क़मर वाहिद नक़वी, वरिष्ठ पत्रकार :
तो आपका समय शुरू होता है अब! और ‘हॉट सीट’ पर हैं, नरेन्द्र मोदी, राहुल गाँधी, नीतीश कुमार और अरविन्द केजरीवाल! 2015 कोई मामूली साल नहीं है, जो हर साल की तरह बस आयेगा और चला जायेगा! यह लकीरों के बनने-बनाने और मिटने-मिटाने का साल है! इस साल को तय करना है कि देश किन लकीरों पर चलेगा?
और इस साल को यह भी तय करना है कि राजनीति की नयी तसवीर क्या होगी? जाने या अनजाने, इस बार नये साल पर उर्दू शायर अमीर क़ज़लबाश की मशहूर ग़ज़ल का यह शेर ख़ूब चर्चा में रहा–‘यकुम (एक) जनवरी है नया साल है, दिसंबर में पूछूँगा क्या हाल है?’
बड़े और कड़े मंथन का साल
वाकई, इस बार 2015 के दिसम्बर में पूछना ही पड़ेगा कि क्या हाल है? कम से कम उन चार लोगों से, जिनके नाम शुरू में लिए गये हैं! 2015 एक बड़े और कड़े मंथन का साल होगा। इस साल बहुत कुछ होना है, बहुत कुछ दाँव पर है, बहुत कुछ मँझधार में है! इस पार या उस पार? इधर या उधर या किधर?
मोदी सरकार 7 महीने पूरे कर चुकी अब सरकार को काम करके दिखाना है! 2015 सरकार के काम का साल होगा। लोग देखना चाहेंगे कि नमो ने चुनाव से पहले विकास का जो बड़ा चमकीला-तड़कीला ख़ाका खींचा था, उसे पाने के लिए सरकार के पास कोई ‘रोडमैप’ है क्या? लोग बड़ी उम्मीद से हैं। दो महीने बाद सरकार को बजट पेश करना है, क्या सरकार के पास अर्थव्यवस्था के लिए कुछ बड़े आइडिया हैं?
चुनौती घर के भीतर से
2015 में मोदी के लिए सबसे बड़ी चुनौती यही होगी कि विकास का पहिया तेज़ी से कैसे घूमे? सरकार अभी तक ठोस तरीक़े से इस पर बढ़ ही नहीं पायी है. हालाँकि मोदी ने अपने तमाम दूसरे कामों से लोगों की उम्मीदें बनाये रखी हैं, जैसे विदेश नीति में उन्होंने ज़बर्दस्त रंग जमाया है।
पाकिस्तानी घुसपैठ के ख़िलाफ उनकी नीति भी लोगों को जमी. स्वच्छ भारत अभियान और प्रधानमंत्री जन-धन योजना को भी सरकार अपनी उपलब्धियों में गिनाती है। यह दोनों योजनाएँ नयी नहीं हैं, पहले से चल रही थीं, लेकिन सरकार ने इनकी आकर्षक पैकेजिंग और ‘रि-ब्राँडिंग’ कर दी! योजना आयोग अब नीति आयोग बन चुका है।
उधर, सरकार की क़िस्मत वाक़ई अच्छी रही कि अंतरराष्ट्रीय बाज़ारों में तेल की क़ीमतें गिर कर आधी हो गयी, इसलिए महँगाई पर लगाम लगी रही। हालाँकि घटी तेल कीमतों का बहुत फ़ायदा लोगों को नहीं मिला क्योंकि सरकार पेट्रोलियम पदार्थों पर लगातार टैक्स बढ़ाती जा रही है।
लेकिन सरकार के लिए सबसे बड़ी चुनौती घर के भीतर से है। संघ परिवार न केवल हिन्दुत्व के एजेंडे को लेकर हाल में बहुत मुखर हुआ है, बल्कि वह पुरातनपंथी विचारों को स्थापित करने के लिए एड़ी-चोटी का ज़ोर लगा रहा है।
संस्कृत से लेकर वैदिक गणित तक, पुष्पक विमान से लेकर चिकित्सा-विज्ञान तक पुरातन गौरव के नाम पर जिस तरह अभियान चलाया जा रहा है, वह आज के आधुनिक वैज्ञानिक युग के पहियों को उलटी दिशा में सदियों पहले ले जाने की विचित्र चेष्टा तो है ही, साथ ही यह मोदी के विकास के एजेंडे के बिलकुल विरुद्ध भी है।
कॉरपोरेट जगत इससे कितना चिन्तित है, इसका अंदाज इसी से लगाया जा सकता है कि संघ ने उत्तर प्रदेश में ‘घर वापसी’ अभियान चला रहे धर्म जागरण समिति के नेता को उसके पद से हटा दिया तो देश के सबसे बड़े बिज़नेस दैनिक अख़बार ने इस छोटी-सी ख़बर को अपनी पहली ख़बर के तौर पर छापा!
क्या राहुल चमत्कार दिखा पायेंगे?
तो मोदी के लिए चुनौती यही है कि क्या वह संघ को उसके एजेंडे से विरत रख पायेंगे? वह किस रास्ते चलेंगे? विकास या हिंदू राष्ट्र या फिर दोनों? मोदी इनमें से किस विकल्प को चुनेंगे? और जो भी चुनेंगे, वह तय करेगा कि देश किस लकीर पर चलेगा और मोदी इतिहास में किस रूप में दर्ज किये जायेंगे! विकल्प दो ही हैं।
विकास या हिंदू राष्ट्र, तीसरा विकल्प है नहीं। हिन्दुत्व और विकास दोनों साथ-साथ नहीं चल सकते! क्योंकि दोनों पहिये एक-दूसरे के विपरीत दिशा में चलते हैं। मिसाल के तौर पर संघ के शैक्षणिक संगठन विद्या भारती का मानना है कि अँगेजी शिक्षा भारतीय मूल्यों का पतन करती है!
मोदी की समस्या यह है कि वह संघ की पुरातनपंथी सोच और विकास की आधुनिक दौड़ में तालमेल कैसे बैठायें? उधर, काँग्रेस के लिए 2015 एक बड़ी चुनौती है। लोकसभा चुनाव के बाद से काँग्रेस की हार का सिलसिला रुका नहीं है। इस साल दिल्ली और बिहार विधानसभा चुनावों में भी पार्टी से कुछ खास उम्मीद नहीं है। उसके बाद 2016 में असम, केरल, तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल में चुनाव होने हैं।
बंगाल और तमिलनाडु का तो ख़ैर सवाल ही नहीं, लेकिन काँग्रेस क्या असम और केरल बचा पायेगी? क्या काँग्रेस के पास कोई कार्य योजना है? सबकी निगाहें राहुल गाँधी की ओर लगी हैं? क्या राहुल 2015 में काँग्रेस को पुनर्जीवित करने लायक कोई चमत्कार दिखा पायेंगे? अगर नहीं, तो काँग्रेस का क्या होगा या फिर काँग्रेस में क्या होगा? बड़ा सवाल है।
केजरीवाल: दिल्ली न मिली तो?
2015 अरविन्द केजरीवाल के लिए भी अस्तित्व की लड़ाई का साल है, करो या मरो! लोकसभा चुनाव में बुरी तरह पिटने के बाद ‘आप’ को लगा कि बड़ी गलती हो गयी। एक तो दिल्ली की गद्दी नहीं छोड़नी चाहिए थी और दूसरे लोकसभा चुनाव नहीं लड़ना चाहिए था! इसलिए लोकसभा चुनाव के बाद केजरीवाल ने दिल्ली छोड़ कहीं और देखा भी नहीं, देश भर में
‘आप’ को लेकर जो सुगबुगाहट पैदा हुई थी, वह धीरे-धीरे मंद पड़ कर खत्म भी हो गयी। अब केजरीवाल को लगता है कि अगर पार्टी दिल्ली चुनाव जीत गयी तो फिर से वह देश भर में खड़ी हो सकती है! इसलिए पिछले कई महीनों से ‘आप’ के कार्यकर्ता दिल्ली में कड़ी मेहनत कर रहे हैं।
लेकिन अगर दिल्ली नहीं जीती जा सकी तो क्या होगा? क्या ‘आप’ उसके बाद फिर खड़ी हो पायेगी? पहले उसके पास एक आंदोलन था, लेकिन अभी न उसके पास आंदोलन है और न कार्यक्रम! इसलिए यह देखना दिलचस्प होगा कि 2015 अरविन्द केजरीवाल के लिए क़िस्मत की कौन-सी लकीरें ले कर आता है?
नीतिश: निगाह बिहार के बाहर!
नीतीश कुमार क्या करेंगे? फिलहाल तो वह अभी बिहार में अपनी और लालू प्रसाद यादव की पार्टी के विलय में लगे हैं। वैसे पहले तो योजना बनी थी कि बिहार, हरियाणा, उत्तर प्रदेश और कर्नाटक में जनता दल के अवशेष मिल कर एक राष्ट्रीय पार्टी बनायेंगे और मुलायम सिंह यादव उसके अध्यक्ष हो जायेंगे।
लेकिन अब सुना है कि जैसी कि उनकी आदत है, मुलायम सिंह कुछ हीला-हवाला कर रहे हैं। नीतीश के लिए 2015 में सिर्फ बिहार का किला बचाये रखना ही लक्ष्य नहीं है, बल्कि उनकी निगाह बिहार के बाहर कहीं दूर तक है। राष्ट्रीय पार्टी बनाने का विचार उसी से उपजा है, नीतीश देख रहे हैं कि काँग्रेस किस तरह हाशिए पर जा रही है। बीजेपी का कोई और राष्ट्रीय विकल्प नहीं उभर रहा है।
ऐसे में क्यों न एक नया राष्ट्रीय विकल्प पेश किया जाये। मोदी के विकास+गवर्नेन्स+हिन्दुत्व के मुक़ाबले नीतीश के विकास+गवर्नेन्स+सेकुलरिज़्म को क्यों न एक ठोस राष्ट्रीय विकल्प के तौर पर पेश किया जाये। नीतीश के पास अभी चार साल हैं और अगर बदले हालात में अगले एक-दो बरस में काँग्रेसियों में बेचैनी बढ़ती है तो नीतीश के तम्बू में नेताओं की भीड़ लग सकती है!
तो 2015 में बिहार चुनाव के नतीजे क्या होते हैं, दिल्ली में ‘आप’ का क्या होता है, काँग्रेस अपने को फिर से खड़ा करने के लिए कुछ हिलती-डुलती है या नहीं और मोदी के विकास और संघ के हिन्दुत्व के एजेंडे का क्या होता है, इससे तय होगा कि देश किस रास्ते जायेगा?
(देश मंथन, 5 जनवरी, 2015)