आलोक पुराणिक, व्यंग्यकार :
Anil Upadhyay जी के सौजन्य से बरसों बाद अपन गमछित हुए।
गर्मियों में गमछा बहुतै काम आता है। मेरे कई शौकों में से एक शौक यह है कि दिल्ली में मुँह उठा कर किसी भी दिशा में निकल जाना, इंडिया गेट से लेकर रोहिणी से लेकर द्वारिका तक के किसी पब्लिक पार्क में सोते हुए, आधे जागते हुए जमाने के हाल पर गौर फरमाना।
गमछा चेहरे पर डाल लो, पार्क, फुटपाथ पर आराम से लेटात्मक अवस्था में जमा जा सकता है। अभी तक गमछे की जिम्मेदारी रुमाल पर थी, अब रुमाल को और अनिल उपाध्यायजी को धन्यवाद कहने का अवसर है। अनिलजी ने गाजियाबाद में विशद गमछा-संधान करते हुए एक ऐसी दुकान तलाश ली, जहाँ सिर्फ सस्ते और सुंदर ही नहीं टिकाऊ गमछे भी मिलते हैं।
बरसों से गमछे से एक कनेक्शन रहा, फिर लंबे अरसे से आगरा से गमछे आते रहे, फिर आगरा से गमछे मंगाने में दिक्कत होने लगी, तो बहुत लंबा वक्त गमछाविहीन भी गुजरा। दिल्ली में बरसों अपनी हीरो मोटरसाइकिल पर गमछायुक्त यात्राएँ की हैं। पर अब एक दिक्कतवाली सिचुएशन में पड़ गया हूँ। अपनी बुल्लेट बाइक पर गमछा टाँग कर निकलूँगा, तो कुछ-कुछ यूपी के लफंडर छात्र नेताओं सा फील आयेगा, बुलेट और गमछा कतई लफंडरात्मक फील देते हैं। लफंडर छात्र नेता में से मुझे सिर्फ छात्र होना स्वीकार है, जो कि मैं हूँ, बाकी लफंडर और नेता माने जाने में सख्त एतराज है मुझे। मेरी चिंता यह है कि बुलेट और गमछे की वजह से तमाम राजनीतिक दलों के वरिष्ठ लफंडर मेरे से कई उम्मीदें ना लगा लें।
गमछा व्यंग्यकार को जरूर पहनना चाहिए, क्यों, इसलिए कि अकसर व्यंग्यकार को ऐसे सवालों का जवाब देना पड़ जाता है-कि वो लेख तून्ने ही लिख्खा था ना। इस सवाल के जवाब में व्यंग्यकार गमछा ओढ़कर खंडन कर सकता है कि ना जी कुण सा लेख। मैं तो कतई गुब्बारे बेचा करुँ हूँ इंडिया गेट पे।
गमछा व्यंग्यकार के लिए इसलिए भी जरूरी है कि कई बार सुधी पाठक यह भी सुना देते हैं-क्या जी बहुतै कूड़ा लिख रहे हो आजकल। ऐसा सुन कर शर्म से गमछे में मुँह छिपाने की सुविधा गमछाधारी व्यंग्यकार को होती है।
यह छोटी सी गमछात्मक पोस्ट है, विराट गमछा पुराण इन दिनों अनिल उपाध्यायजी लिख रहे हैं।
वैधानिक चेतावनी-यह व्यंग्य नहीं है
(देश मंथन, 21 अप्रैल 2016)