संजय सिन्हा, संपादक, आज तक :
कायदे से ये कहानी मुझे कल ही लिखनी चाहिए थी। घटना कल की ही है।
दो दिन पहले मैं अपने एक परिचित के घर गया था। घर में सब कुछ ठीक है। किसी चीज की कमी नहीं है। कमी है तो बस जुबाँ में। मेरी परिचित चाय बना रही थीं, चाय बनाते-बनाते घर में काम करने वाली पर बरस रही थीं। काम करने वाली देर से आयी थी। मुझे ठीक से समझ में नहीं आ रहा था कि माजरा क्या है, और न ही इतनी घरेलू बात में मुझे घुसने की जरूरत थी। पर रसोई से बाहर आ रही आवाज से साफ था कि मालकिन और नौकरानी में किसी बात पर खटपट थी।
चाय लेकर आती हुई मेरी परिचित के मुँह से मैंने इतना ही सुना कि अरे गिर गयी थी तो क्या हुआ, टाँग तो नहीं टूट गयी थी?
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चाय मेरे सामने थी। मेरी परिचित ने चाय का कप मेरे हाथों में पकड़ाते हुए मुझसे कहा कि ये कामवालियाँ भी इन दिनों सिर चढ़ गयी हैं। आज घंटा भर देर से आयी है। मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि काम वाली की कहानी मुझे सुनाने में उनकी क्या दिलचस्पी हो सकती है। मैं एक अच्छे अतिथि की तरह उनकी बातें सुन कर उनकी हाँ में हाँ मिला रहा था। मैंने कहा कि कोई वजह होगी, जाने दीजिए। आप अपना गुस्सा थूक दीजिए।
“पूरे घर का काम रुक गया। बर्तन धोने से लेकर साफ-सफाई तक। अब खाना बनने में भी देर होगी।”
“कोई बात नहीं। उसके सामने कोई परेशानी आ गयी होगी।”
“कोई परेशानी नहीं। इनके काम न करने के हजार बहाने होते हैं। कभी ये हो गया, कभी वो हो गया। अब आज बता रही है कि गिर गयी थी, चोट लगी है, चलने में परेशानी हो रही है। अब मैं इन मैडम के लिए गाड़ी भेजूं? अरे टाँग टूट जाए तब पता चले।”
मैं चुपचाप सुनता रहा। क्या कहता? सच बात तो यही है कि घर की समस्याएँ महिलाएँ ही देखती हैं, इसलिए उनकी तकलीफ पुरुषों से अलग होती है। पर उनका गुस्सा कम करने के लिए मैंने कहा कि छोड़िए, देश में ऐसे ही इतनी आग लगी है। किन-किन बातों पर गुस्सा करती रहेंगी?
“संजय जी, मेरी तो समझ में नहीं आता कि जीवन में इतनी मुश्किलें क्यों हैं?”
“जीवन में मुश्किलें नहीं। मुश्किलें हमारी सोच में होती हैं। इसे आसान बना कर जीने लगिए। बेवजह सोचना ही बंद कर दीजिए। जिन्दगी आसान हो जाएगी।”
“आप न बाबाओं की तरह बातें मत कीजिए। दुख तो सबको होता ही है।”
“दुखी होना कई बार आदत बन जाती है। एक बार खुश रहने की आदत बना कर देखिए। जिन्दगी आसान लगने लगेगी। मन में वो सोच लाइए ही मत जो दुख दे।”
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अपने परिचित के दुख से सराबोर हो कर मैं तो घर चला आया।
पर कल मेरे पास फोन आया कि मेरी परिचित घर में सीढ़ी से गिर गयी हैं। फलाँ अस्पताल में हैं। मैं भागा-भागा अस्पताल गया। उनकी टाँग टूट गयी थी।
“क्या हुआ?”
“पूछिए मत। छत से उतर रही थी, कमबख्त पाँव मुड़ गया। फिर अंधेरा सा हो गया। वो तो भला हो, काम वाली घर पर ही थी। उसी ने पड़ोसियों को बुलाया। उसके बाद यहाँ पहुँच गयी। पता नहीं मेरी ही जिन्दगी में इतनी मुश्किलें क्यों हैं?”
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जब लोग दुख में होते हैं, तो अक्सर ये पूछते हैं कि मैं ही क्यों?
पर खुशी में कोई नहीं पूछता कि मैं ही क्यों? खैर, माँ कहा करती थी कि कभी किसी को गाली नहीं देनी चाहिए। गाली लंगड़ी होती है। वो बहुत दूर तक चल कर नहीं जा पाती। वो अपने आसपास ही मंडराती रह जाती है।
मेरी परिचित ने काम वाली से कहा था कि टाँग टूट जाती फिर पता चलता।
टाँग टूट गयी थी।
मुझे बहुत अफसोस है कि मेरी परिचित के साथ ऐसा हुआ। पर ऐसा हो जाता है। शब्द ऊर्जा हैं। ऊर्जा का न तो निर्माण होता है, न इनका क्षय होता है। बोलिए, बोलिए खूब बोलिए। पर सोच समझ कर।
इतने छोटे से सच को समझने के लिए संजय सिन्हा की कहानी पढ़ने की भी जरूरत नहीं। मैं जानता हूँ कि आपके आसपास ही कई सौ कहानियाँ बिखरी होंगी, जो आपकी जिन्दगी में उदाहरण की तरह होंगी।
काश, हम दूसरों के उदाहरण से ही कुछ सीखते!
(देश मंथन 22 फरवरी 2016)