महागठबंधन की किलेबंदी में दरारें

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संदीप त्रिपाठी :

बिहार में आगामी विधानसभा चुनाव की दृष्टि से हालात रोमांचक होते जा रहे हैं। सीध-सीधे दो खेमे दिख रहे हैं। लोकसभा चुनाव में भाजपा नीत राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) की बढ़त से घबराये जनता दल यू नेता नीतीश कुमार ने विधानसभा की जंग जीतने के लिए हरसंभव रणनीति अपनायी। जिस लालू प्रसाद यादव के विरोध के आधार पर अपनी छवि गढ़ी, उसी लालू यादव से हाथ मिला लिया, महागठबंधन के तहत 140 से ज्यादा सीटों पर लड़ने की जिद छोड़ महज 100 सीटों पर लड़ने का समझौता कर लिया।

जिस प्रचार शैली के लिए प्रधान मन्त्री नरेन्द्र मोदी को कोसते नहीं अघाते थे, उसी प्रचार शैली के शिल्पकार प्रशान्त किशोर को अपने प्रचार का जिम्मा दे दिया, मोदी के ट्विट करने का मजाक उड़ाते-उड़ाते खुद ट्विटर पर आ गये। यानी अब तक नीतीश ने जो करने और न करने को लेकर अपनी छवि गढ़ी थी, चुनावी जंग जीतने के लिए उन सब आधारों को अपने हाथों नेस्तनाबूंद करने से पीछे नहीं हटे। नीतीश ने यह सब कर के जताया कि “कुछ भी” करना पड़े, उन्हें हर हाल में येन-केन-प्रकारेण जीत ही चाहिए।

राजद-जदयू-कांग्रेस-राकांपा के महागठबंधन के सामने विधानसभा चुनाव की दृष्टि से दो मुख्य अड़चनें थीं। पहला तो यह कि गठबंधन का नेता कौन होगा, दूसरे, कौन सी पार्टी कितनी सीटों पर अपने प्रत्याशी लड़ायेगी। महागठबंधन ने इन दोनों मुद्दों का अपनी ओर से समाधान कर लिया। इसके बाद से विधानसभा चुनाव की जंग रोमांचक हो उठी। अब दोनों खेमों के बीच अच्छी टक्कर होने की उम्मीद है (अगर चुनाव आते-आते कोई खास बयान न बह जाये)। महागठबंधन की ओर से सीट समझौता हो जाने के बाद आम तौर पर नीतीश खेमा लोकसभा चुनाव में पड़े मतों के प्रतिशत के योग के आधार पर यह भरोसा कर लेना चाहता है कि जीत उसकी झोली में है।

राकांपा की नाराजगी

लेकिन यह तो एक पक्ष है। नीतीश की इन सारी कवायदों के क्या सिर्फ वही अर्थ हैं जो दिखाये या बताये जा रहे हैं? महागठबंधन के एक घटक राकांपा ने साफ कर दिया है कि उसके हिस्से छोड़ी गयी तीन सीटों से वह संतुष्ट नहीं है और वह महागठबंधन से अलग होने पर फैसला ले सकती है। बिहार में राकांपा के सबसे बड़े नेता तारिक अनवर हैं। वे फिलहाल कटिहार से सांसद हैं। कटिहार यानी बिहार का सीमांचल-कोसी क्षेत्र। यह वही क्षेत्र है जहाँ के मतदाताओं ने लोकसभा चुनाव में पूरे प्रदेश में बह रही मोदी लहर को लगाम लगा दी थी। इस क्षेत्र की एक और खासियत है, यहाँ अल्पसंख्यक आबादी बहुत ज्यादा है यानी एक तिहाई के आसपास। बिहार में लोकसभा चुनाव के दौरान भाजपा जिन आठ सीटों पर हारी थी, उनमें सात इसी क्षेत्र से थीं।

पप्पू यादव का फैक्टर

इसी क्षेत्र से एक प्रभावी स्थानीय नेता हैं, पप्पू यादव। लोकसभा चुनाव के दौरान वे लालू यादव के राष्ट्रीय जनता दल में थे। वे खुद मधेपुरा से जदयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष शरद यादव को हरा कर जीते और पड़ोस की सुपौल सीट से उनकी पत्नी रंजीता रंजन ने बतौर कांग्रेस उम्मीदवार जीत दर्ज की थी। पप्पू यादव का असर पूर्णिया, अररिया, कटिहार, किशनगंज संसदीय सीटों पर भी है। बीते एक साल में पप्पू यादव ने गरीब जनता के कई सवालों पर बड़ी लड़ाई लड़ी, जिससे उनका असर भी बढ़ा, लेकिन अब उन्होंने नेतृत्व और नीतीश से समझौते के चलते लालू का साथ छोड़ दिया है। यानी पूरे बिहार में भाजपा नीत गठबंधन के लिए जो क्षेत्र सबसे कमजोर साबित हुआ था, वहाँ महागठबंधन भी अपनी सामर्थ्य खो बैठा है।

माँझी की पतवार

एक कोण जीतन राम माँझी ने भी बनाया है। माँझी ने अपने मुख्य मन्त्री काल का इस्तेमाल दलितों का नेता बनने में कर ही लिया है। माँझी को मुख्य मन्त्री पद से बेआबरू कर के हटाने जाने और फिर माँझी के एनडीए का हिस्सा बन जाने से दलित मतदाताओं का एक हिस्सा भी नीतीश-लालू के महागठबंधन के खिलाफ खड़ा हो सकता है। यह वे दलित मतदाता होंगे जो आम तौर पर भाजपा के खिलाफ हुआ करते थे।

समाजवादी पार्टी का गुस्सा

नीतीश-लालू के महागठबंधन के खिलाफ एक और बात जाती दिख रही है। सीट समझौते में इन्होंने मुलायम सिंह की समाजवादी पार्टी के लिए कोई सीट नहीं छोड़ी है। स्मरण रहे, समाजवादी नेताओं के कल्पित महागठबंधन का राष्ट्रीय मुखिया मुलायम सिंह यादव को ही बनाया गया है। महागठबंधन में सीट समझौता घोषित होने के बाद समाजवादी पार्टी के नेतागण नाराज हैं। समाजवादी पार्टी दोनों मुख्यगठबंधनों से इतर दलों को एकजुट कर एक अलग गठबंधन बनाने की फिराक में है। इस संभावित गठबंधन को जो भी वोट मिलेंगे, वे भाजपा विरोधी वोट ही होंगे। यानी इससे नुकसान नीतीश-लालू के महागठबंधन को ही होना है।

औवेसी का प्रवेश

एक कोण एमआईएम के नेता असाउद्दीन ओवैसी भी हैं। मुसलमानों के हित और सवालों पर मुखर रहने वाले ओवैसी ने बिहार विधानसभा चुनाव में अपनी जगह तलाशनी शुरू कर दी है। अल्पसंख्यकों के एक खास तबके में उनका क्या असर होगा और इस असर से किस गठबंधन की संभावनाएँ कमजोर या मजबूत होंगी, यह देखने वाली बात होगी, लेकिन यहाँ यह बात कयास लगाने पर मजबूर करती है कि सीमांचल-कोसी क्षेत्र, जिसे विधानसभा चुनाव की दृष्टि से भाजपा नीत गठबंधन के लिए सबसे कमजोर क्षेत्र माना जा रहा है, वहाँ प्रतिद्वंद्वी महागठबंधन के लिए मुश्किलें ही मुश्किलें हैं।

एक महत्वपूर्ण कोण यह भी है कि महागठबंधन के सीट समझौते से राजद और जदयू के जमीनी कार्यकर्ता खुश नहीं हैं। विगत 23-24 साल से आमने-सामने रहे ये कार्यकर्ता ऐन चुनाव से पूर्व एक-दूसरे को समर्थन दे पाने की स्थिति मं- नहीं आ रहे हैं। यानी महागठबंधन को अभी एक बड़ी लड़ाई प्रत्याशी चयन के वक्त लड़नी होगी। निश्चित तौर पर 100-100 सीटों पर लड़ने की स्थिति में कई क्षेत्रों में दोनों दलों के स्थानीय नेताओं, जो अच्छा प्रभाव रखते हैं और कार्यकर्ता भी उनके साथ है, की बगावत से जूझना होगा। दूसरे, गठबंधन के दूसरे दलों के कार्यकर्ता गठबंधन के अधिकृत प्रत्याशी को कितना समर्थन देंगे या चुनाव/मतदान के दौरान क्या रणनीति अपनायेंगे, यह भी बहुत महत्वपूर्ण होगा।

(देश मंथन, 17 अगस्त  2015)

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