है। बिहार की एक पूरी पीढ़ी बर्बादी की राह पर चल पड़ी है। इंदिरा गाँधी तो परास्त हो गयीं, जेपी जीत भी गये, पर हकीकत में आम आदमी हार गया था। जेपी ने अपनी ताकत दिखायी थी आम आदमी के बूते। पर उस आम आदमी को पता नहीं था कि उनका ‘अभी कुछ और होना बाकी है’।

मेरा यकीन कीजिए, जेपी के उस आंदोलन के बाद बिहार में कभी शिक्षा व्यवस्था सुधरी ही नहीं। जो लोग वहाँ नहीं गये, उन्हें नहीं पता होगा कि स्कूल-कॉलेज के सत्र कई-कई साल पीछे हो गये। मतलब अगर किसी की परीक्षा 1978 में होनी थी तो वो 1982 में होती थी। 

इंदिरा गाँधी हार गयीं, इंदिरा गाँधी फिर जीत गयीं। जेपी मर गये। 

पर बिहार के छात्र मर-मर कर जीते रहे। कुछ रंगदार टाइप के छात्र तो नेता बन गए, कुछ सीधे छात्र टुटपुंजिया पत्रकार। 

बहुतों की पढ़ाई पूरी नहीं हुई तो कोई किरानी बना, कोई दलाल। 

कभी नालंदा विश्वविद्यालय के गौरव से दीप्तिमान बिहार की पढ़ाई चरवाहा विश्वविद्यालय में तब्दील हो गयी। 

बिहार का अभी यही होना बाकी था।

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मैंने कुछ दिन पहले यहीं फेसबुक पर पंडित और खोपड़ी वाली कहानी लिखी थी। आज एक बार फिर दुहराने जा रहा हूँ। 

एक पंडित जी थे। बहुत दरिद्र थे। एक दिन जंगल से गुजरते हुए उन्हें जमीन पर एक खोपड़ी दिखी। पंडित जी ने उस खोपड़ी को उठाया और उसके मस्तिष्क की रेखाओं को पढ़ा। उस पर लिखा था कि अभी इसका कुछ बाकी है। 

पंडित जी बहुत हैरान हुए। कम से कम सौ साल पहले मरे आदमी की खोपड़ी पर क्यों लिखा है कि अभी इसका कुछ बाकी है। 

उन्होंने खोपड़ी अपने थैले में रख ली। 

घर आये। उस दिन कहीं से कुछ मिला नहीं था। बेचारे मायूस थे। थैली को खूंटी पर टांग कर वो गंगा में स्नान के लिए निकल पड़े। 

इधर पंडिताइन ने अंधेरे में पंडित जी के थैले को टटोला। उसमें उन्हें कोई गोल-सी चीज मिली। बेचारी पंडिताइन के पास कुछ खाना बनाने को था नहीं, इसलिए उन्होंने उस गोल सी चीज को मूसल में डाल कर खूब कूटा और आटा बना दिया। 

पंडित जी गंगा स्नान से लौटे तो पंडिताइन ने मुँह बना कर कहा, “आज क्या लेकर आए थे? हाथ दुख गया कूटने में।”

पंडित ने पूछा, “क्या कूट दिया?”

“वही जो थैले में था।”

“उसे कूट दिया?”

“हाँ।”

पंडित ने माथा पकड़ लिया। ओह! तो अभी इसका यही होना बाकी था।

***

दिल्ली में भी आजकल एक सरकारी फैसले को कामयाब होते देखने के लिए स्कूलों की छुट्टियाँ करा दी गयी हैं। माता-पिता प्रसन्न हैं कि बच्चों की छुट्टियाँ हैं। बच्चे भी खुश हैं कि ऐसी छुट्टियाँ मिलती रहें, होम वर्क से आराम है। टीचर खुश हैं कि ऐसे सरकारी फरमान आते रहे तो मुफ्त में ही सैलरी मिलती रहेगी। 

पर मेरा यकीन कीजिए, जब किसी फैसले में बच्चों के भविष्य का इस्तेमाल होता है, तो इसका अर्थ होता है अभी इसका कुछ बाकी है।

वो जो बाकी होता है, वो इंदिरा गाँधी या जय प्रकाश नारायण का नहीं होता। वो बाकी होता है आम आदमी का। 

नेताओं का क्या है। आज हैं, कल नहीं रहेंगे। फिर परसों होंगे, नरसों नहीं रहेंगे। 

आम आदमी का जन्म बस इसी काम के लिए होता है कि वो इंकलाब-जिन्दाबाद करता रहे। फिलहाल दिल्ली वालों की खोपड़ी पर साफ-साफ लिखा है कि उसका अभी कुछ होना बाकी है। जब तक खोपड़ी पंडित जी के हाथ नहीं लगती, तब तक इंतजार कीजिए अपने कुछ और होने का।

(देश मंथन, 04 जनवरी 2015)

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