आलोक पुराणिक, व्यंग्यकार :
एटीएम औकात पहचानता है-उस दिन मैंने पाँच सौ रुपये एटीएम से निकाले, तो सौ-सौ के पाँच नोट निकले। यह नहीं कि एटीएम पाँच सौ का नोट निकाल देता। एटीएम सोचता है कि पाँच सौ रुपये के लिए मेरे होल में आया यह बंदा, एक झटके में ही पाँच सौ खर्चने की औकात और जरूरत ना होगी इसकी, सौ-सौ के नोट ही देना बेहतर। वरना पाँच सौ के छुट्टे कराने में और परेशान होगा।
एटीएम से डील करने में इज्जत बची रहती है, इंसानों के आगे तो कई बार बेइज्जती खराब हो जाती है। एक बैंक में अकाउंट था मेरा, पाँच सौ रुपये निकालने होते थे मुझे, मतलब इतने ही पड़े होते थे एकाउंट में। उस बैंक के कैशियर मुझे एक अखबार में छपे मेरे फोटू की वजह से जानते थे और इस गलतफहमी में गिरफ्तार थे कि अखबार में जिसकी फोटू छपती है, वह बड़ा आदमी होता है। बाद में उन्हे समझाया कि वांटेड-अपराधी, नेता और लेखक तीनों की फोटुएं नियमित तौर पर अखबार में छपती हैं, पर बड़े आदमी सिर्फ वांटेड-अपराधी और नेता ही होते हैं।
वह कैशियर सज्जन मुझसे वर्ल्ड बैंक- अर्थव्यवस्था की हालत पर गंभीर बहस छेड़ देते और फिर मुझसे पूछते, कैसे आना हुआ।
अब अरबों की डिबेट के बाद मैं शर्म से कह ना पाता था-पाँच सौ रुपये निकालने हैं। बिना पाँच सौ लिये वापस आ जाता था।
अब एटीएम के सामने तनकर पाँच सौ रुपये निकालता हूँ, एटीएम के सामने बंदा बेशर्मी की हद बेतकल्लुफ हो सकता है।
एक बार मैंने हजार रुपये का चेक अपने बैंक में लगाया था क्लियर होने के लिए। उस बैंक में एक दिन में तीन बार जा कर कन्फर्म किया कि रकम मेरे खाते में आयी कि नहीं। इन्क्वायरीवाले क्लर्क के चेहरे पर वह भाव होता था, जो अमेरिकन राष्ट्रपति के चेहरे पर पाकिस्तानी पीएम को खैरात देते वक्त होता है।
अब एटीएम पर पाँच बार कनफर्म कर लो कि चेक आया कि नहीं, बेइज्जती खराब नहीं होती।
जब कोई कहता है कि एटीएम बैंक में लाइन में वेस्ट होनेवाला टाइम बचाता है, तो मन होता है कि कह दूँ यह उनकी इज्जत भी बचा लेता है, जिनकी इज्जत यूँ है नहीं।
(देश मंथन 28 जुलाई 2016)