संजय सिन्हा, संपादक, आजतक :
एक राजा था। वो अक्सर वेश बदल कर देर रात महल से निकलता और आम लोगों के बीच बैठ कर राजकाज की चर्चा छेड़ देता।
लोग राजा की जब तारीफ करते तो उसे अच्छा लगता। जब कहते कि राजा ने ये काम सही नहीं किया तो वो उसे सुधारने की कोशिश करता। आपके अपने काम के लिए इससे बेहतर तरीका फीडबैक पाने का नहीं हो सकता।
आदमी चाहे राजा न हो, पर उसकी मंशा रहती है कि उसके विषय में लोगों की राय क्या है, यह उसे पता चले। पर कैसे पता चले? मुँह पर कभी किसी को सच का पता नहीं चलता।
मैं भी रोज आपके लिए एक पोस्ट लिखता हूँ। आप लोग उस पर अपनी प्रतिक्रिया जताते हैं। संसार में शायद ऐसा पहली बार हुआ होगा, जब प्रतिक्रियाओं के आधार पर लोगों ने आपस में रिश्ते कायम किए और इस तरह एक दूसरे से जुड़े। मैं एक पोस्ट लिख कर चुप हो जाता हूँ, फिर उस पर कोई अपनी राय रखता, कोई उस कहानी को आगे बढ़ाता और इसी तरह टिप्पणियों का कारवाँ बढ़ता चला गया और देखते-देखते संजय सिन्हा फेसबुक परिवार खड़ा हो गया। मतलब इस वर्चुअल संसार पर सचमुच का जो परिवार खड़ा हुआ वो सिर्फ और सिर्फ विचारों के आधार पर खड़ा हुआ।
खैर, अभी मैं बात कर रहा था फीडबैक की।
आप लोग तो रोज कमेंट करते ही हैं। कुछ को मेरी कहानियाँ अच्छी लगती हैं, कुछ को नहीं लगतीं। पर सबसे आनंददायक घड़ी होती है, जब मेरी ही किसी कहानी को कोई मुझसे साझा करता है यह कहते हुए कि इसे पढ़िए ये बहुत अच्छी कहानी है।
मैं पढ़ता हूँ और मन ही मन मुस्कुराता हूँ। मेरी कई कहानियाँ एक-एक कर मेरे पास ही चल कर आईं।
उन्हीं में से एक कहानी है, जिसे कल मेरे पास जबलपुर के डॉक्टर Akhilesh Gumashta ने भेजी और लिखा कि इस कहानी में आपके स्टाइल खुशबू है।
मैं कहानी पढ़ कर काफी देर तक खुश होता रहा।
इसका मतलब ये हुआ कि मेरी कहानियाँ सचमुच फेसबुक के संसार से निकल कर दुनिया भर में टहल रही हैं। मैं रहूँ न रहूँ मेरी कहानियाँ रहेंगी। कुछ लोगों को याद आएगा कि ये तो संजय सिन्हा की कहानी है, कुछ लोग एक अनाम लेखक को मन ही मन शुक्रिया कहेंगे।
मैंने ये कहानी 16 सितंबर 2014 को यहीं फेसबुक पर लिखी थी। ये कहानी मेरी पत्नी के साथ हुई बातचीत थी।
जो लोग मुझसे पहले से जुड़े हैं, उन्हें ये कहानी याद होगी। पर जो लोग बाद में जुड़े मुमकिन है उन्होंने ये कहानी न पढ़ी हो। पत्नी के साथ हुई बातचीत को मैंने जस का तस यहाँ उकेर दिया था।
मेरी कई कहानियाँ तैर कर मुझ तक पहुँचीं, पर ये वाली कई बार पहुँची। पर जब डॉक्टर अखिलेश गुमाश्ता ने लिखा कि इसमें आपकी खुशबू है, तो मुझे पहली बार लगा कि जिस तरह उंगलियों के निशान से आदमी की पहचान होती है, उसी तरह शब्दों से भी आदमी की पहचान होती है।
आज मैं अपनी इसी कहानी को एकबार फिर आपके सामने रख रहा हूँ।
मुझे यकीन है कि जिन लोगों ने पहले मेरी कहानी पढ़ी है, उन्हें एक बार और पढ़ने में अच्छा लगेगा। जिन्होंने नहीं पढ़ी उनके लिए तो एकदम नई कहानी है। और जिन लोगों ने इधर-उधर से फॉर्वर्ड होने के कारण पढ़ी है, उन्हें यह जान कर कर खुशी मिलेगी कि ये उनके संजय सिन्हा की लिखी है।
***
मेरी पत्नी ने कुछ दिनों पहले घर की छत पर कुछ गमले रखवा दिए। फिर किसी नर्सरी से कुछ पौधे मंगवा कर छत पर ही उसने एक छोटा सा गार्डेन बना लिया। वो नियमित रूप से उनमें पानी देती है और माली को बुला कर खाद वगैरह डलवा देती है। शुरू-शुरू में मुझे उसकी इस हरकत पर हँसी आयी लेकिन ये सोच कर चुप रहा कि चलो कहीं तो अपना दिल लगा रही है। लेकिन पिछले दिनों मैं छत पर गया तो ये देख कर हैरान रह गया कि कई गमलों में फूल खिल गये हैं, नींबू के पौधे में दो नींबू भी लटके हुए हैं, और दो चार हरी मिर्च भी लटकी हुई नजर आयी।
मैं कुछ देर वहीं छत पर बैठ गया। उन पौधों की ओर देखता रहा। अचानक मैंने देखा कि मेरी पत्नी ने पिछले हफ्ते बाँस का जो पौधा गमले में लगाया था, उस गमले को घसीट कर दूसरे गमले के पास कर रही थी। गमला भारी था, और उसे ऐसा करने में मुश्किल आ रही थी। मैंने उसे रोकते हुए कहा कि गमला वहीं ठीक है, तुम उसे क्यो घसीट रही हो?
पत्नी ने मुझसे कहा, “संजय, यहाँ ये बाँस का पौधा सूख रहा है, इसे खिसका कर इस पौधे के पास कर देते हैं।” मैं हँस पड़ा और कहा, “अरे पौधा सूख रहा है तो खाद डालो, पानी डालो इसे खिसका कर किसी और पौधे के पास कर देने से क्या होगा?”
पत्नी ने मुस्कुराते हुए कहा, “ये पौधा यहाँ अकेला है इसलिए मुर्झा रहा है। इसे इस पौधे के पास कर देंगे तो ये फिर लहलहा उठेगा। पौधे अकेले में सूख जाते हैं, लेकिन उन्हें अगर किसी और पौधे का साथ मिल जाए तो जी उठते हैं।”
मेरी पत्नी बोल रही थी और मैं सुन रहा था। क्या सचमुच पौधे अकेले में सूख जाते हैं? क्या सचमुच पौधे को पौधे का साथ चाहिए होता है?
बहुत अजीब सी बात थी। मेरे लिए ये सुनना ही नया था। लेकिन सुन रहा था और फिर सोच रहा था। पत्नी गमले को खींच कर दूसरे गमले के पास करके खुश हो गई और मैं उस पौधे की ओर देख कर कहीं खो गया।
एक-एक कर कई तस्वीरें आखों के आगे बनती चली गईं। माँ की मौत के बाद पिताजी कैसे एक ही रात में बूढ़े, बहुत बूढ़े हो गये थे। हालाँकि माँ के जाने के बाद सोलह साल तक वो रहे, लेकिन सूखते हुए पौधे की तरह। माँ के रहते हुए जिस पिताजी को मैंने कभी उदास नही देखा था, वो माँ के जाने के बाद खामोश से हो गए थे। हालाँकि हमारे साथ वो हमारी तरह ही जीते थे, लेकिन कई बार मैंने उन्हें रात के अंधेरे में अकेले सुबकते हुए सुना था।
मेरी पत्नी कह रही थी, “अकेले में पौधे सारी रात सुबकते हैं।”
वो कह रही थी कि ये तो तुमने चौथी कक्षा में ही पढ़ लिया होगा कि पौधों में भी जान होती है, और जब जान होती है तो ये हँसते और रोते भी हैं। देखो न मिर्च कैसी लहलहा रही है, नींबू इस छोटे से गमले में भी कैसा फल रहा है। ये सब साथ का असर है। मिर्च के साथ नींबू और नींबू के साथ तरोई, तरोई के साथ सफेद फूल…
बाँस का पौधा जरा अलग सा था तो इसे माली ने अकेले में रख दिया था। माली ने ये सोचने की जहमत भी नहीं उठाई कि इतना छोटा पौधा अकेले में कैसे रह सकता है? देखो तो सही ये अकेला पौधा कितना डरा हुआ सा लग रहा है? बेचारा डर के मारे सूख रहा है। देखना कल से ये पौधा कैसे हरा नजर आने लगता है।
मुझे पत्नी के विश्वास पर पूरा विश्वास हो रहा था। लग रहा था कि सचमुच पौधे अकेले में सूख जाते होंगे। बचपन में मैं एक बार बाजार से एक छोटी सी रंगीन मछली खरीद कर लाया था और उसे शीशे के जार में पानी भर कर रख दिया था। मछली सारा दिन गुमसुम रही। मैंने उसके लिए खाना भी डाला, लेकिन वो चुपचाप इधर-उधर पानी में अनमना सा घूमती रही। सारा खाना जार की तलहटी में जाकर बैठ गया, मछली ने कुछ नहीं खाया। दो दिनों तक वो ऐसे ही रही, और एक सुबह मैंने देखा कि वो पानी की सतह पर उल्टी पड़ी थी। इस एक घटना के बाद मेरे मन से मछली पालने की इच्छा हमेशा के लिए खत्म हो गई। लेकिन आज मुझे घर में पाली वो छोटी सी मछली याद आ रही थी। बचपन में किसी ने मुझे ये नहीं बताया था कि एक मछली कभी बहुत दिनों तक नहीं जीती। अगर मालूम होता तो कम से कम दो या तीन या और ढेर सारी मछलियाँ खरीद लाता और मेरी वो प्यारी मछली यूँ तन्हा न मर जाती।
मुझे लगता है कि संसार में किसी को अकेलापन पसंद नहीं। आदमी हो या पौधा, हर किसी को किसी न किसी के साथ की जरूरत होती है।
आप अपने आसपास झाँकिए, अगर कहीं कोई अकेला दिखे तो उसे अपना साथ दीजिए, उसे मुर्झाने से बचाइए। अगर आप अकेले हों, तो आप भी किसी का साथ लीजिए, आप खुद को भी मुर्झाने से रोकिए। पहले भी लिखा था, आज दुहरा रहा हूँ कि अकेलापन संसार में सबसे बड़ी सजा है।
गमले के पौधे को तो हाथ से खींच कर एक दूसरे पौधे के पास किया जा सकता है, लेकिन आदमी को करीब लाने के लिए जरुरत होती है रिश्तों को समझने की, सहेजने की और समेटने की।
अगर मन के किसी कोने में आपको लगे कि जिन्दगी का रस सूख रहा है, जीवन मुर्झा रहा है तो उस पर रिश्तों के प्यार का रस डालिए। खुश रहिए और मुस्कुराइए। कोई यूं ही किसी और की गलती से आपसे दूर हो गया हो तो उसे अपने करीब लाने की कोशिश कीजिए और हो जाइए हरा-भरा।
(देश मंथन, 04 मई 2016)