आलोक पुराणिक, व्यंग्यकार :
निवेदन-यह व्यंग्य मूलत चालीस के उस पार की आदरणीयाओं के लिए है।
ऐसी कल्पना उभरती है कि जब परमात्मा ने पूरी सृष्टि बना ली होगी, तमाम रंग बना लिये होंगे, तो तब मिसेज परमात्मा को बुलाकर वे रंग दिखाये होंगे। परमात्मा ने मिसेज परमात्मा से कहा होगा बताओ इन रंगों का क्या करें। मिसेज परमात्मा ने निश्चित तौर पर कहा होगा-इतने सारे रंगों की साड़ियाँ होनी चाहिए। सिर्फ इतने ही रंगों की क्यों, इन रंगों को मिक्स कर दिया जाये, फिर जितने किस्म के शेड बनें, उन सबकी साड़ियाँ होनी चाहिए।
परमात्मा को रंगों का उद्देश्य समझ में आ गया होगा।
एक और कल्पना उभरती है सम्राट अकबर गुजरात फतह करके लौटे हैं। फतेहपुरसीकरी में जोधाबाई स्वागत करते हुए पूछ रही हैं सूरत की स्पेशल प्रिंट की साड़ियाँ लाये या नहीं।
अकबर घबरा रहे हैं, बड़े-बड़े सूरमा निपटा दिये। पर ये स्पेशल प्रिंट की साड़ियाँ नहीं निपट पायीं।
बड़े-बड़े युद्धवीर इस मोर्चे पर धराशायी हुए हैं।
साड़ी कितना संवेदनशील विषय है, यह हर विवाहित जानता है।
साड़ी दरअसल लेख का नहीं, किताब का विषय है। इस खाकसार ने कोशिश की कि पुराने विद्वानों द्वारा इस मसले पर व्यक्त की राय को समझे। पर यह जानकर बहुत निराशा हुई कि बहुत बड़े विद्वान भी साड़ी के मसले पर साइलेंट हैं। यानी इस विषय को सिर्फ तजुरबे से ही समझा जा सकता है।
हर विवाहित बंदे को जीवन में एक बार सूरत जरूर जाना चाहिए। वहाँ एक साड़ी बाजार है। साड़ियाँ ही साड़ियाँ, तरह-तरह की साड़ियाँ। यहाँ आकर संयम, धैर्य के ऐसे पाठ पढ़े जा सकते हैं, जो कहीं और उपलब्ध नहीं हैं।
कुछ सीन इस प्रकार हैं-साड़ी की दुकान में आदरणीया घुसी हैं।
कुछ सिल्क में काले रंग की दिखाइए।
जी बिलकुल, देखिये। ये काले रंग की हैं, बहुत सारी।
नहीं कुछ स्पेशल टाइप का काला दिखाइए।
देखिये ये वाली साऊथ इंडियन काली है, वो वाली अफ्रीकन काली है। देखिये स्पेशल आज ही आयी हैं।
नहीं ये वाली वैसी वाली काली नहीं हैं, जैसी मुझे चाहिए।
आपको कैसी चाहिए।
देखिये मुझे स्पेशल काली चाहिए। वो वो देखिये, वो वाला कलर हाँ, वो निकालिये।
देखिये वो काली साड़ी नहीं है, वो गंदा कपड़ा है, दुकान की सफाई इससे करते हैं। यह सूती है।
ठीक इसी शेड की आप मुझे सिल्क में नहीं दिखा सकते।
दुकानदार का मुँह गिरे सेनसेक्स की तरह हो गया है।
दुकानदार के सारे सेल्समैन फिर चौकस हो गये हैं, मुस्कुराते हुए, अगली आदरणीया से निपटने के लिए।
मैंने पूछा-भाई निराश नहीं होते, इस तरह के वाकयों से। दिन भर यही सब कैसे झेलते हो।
दुकानदार एकदम फिलोस्फिकल हो जाता है-साड़ीप्रस्तुताधिकारस्ते, मा उनकी पसंद कदाचना। यानी हमारा अधिकार सिर्फ साड़ी प्रस्तुत करने भर का है, वह उन्हे पसंद आयेगी या नही, इस पर हमारा अधिकार नहीं है।
गुस्सैल, बहुत अधीर टाइप के बंदों को एक हफ्ते के लिए साड़ी बेचने की ट्रेनिंग देनी चाहिए। अकल एकदम ठिकाने आ जायेगी, जब कुछ इस टाइप के सीन से पाला पड़ेगा।
आदरणीया दुकान में घुसी हैं और एक साथ सब तरफ निगाह डाली है और कहा कि वो वाला शेड, इस डिजाइन में, उस फिनिश में, इस कपड़े में और उस प्राइज में चाहिए।
भारतीय विदेश सेवा के अफसर जब पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर पर बातचीत करने जाते हैं, तो उन्हे भी तमाम तरह की शर्तों का सामना करना पड़ता है।
आदरणीया कह रही हैं-डिजाइन तो ठीक है, पर कलर वो वाला चाहिए।
ये लीजिये वो वाला कलर इस डिजाइन में।
पर देखिये वो वाला स्टफ नहीं है।
नहीं वो ही वाला स्टफ है।
लग नहीं रहा है।
अब कोई क्या करे।
मुश्किल बातचीत को कैसे आगे बढ़ायें, इस विषय पर प्रशिक्षण के भारतीय विदेश सेवा के नये पुराने कूटनीतिकों को साड़ी बिक्री केंद्रों में भेजा जाना चाहिए।
पुराने टाइप के पतियों के लिए तो यह सीन भी परिचित सा होगा-
अच्छा बताओ, कैसी लग रही है यह।
बहुत अच्छी, ग्रेट।
और ये वाली।
बहुत अच्छी, बहुत ही अच्छी।
पर जो साड़ी वह लेती हैं, वह कोई तीसरी या चौथी होती है।
जब तुम्हे अपने ही मन की लेनी होती है, तब तुम मुझसे पूछती क्यों हो-पति शिकायत करता है।
कन्फर्म करने के लिए कि तुम्हारी चाइस घटिया है। मुझे वो साडियाँ घटिया लग रही थीं, तुम्हारी राय से तुम्हारा घटियापन जाहिर हो गया। तुम घटिया, तुम्हारी साड़ी घटिया।
खैर चलूँ, सूरत जा रहा हूँ, साड़ी की दुकानों पर बैठकर धैर्य और संयम हासिल करुंगा।
(देश मंथन 11 अगस्त 2016)