अपने बच्चों को आदमी बनाइए

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संजय सिन्हा, संपादक, आजतक :

आप मोनू भैया को नहीं जानते।

वो मेरे पिछले मुहल्ले में रहते हैं और मेरी उनसे मुलाकात होती रहती है। अब आप सोच रहे होंगे कि आज मैं सुबह-सुबह मोनू भैया की कहानी क्यों लेकर आपके पास आ गया हूँ।

वजह है। बहुत खास वजह है।

मैं आपको मोनू भैया की बात बताऊंगा, लेकिन पहले आपको सुनाता हूँ एक बहुत बड़ा सच।

सच ये है कि कुछ दिन पहले मेरे पुराने मुहल्ले में एक महिला की मृत्यु हो गयी थी। मैंने उसकी कहानी आपको सुनाई थी। महिला अकेली थी, उम्रदराज थी। मैंने आपको पहले बताया है कि महिला की चार बेटियाँ हैं और एक बेटा। बेटियाँ शादी करके अपने-अपने ससुराल में रह रही हैं, बेटा अमेरिका में।

आज मेरी कहानी रिश्तों के एक सूखे हुए वृक्ष पर आकर अटक गयी है। मैं चाहूँ तो आदमी के अकेलेपन पर पूरा उपन्यास ही लिख दूँ, पर सोचता हूँ कि अकेलेपन की कहानी भी कोई कहानी होती है क्या? कहानी तो रिश्तों की होती है।

पर यह सच है कि उस मां को पिछले बीस साल से बस मुहल्ले वालों का आसरा था। 

वो माँ अपने बेटे को पुकारती हुई इस संसार से चली गयी।

उस माँ का मर जाना मुझे रत्ती भर नहीं अखरा। मैंने उसके अकेलेपन को बहुत नजदीक से देखा और महसूस किया था, इसलिए मुझे हमेशा यही लगा कि उसे अपनी तन्हाई से मुक्ति मिली है। मुझे उसके बच्चों के किए पर बहुत गुस्सा नहीं था कि बच्चों ने मां को क्यों नहीं पूछा?

जो बात मुझे कचोट रही थी, वो ये कि मरने के बाद सभी लोग आकर रो रहे थे। मुझे जो बात कचोट रही थी, वो ये कि माँ की मौत के चार दिनों के बाद उनका बेटा भी अमेरिका से लाश से मिलने चला आया।

मैं इन बातों को सोच ही रहा था कि मेरी मुलाकात मोनू भैया से हुई।

मैं मोनू भैया के साथ खड़ा था कि किसी ने यूँ ही बातचीत में कहा कि इनके बच्चों ने अच्छा नहीं किया। माँ को अकेला छोड़ दिया और माँ अपने बेटे के गम में संसार से चली गयी।

मुझे लगता है कि अपनी पिछली कहानी में मैं आपको इतना सब बता चुका हूँ, सिवाय मोनू भैया ने जो कहा, उसके।

तो मेरे प्यारे परिजनों, मोनू भैया ने जब यह सुना तो उन्हों बहुत संयत स्वर में कहा कि ये बच्चों की गलती नहीं थी। बच्चों को ऐसी ट्रेनिंग ही नहीं दी गयी थी कि वो रिश्तों का मर्म समझ पाते। अगर शुरू से ही बच्चों को ये समझाया गया होता कि रिश्ते क्या होते हैं, इनकी अहमियत क्या होती है, तो शायद ये माँ अकेली नहीं होती।

अगर शुरू से ही बच्चों को बताया गया होता कि माँ की इज्जत करने के अलावा आपके पास विकल्प नहीं है, यह करना आपका संस्कार है, तो शायद बेटा बीस साल तक माँ को छोड़ कर यूँ अकेला नहीं रहा होता।

मोनू भैया धीरे-धीरे बोल रहे थे कि दुख इस बात का नहीं कि माँ अकेली थी। दुख इस बात का है कि जब माँ-बाप अपने बच्चों को रिश्तों का पाठ नहीं पढ़ाते तो सोचिए उन बच्चों का क्या होगा? वो इस बात से कम आहत थे कि महिला मर गयी, वो इस बात से अधिक आहत थे कि माँ-बाप ने बच्चों को जो ट्रेनिंग दी है, उसमें ये बच्चे भी जल्दी ही तन्हा हो जाएंगे। मोनू भैया कह रहे थे कि इन बच्चों के विषय में सोचिए, जिन्हें अभी कई वर्ष और इस संसार में रहना है। उनके दुख के विषय में सोचिए।

मैं हतप्रभ हो कर उनकी बातें सुन रहा था।

वो कह रहे थे कि बच्चों को छोटे में ही रिश्तों का पाठ पढ़ा देना चाहिए। उसे बता देना चाहिए कि रिश्ते सिर्फ संबोधन भर नहीं होते। उनके मायने होते हैं। उनमें संस्कार के बीज डालने की जिम्मेदारी माँ-बाप की ही होती है।

भैया बोल रहे थे, मैं सुन रहा था। वो फुसफुसा रहे थे कि बच्चे माँ-बाप के ही प्रतिनिधि होते हैं। जैसी शिक्षा हम देते हैं, वैसे बच्चे बड़े होकर बनते हैं। बच्चे जो भी हों, एक बार हर आदमी को अपने गिरेबाँ में जरूर झाँकना चाहिए कि उसे जो मिल रहा है, क्या वो उसके लिए दोषी नहीं?

मैंने बहुत सोचा। मुझे लगा कि यह एक कड़वा सत्य है। एक ऐसा सत्य जिसे स्वीकार करने और समझने के लिए थोड़ा मंथन की दरकार होती है।

सचमुच बच्चे वैसे ही होते हैं, जैसा उन्हें हम उन्हें बनाते हैं।

***

बहुत से माँ-बाप अपने स्वार्थ, अपने बड़े होने के अहसास, अपनी अमीरी, समय की कमी की वजह से बच्चों को शानदार स्कूल, शानदार कॉलेज में भेज कर नौकरी का पाठ तो पढ़ा देते हैं, पर उन्हें जिन्दगी का पाठ नहीं पढ़ाते। उन्हें ईंट से ईट जोड़ कर इमारत बनाने का पाठ तो पढ़ा देते हैं, पर आदमी को आदमी से जोड़ने का पाठ नहीं पढ़ाते। नतीजतन पहले ऐसे माँ-बार तन्हा होते हैं। बच्चों के मन में क्योंकि रिश्तों की कोपलें फूटती ही नहीं, इसलिए पहले वो माँ-बाप से दूर होते हैं, फिर एक दिन ऐसा आता है कि वो खुद तन्हा रह जाते हैं। मोनू भैया की बात सुनने से पहले मैं उन माँ-बाप के लिए रोता था, जो तन्हा मर जाते हैं। पर अब मैं उन बच्चों के बारे में सोच रहा हूँ कि माँ-बाप ने क्या शिक्षा दी है। 

आज मैं ऐसे माँ-बाप से गुहार लगा रहा हूँ कि प्लीज, अपने लिए न सही पर भावी पीढ़ी के लिए आप सोचिए। आप अपने बच्चों के साथ सदा नहीं रहेंगे। जब आप नहीं रहेंगे, तो उन बच्चों का कौन होगा, इस संसार में? 

यह तो बहुत छोटी सी बात है कि बचपन में उन्हें आपने रिश्तों से दूर किया, जवानी में वो आपको छोड़ ग्ये। बड़ी बात ये है कि उन बच्चों का भी वही होगा, जो आपका हुआ। मोनू भैया से मिले ज्ञान के बाद रिश्तों वाले बाबा संजय सिन्हा की सुनिए- डॉक्टर, इंजीनियर, आर्किटेक्ट, आईएएस, आईपीएस और न जाने क्या-क्या आप अपने बच्चों को बना देते हैं, पर इससे उनका कोई फायदा नहीं। आप पहले उन्हें आदमी बनाइए। अपने लिए नहीं, उन्हीं की जिन्दगी सुगम हो, इसके लिए।

(देश मंथन 18 जून 2016)

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