संजय सिन्हा, संपादक, आजतक :
गाँव का एक आदमी मुंबई गया था और वहाँ वो ऊंची-ऊंची इमारतों को देख कर हैरान था।
हे भगवान! इतनी ऊंची इमारत? लगता है सीधे स्वर्ग लोक तक ही ये पहुंच रही है। अपनी हैरानी में खोया हुआ वो एक ऊंची इमारत को देख रहा था, तभी एक ठग वहाँ पहुंचा और उस आदमी से पूछा कि तुम गाँव से उठ कर पहली बार मुंबई आये हो क्या?
आदमी ने कहा, “हाँ।”
ठग ने उसे रोक लिया और कहने लगा कि तुम यहाँ क्या देख रहे हो?
आदमी ने कहा, “इस ऊंची इमारत को देख रहा हूँ। कितनी ऊंची है ये। लग रहा है जैसे आसमान में घुस गयी हो।”
ठग ने उससे कहा कि क्या तुम्हें नहीं पता कि यहाँ ऐसे मुफ्त में इतनी ऊंची इमारत तुम नहीं देख सकते? इसके पैसे लगते हैं। हर मंजिल के दस रुपये। तुमने कितनी मंजिल देख ली?
गाँव का आदमी जो अब तक हैरान था, अब परेशान हुआ। उसने आँखें नीची करके कहा कि उसने सिर्फ छह मंजिल तक ही देखे हैं।
ठग ने कहा कि निकालो साठ रुपये।
आदमी ने साठ रुपये उसे दिए और बहुत खुश हो कर चलता बना। मन ही मन वो खुश था कि उसने देखने को तो बीस मंजिल से अधिक देख ली थी, लेकिन मुंबई के लोग कितने सीधे और सच्चे हैं जो छह मंजिल बताने पर उसे ही सच मान बैठे।
मुझे पता है कि आपने ये चुटकुला सौ बार नहीं, तो पचास बार जरूर सुना होगा। पर संजय सिन्हा जब कोई सुना हुआ चुटकुला भी सुनाते हैं, तो उसका कुछ मतलब होता है।
पिछले हफ्ते मेरी भांजी की स्कूटी को एक गाड़ी वाले ने धीरे से टक्कर मार दी थी। स्कूटी भांजी के पाँव पर गिर गयी और उसके पाँव की हड्डी टूट गई। अस्पताल में भर्ती कराया गया, एक्स रे हुआ। डॉक्टर ने कहा कि बहुत अधिक चोट लगी है। ये वाली हड्डी तो पूरी टूट गयी है, इसमें तीन प्लेट लगेंगी और एक क्लिप है। सब लोग परेशान थे। शहर के सबसे बड़े अस्पताल में ऑपरेशन की तैयारी शुरू हुई। डॉक्टर ने तीन प्लेट मंगाये, कुछ नट-वोल्ट भी लाये गये। कहा गया कि प्लेट तो डलेगी ही डलेगी, एक क्लिप भी डालनी है।
लो जी, सारा सामान आ गया। डॉक्टर ने कहा कि बहुत मेजर ऑपरेशन है। काफी समय लगेगा। काफी दिनों तक अस्पताल में रहना होगा।
सभी बहुत परेशान थे। डॉक्टर ने भरोसा दिया कि सब ठीक हो जाएगा, आप लोग बस दुआ करें।
सब लोग दुआ कर रहे थे। ऑपरेशन हो गया। ऑपरेशन के बाद डॉक्टर बाहर आया और उसने कहा कि सब ठीक हो गया है। आप मरीज को कल ही ले जा सकते हैं। मैंने तीन प्लेट और एक क्लिप लगाने की बात कही थी, पर ईश्वर की मेहरबानी से दो ही प्लेट लगे। सबकुछ ठीक हो गया। एक प्लेट वापस हो जाएगा।
मेरी दीदी बहुत खुश थी। उसने मुझे फोन किया कि बहुत ही अच्छा डॉक्टर मिल गया था। जिस काम में पूरा दिन लगना था, उसने आधे में कर दिया। प्लेट भी तीन मंगाये थे, दो ही लगाये। कहा था कि कई दिन अस्पताल में रहना होगा, पर अगले ही दिन उसने घर भेज दिया।
मुझे याद आया। आजकल अगर आप कार सर्विस के लिए ले जाते हैं, तो वहाँ आपको एक अनुमानित खर्च लिख कर दिया जाता है। जैसे मेरी कार के लिए दस हजार रुपये लिख कर दिए। मैं मनोवैज्ञानिक रूप से दस हजार रुपये देने के लिए तैयार हो जाता हूँ। लेकिन जब मैं सर्विस के बाद कार लेने जाता हूँ तो वहाँ बिल मुझे दस हजार की जगह आठ हजार ही देने पड़ते हैं।
पहली बार जब ऐसा हुआ था, तब मुझे लगा था कि ये सर्विस वाला कितना ईमानदार है। दो हजार रुपये नहीं लगे, तो उसने नहीं लिए। मेरा भरोसा उस पर कायम हो गया था।
बाद में मुझे वहीं काम करने वाले एक मेकैनिक ने बताया कि सर खर्च तो चार हजार ही हुए। उसने आपको दस हजार बता कर आठ लिए, इसलिए आप खुश हो रहे हैं।
वैसे अब ये फार्मूला हर कार सर्विस वाले अपना रहे हैं। जितना खर्च बताएंगे, उससे कम लेंगे। इससे हमें मनोवैज्ञानिक राहत मिलती है। उतनी ही राहत जितनी मुंबई में गाँव के उस आदमी को बीस मंजिल इमारत देखने के बाद छह मंजिल बता कर मिली थी। जितनी कि मेरी दीदी को तीन की जगह दो प्लेट डलने पर खुशी हुई। जितनी कि गाड़ी सर्विस के लिए दस की जगह आठ हजार रुपये देने पर संजय सिन्हा को होती है।
ध्यान रहे, मुंबई के ठग आजकल हर जगह घूम रहे हैं। पर हम करें तो क्या करें। हम तो बस उनकी ईमानदारी पर खुश हो सकते हैं।
(देश मंथन, 27 मार्च 2016)