संजय सिन्हा, संपादक, आज तक :
कल शाम मैं सिंगापुर के एक रेस्त्रां में बैठा था।
मेरा मन पिज्जा खाने का था। आर्किड रोड पर हल्की बारिश के बीच मैंने उस इटालियन रेस्त्राँ में बैठ कर पिज्जा का ऑर्डर किया। मेरे ठीक बगल वाली मेज पर एक दंपति बैठे थे। उन्होंने भी पिज्जा ऑर्डर किया था। मैं मन ही मन सोच रहा था कि यहाँ के लोग कितने खुश रहते हैं। पति-पत्नी या दोस्त शाम को साथ घूमने निकलते हैं, साथ बैठते हैं, डिनर करते हैं।
पर मैं इस बात पर हैरान था कि दोनों दंपति करीब आधे घंटे तक उस टेबल पर बैठे रहे, लेकिन दोनों ने आपस में एक शब्द भी बात नहीं की। दोनों लगातार अपने-अपने मोबाइल फोन पर लगे रहे।
मेरा कौतूहल बढ़ गया था। उन्होंने अपना डिनर किया और बिल देकर कर चले गये। मेरा भी खाना हो चुका था। पर मुझे लगा कि अभी मुझे कुछ देर और यहाँ रुकना चाहिए। मैं समझना चाह रहा था कि आखिर तकनीक ने हमें एक दूसरे के करीब किया है, या दूर कर दिया है।
कुछ देर बाद मेरी निगाह दूसरी मेज पर पड़ी। वहाँ भी एक युवा दंपति आये। उन्होंने भी खाने का ऑर्डर किया। दोनों पति-पत्नी या दोस्त ने अपने लिए अलग-अलग खाने के ऑर्डर किए थे। मेरा पिज्जा खत्म हो चुका था। पर मैं कुछ देर और रुकना चाह रहा था, इसिलिए मैंने फिश ऑर्डर कर दिया। मुझे मालूम था कि फिश में देर लगेगी।
मैं चुपचाप दूसरी टेबल की ओर देखता रहा। वहाँ भी वही हाल था। दोनों लोग आपस में कोई बात नहीं कर रहे थे। पुरुष तो अपने साथ आईपैड जैसी कोई चीज लिए हुए था, और वो उसमें पूरी फिल्म देख रहा था। महिला लगातार फोन पर लगी थी।
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मैं और मेरी पत्नी कभी कहीं किसी रेस्त्राँ में जाते हैं, तो हम ऑर्डर चाहे जो करें, पर थोड़ी ही देर में हम एक दूसरे के ऑर्डर पर हाथ मारने लगते हैं। पत्नी तय करके गयी होती है कि वो सिर्फ डोसा खाएगी और मैं छोले भटूरे। लेकिन दो मिनट के बाद आधा भटूरा वो खा जाती है, और मैं उसका डोसा साफ कर चुका होता हूँ। दुनिया के सारे गमों की चर्चा हम खाने की मेज पर कर लेते हैं।
लेकिन यहाँ सिंगापुर में बैठ कर मुझे लगा कि आधुनिकता अपने साथ अकेलापन लेकर आगे बढ़ रही है।
सड़कें चमचमा रही हैं। शहर जगमगा रहा है। तकनीक के एक इशारे पर सारी सुविधाएँ कदमों में हैं। बड़ी-बड़ी गाड़ियाँ हैं।
पर आदमी तन्हा है।
तो क्या एक दिन हम भी एक दूसरे के बेहद करीब होंगे, पर हकीकत में बहुत दूर होंगे।
जब-जब मैं रिश्तों में इस दूरी को देखता हूँ, मुझे अपना वतन, अपना घर, अपना परिवार और आप सब बहुत याद आने लगते हैं। मुझे तब तक अकेलापन का अहसास नहीं होता, जब तक ऐसी चुप्पी से मैं गुजर नहीं चुका होता हूँ। तीन दिन हो गए, सिंगापुर में। अब यहाँ इस रेस्त्रा में बैठ कर मुझे अकेलापन बहुत साल रहा है।
पता नहीं ये लोग इस सच तो समझते हैं या नहीं, पर अकेलापन एक सजा है।
रेस्त्राँ में लोग एकांत की तलाश में आते हैं और अकेले हो कर चले जाते हैं।
(देश मंथन, 27 जनवरी 2016)




संजय सिन्हा, संपादक, आज तक :












