पैसा अधिक आने से नयी पीढ़ी पर असर

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 संजय सिन्हा, संपादक, आजतक :

कभी-कभी ऐसा कुछ होता है कि आप सामने वाले से सिर्फ इतना ही कह पाते हैं, ‘वेरी गुड’। बहुत अच्छा किया आपने।
मेरी पहली दो लाइनों को पढ़ कर आप मन ही मन सोचेंगे कि संजय सिन्हा सुबह-सुबह पहली क्यों बुझा रहे हो, सीधे-सीधे मुद्दे पर क्यों नहीं आते।
सही बात है, सीधी बात का कोई मुकाबला नहीं होता।

मेरे एक परिचित के दोनों बच्चे इस बार गर्मी की छुट्टियों में विदेश घूमने गये हैं। दोनों बच्चे, मतलब बेटी और बेटा। बेटा अभी पाँचवीं कक्षा में पढ़ता है, बेटी दूसरी में। आप सोच सकते हैं कि इतने छोटे बच्चे विदेश घूम कर भी क्या देख और समझ पाएंगे। पर दोनों यूरोप गये हैं। करीब दो हफ्ते वो माँ-बाप और सभी रिश्तेदारों से दूर रहेंगे। जब मेरे परिचित ने मुझे इतने छोटे बच्चों के विदेश घूमने जाने की बात बताई थी, तो शुरू में मुझे ऐसा लगा कि वो स्कूल की ओर से विदेश यात्रा पर गये हैं। आजकल महानगरों में स्कूल वाले ऐसे ट्रिप का इंतजाम करते हैं, जिसमें पैसे वाले माँ-बाप अपने बच्चों को आत्मनिर्भर बनाने के लिए उन्हें अकेले यात्रा पर भेजते हैं। पर यह यात्रा स्कूल की ओर से नहीं थी।
फिर यह यात्रा किसकी ओर से हुई? मैंने सहज जिज्ञासावश अपने परिचित से पूछा कि इतने छोटे बच्चे अकेले विदेश गये हैं, उन्हें मैनेज कौन करेगा?
मेरे परिचित ने मुझे बताया कि आजकल ऐसी कई कंपनियाँ खुल गयी हैं, जो छोटे बच्चों को छुट्टियों में विदेश ले जाती हैं। हालाँकि वो पैसे अधिक लेती हैं, पर बच्चों का पूरा ध्यान रखती हैं। इस ट्रिप में करीब सौ बच्चे गये हैं। पाँच साल से लेकर दस साल तक के।
मैंने पूछा नहीं, पर पूछना चाह रहा था कि आपके बच्चों के दादा-दादी और नाना-नानी दोनों दिल्ली में ही रहते हैं, तो उन बच्चों को आपने उनके पास क्यों नहीं भेज दिया? मैंने नहीं पूछा क्योंकि मेरे परिचित के संबंध अपने ही माँ-बाप या सास-ससुर से बहुत अधिक नहीं है। ऐसा नहीं है कि उन्होंने मुझे इस बारे में बताया है, पर क्योंकि एक ही शहर में रह कर ये सभी अलग-अलग रहते हैं और बहुत कम बार ही मैंने इनका एक दूसरे के घर आना-जाना देखा या सुना है, इस आधार पर मैं यह निष्कर्ष निकाल रहा हूँ।
जब मेरी शादी हुई थी, तब मेरी पत्नी के पिता हमारे घर आते तो कुछ खाते-पीते नहीं थे। शुरू में मुझे बहुत हैरानी होती थी। मैंने अपने ससुर से पूछा तो उन्होंने बताया कि हमारे यहाँ बेटी के घर कुछ भी नहीं खाया जाता। मेरे लिए यह सांस्कृतिक आघात था। हमारे घर में तो हमने यही देखा था कि माँ के पिताजी को मेरे पिताजी अपने पिता की तरह मानते थे। हमारे घर में नाना-नानी और दादा-दादी में न पिता ने फर्क किया, न माँ ने। पिता की माँ मेरी माँ की माँ बन गयी थीं और माँ की माँ मेरे पिता की माँ।
पर यहाँ बेटी और बेटे के माँ-बाप में पता नहीं क्यों ऐसा अंतर मानसिक स्तर पर विकसित किया गया था।
खैर, मैंने अपनी पत्नी के पिता को समझाया कि हमारे यहाँ लड़की और लड़के के पिता में अंतर नहीं होता, तो आप जब भी आएंगे हमारे यहाँ खाना खाएंगे, पानी पिएंगे। धीरे-धीरे वो मान गये और जब तक रहे, हमारे पिता की तरह ही रहे।
मैं यह मानने को तैयार था कि भारतीय संस्कृति में लड़की के माँ-बाप अलग घर में रहते हैं, पर बेटों के माँ-बाप भी अलग रहते हैं, ऐसा सोचना मेरे लिए बहुत आसान नहीं था। मैं तो यही देख कर बहुत हैरान था कि किसी के माँ-बाप दिल्ली शहर में ही रहते हैं, पर अलग घर में रहते हैं। और आज मैं यह सुन कर आश्चर्यचकित था कि इतने छोटे-छोटे बच्चे गर्मी की छुट्टियों में विदेश घूमने गये हैं, दादा-दादी या नाना-नानी के पास नहीं।
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जब हम स्कूल में पढ़ते थे तो गर्मी, सर्दी या किसी भी ऐसी छुट्टियों में हम मचल उठते थे कि नानी के पास जाना है, बुआ के पास जाना है। दादी तो हमारे घर में ही रहती थीं। अगर हम किसी वजह से नहीं जा पाये तो हमारे रिश्तेदारों के बच्चे हमारे घर आते थे। हम पूरी छुट्टियाँ उन रिश्तेदारों के बच्चों और रिश्तेदारों के संग गुजारते। गर्मी की छुट्टियों का मतलब कोयल की कुहक सुनना, पेड़ों से आम का तोड़ना, भरी दुपहरिया में आई स्पाई (आइस-पाइस) खेलना और देर रात नानी की छाती से चिपक कर परियों की कहानी सुनना होता था।
नानी, बुआ का घर हमारे लिए लंदन और स्विटजरलैंड से ज्यादा ठंडा होता, ज्यादा शानदार होता।
अब मेरी नानी नहीं हैं। बुआ भी नहीं हैं। लंदन है, स्विटजरलैंड भी है। मैं न जाने कितनी बार लंदन और पूरा यूरोप घूमा हूँ, पर आज भी नानी और बुआ के घर को मिस करता हूँ।
छुट्टियों से लौट कर अपने घर आता तो दादी कहतीं कि अरे, संजू कमजोर हो गया है, नानी ने खाना ठीक से नहीं खिलाया क्या? यही बात जब नानी के घर जाता तो नानी कहतीं कि मेरा बेटा कितना कमजोर हो गया है, और दूध-दही-मक्खन का जोर शुरू हो जाता। मुझे पूरा यकीन है दोनों तरफ से मेरा वजन दो-दो किलो बढ़ जाता होगा, पर दादी और नानी की ठिठोली चलती रहती कि किसने उनके संजू का ज्यादा ध्यान रखा।
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मेरे परिचित कह रहे थे कि पैसे अधिक भले लगे, पर उनके बच्चों का पूरा ध्यान विदेश में रखा जा रहा है।
बच्चे आत्मनिर्भर बन रहे हैं। मुमकिन है कि मैं गलत होऊं, पर मुझे ऐसा लगता है कि मेरे परिचित के पिताजी ने भी अपने बच्चों को उनके बचपन में नानी, बुआ के घर नहीं भेजा होगा। भेजा होता तो आज वो एक ही शहर में रह कर अलग मकान में नहीं रह रहे होते।
मैं नहीं जानता कि मैं सही सोच रहा हूँ या गलत पर मैं सोच यही रहा हूँ कि पैसा अधिक आने का सबसे बड़ा खामियाजा हमारी नयी पीढ़ी ही उठाने जा रही है। उसका लालन-पालन हम जिस तरह कर रहे हैं, वो एक दिन गमले के पौधे बन जाएंगे।
गमले के पौधे चाहे जितने सुंदर हों, पर हकीकत में आत्मनिर्भर नहीं होते। गमले के पौधे चाहे जितने हरे-भरे दिखें, पर वो होते अकेले हैं।
(देश मंथन 07 जून 2016)

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