देश मंथन डेस्क
हिंदी लेखक उर्फ बकरी

आलोक पुराणिक :
दिल्ली में इंटरनेशनल बुक फेयर शुरू होनेवाला है। पढ़ने-लिखने से जुड़ा विमर्श कई शैक्षिक संस्थानों में शुरू हुआ है।
एक को जिताया दूसरे को जगाया

दीपक शर्मा :
जो अडवाणी नहीं कह पाये, जो जोशी नहीं कह पाये, जो सुषमा, गडकरी और राजनाथ नहीं कह पाये .....वो दिल्ली की जनता ने कह दिया।
ये पहला मौका है, जब किसी जनादेश ने एक तीर से दो शिकार किये हैं। एक फैसले से दो मकाम हासिल किये हैं। एक बटन से उम्मीद के दो बल्ब जलाये हैं।
दिल्ली के नतीजे और सियासी वादों के निहितार्थ

राजीव रंजन झा :
दिल्ली विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी की आंधी नजर आ रही है और इस आंधी के कारण देश भर में गलत मायने निकाले जाने का खतरा भी महसूस हो रहा है।
जोश और अनुभव से मिलती है जीत

संजय सिन्हा :
ये कहानी भी माँ ने ही सुनाई होगी, वर्ना और कहाँ से कहानी सुन सकता था मैं, लेकिन ये कहानी मुझे अधूरी सी याद है।
दिल्ली चुनाव : आमचा विश्वास पानीपतात गेला

राजेश रपरिया :
दिल्ली में आये केजरी भूकंप से मौजूदा सत्ताधारी दलों और विपक्षी दलों का भरोसा हिल गया है। मोदी और अमित शाह के बूथ स्तर के माइक्रो मैनेजमेंट का इतना हौव्वा था कि वोटों की गिनती से पहले भाजपा हार मानने को तैयार नहीं थी, जबकि भाजपा की हार इतनी साफ दिखायी दे रही थी कि अंधा भी दीवार पर पढ़ सकता था। लेकिन मोदी ने 2002 के बाद से कोई भी बड़ा चुनाव नहीं हारा है।
षडयंत्र और छल में बहुत ताकत होती है

संजय सिन्हा :
मुझे लगता है कि अगर राणा सांगा को उन्हीं के एक मंत्री ने छल से जहर नहीं दे दिया होता तो बाबर कभी दिल्ली पर शासन नहीं कर पाता।
बॉलीवुड के पोर्न-कारोबारियों को रेपिस्टों जैसी सजा मिले

अभिरंजन कुमार :
इंटरनेट, टीवी और फिल्मों के जरिए बेलगाम फैलाई जा रही अश्लीलता हमारे लिए बड़ी चिंता का मसला है, लेकिन AIB विवाद ने हमारी चेतना को झकझोर कर रख दिया है, इसलिये इसे लेकर मैं तल्खतम टिप्पणी करना चाहता हूं।
चुनावी परिदृश्य में छाये हैं सर्वेक्षण, लापता है जनता

संदीप त्रिपाठी :
दिल्ली विधानसभा चुनाव प्रचार एक बड़े मंच पर चल रहा राजनीतिक प्रहसन बन चुका है। इसमें मुख्य कलाकार राजनीतिक दलों के नेता और निजी न्यूज चैनल व मीडिया बने हुये हैं। अगर कोई परिदृश्य से गायब है तो वह जनता है।
दिल्ली चुनाव और दिल की बात

अभिरंजन कुमार :
दिल्ली में कोई जीते, कोई हारे, मुझे व्यक्तिगत न उसकी कोई ख़ुशी होगी, न कोई ग़म होगा, क्योंकि मुझे मैदान में मौजूद सभी पार्टियां एक ही जैसी लग रही हैं। अगर मैं दिल्ली में वोटर होता, तो लोकसभा चुनाव की तरह, इस विधानसभा चुनाव में भी "नोटा" ही दबाता।
क्यों शानदार चुटकुला है “पाँच साल केजरीवाल”!

राजीव रंजन झा :
केजरीवाल हमेशा अपने लिए नयी मंजिलें तय करते आये हैं। उनकी हर मंजिल की एक मियाद होती है। जब तक उसकी अहमियत होती है, तभी तक वहाँ टिकते हैं। नौकरी तब तक की, जब तक थोड़ा रुतबा हासिल करने के लिए जरूरी थी। एनजीओ तब तक चलाया, जब तक उससे एक सामाजिक छवि बन जाये। आंदोलन तब तक चलाया, जब तक राजनीतिक दल बनाने लायक समर्थक जुट जायें।