पद्मपति शर्मा, वरिष्ठ खेल पत्रकार :
आज 31 अक्तूबर है, जो भारतीयों को मिश्रित अनुभूति देता है। एक ओर हैं देश को एकता के सूत्र पिरोने वाले लौह पुरुष सरदार पटेल, जिनका कि आज जन्मदिन है और जिसे यादगार बना दिया मोदी सरकार ने देश में एकता दौड़ के आयोजन से तो दूसरी ओर आज ही इंदिरा गाँधी का शहादत दिवस भी है।
श्रीमती गाँधी की राजनीतिक अवधारणा और कार्य शैली को लेकर भले ही आप लम्बी बहस कर सकते हैं। मगर एक महिला होने के बावजूद उनको हमें आँख मूँद कर निर्विवाद दुर्जेय योद्धा की संज्ञा भी देनी होगी। बीते एक हजार साल के दौरान महाराजा रणजीत सिंह (काबुल विजय) के बाद देश की इस प्रथम प्रधान मंत्री को ही हम उस सफल सेनानायक के रूप में स्मरण करते रहेंगे, जिसने देश को अंतरराष्टीय जीत से नवाजा और पूर्वी पाकिस्तान को मानचित्र से ही गायब कर दिया। अपने अंगरक्षकों की गोलियों का शिकार हुई श्रीमती गाँधी की हत्या, उसका कारण, उससे देश में उपजा रोष और भड़के दंगे की चर्चा करना मुख्य उद्देश्य नहीं है। बहुतेरों को शायद विस्मृत हो गया होगा कि जिस दिन इंदिराजी की सुबह हत्या हुई, सुनील गावस्कर की अगुवाई में भारतीय क्रिकेट टीम पाकिस्तान भ्रमण के दौरान सियालकोट में पाकिस्तान के साथ एक दिनी मैच खेल रही थी। बतौर पत्रकार उस समय मैं भी टीम के साथ था और इसी परिप्रेक्ष्य में यहाँ चर्चा होगी इंडो-पाक दौत्य सम्बन्धों में आई भयानक गिरावट, सियालकोट में भारतीय मीडिया की नजरबंदी, हत्या के बाद पाकिस्तानियों के हैरतअंगेज रूप से बदले तेवर, वाघा बार्डर से मेरा भारत में प्रवेश, पंजाब के भयावह हालात और काफी मुश्किल से घर वापसी आदि मेरी यादों में जस की तस जीवित हैं और चलिए उन्ही को कुरेदते हैं।
1. आणविक प्रतिष्ठानों पर भारतीय हमले की खबर से पाक दहशत में!!
इतिहास गवाह है कि भारत-पाक क्रिकेट सम्बन्ध दरअसल दोनों देशों के तत्कालीन कूटनीतिक रिश्तों पर ही निर्भर करते रहे हैं। 1961-62 की भारत में घरेलू सीरीज के बाद दोनों मुल्कों ने क्रमशः दो युद्ध लड़े 1965 और 1971 में। जाहिर है कि इस दौरान दोनों देशों के बीच खेल गतिविधियाँ ही ठप नहीं रहीं बल्कि बात तो दुश्मनी की हद तक उस समय पहुँच चुकी थी जब क्रिकेटर कारदार ने, जो दोनों देशों का प्रतिनिधत्व कर चुके थे, यह धमकी दे डाली थी कि यदि विश्व कप हॉकी में भारतीय टीम ने शिरकत की तो पाकिस्तान की गलियों में खून बहेगा। इसके चलते पाक मेजबानी से हट गया और इसका आयोजन मलेशिया में किया गया जहाँ, भारत ने इसी पाकिस्तान को हरा कर हॉकी विश्व कप अपने नाम किया था।
मगर तिकडमी तानाशाह सैन्य शासक जियाउल हक दूरगामी षडयंत्र के तहत तत्कालीन जनता पार्टी के प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई को झाँसे में लेने में सफल रहे और 16 वर्ष बाद दोनों देशों में क्रिकेट संबंधों की बहाली हो गयी। इसी के तहत 1978 में भारतीय टीम पाकिस्तान दौरे पर गयी जहाँ उसका शाही खैर मकदम हुआ था। मगर 1982-83 की सीरीज में रिश्तों में वह गर्माहट गायब हो चुकी थी और 1984 का दौरा किसी बुरे ख्वाब की मानिंद था इसलिए नहीं कि बीच में ही श्रीमती गाँधी की हत्या हो गयी थी, बल्कि इसलिए भी कि तब भारतीय प्रतिनिधिमंडल को पाकिस्तानी प्रशासन भेदियों के रूप में ले रहा था। इसका अहसास पाकिस्तानी धरती पर कदम रखते ही हमें हो चुका था ।
वो तमाम पाकिस्तानी साथी और पत्रकार जो साये की तरह कभी साथ होते थे, कटे-कटे से नजर आये। अपने बेवाक बयानों के लिए मशहूर और भारतीय पत्रकारों में बड़बोले तत्कालीन भारतीय राजनीतिज्ञ राजनारायण के नाम से जाने जाने वाले तेज गेंदबाज सरफराज नवाज भी जिया के डंडे से डर कर हमारे पास रात के अंधरे में छिप कर आये और तब पता चला हमें कि आखिर माजरा क्या है। इसकी पुष्टि बाद में पाकिस्तानी शहाफियों ने भी की। उन सभी ने बताया कि कुछ दिनों पहले पूरे पाकिस्तान में इस खबर से दहशत फैल गयी थी कि भारत के जैगुआर विमान पाकिस्तानी आणविक ठिकानो पर हमला करने वाले हैं। इसका सूत्र उन्हें अमेरिका से मिला था जिसने पहले यह बताया था कि भारतीय जैगुआर अपने बेस से गायब हैं। बाद में अमेरिका ने ही इस आशय की जब पुष्टि करते हुए बताया कि भारतीय विमान अनियमित प्रशिक्षण उड़ान पर थे, तब कहीं जाकर पाकिस्तान ने राहत की साँस ली। लेकिन यह भी तय है कि बीते छः वर्षों के दौरान बहुत कुछ बदल चुका था। जिया ने आतंकवादियों को दिए खुले समर्थन से पंजाब को जहन्नुम बना कर रख दिया था और यदि हम यह कहें कि श्रीमती गाँधी की हत्या का परोक्ष कारण यही पाकिस्तानी सैन्य शासक ही रहा, तो गलत नहीं होगा।
2. भारतीय शिविर में जबदस्त सौहार्द
यह अभागी अधूरी रद हुई क्रिकेट सीरीज दोनों देशों के आपसी रिश्तों के लिहाज से भले ही दुखद रही हो पर भारतीय प्रतिनिधिमंडल में आपसी सौहार्द गजब का था और जिसकी कमी हमने पिछले दो दौरों में शिद्दत से महसूस की थी। हालाँकि इस बार भी टीम मैनेजर शाही खानदान से था, यानी राजसिंह डूंगरपुर थे पर उनमें और पूर्व के दोनों दौरों के मैनेजर रहे भूतपूर्व बड़ौदा नरेश फतेहसिंह गायकवाड के व्यक्तित्वों में खासा फर्क था, उम्र और स्वभाव दोनों दृष्टि से। गायकवाड जहाँ पितृ पुरुष की भूमिका में थे इसलिए उनके और टीम के बीच एक निश्चित दूरी थी। उनके समय में दोनों बार टीम आपस में बंटी हुई थी, जिसकी चर्चा फिर कभी, मगर राज भाई यारों के यार थे एक दम खुले मिजाज के। तत्कालीन टीम के खिलाड़ी भी यह स्वीकार करेंगे कि भारतीय प्रतिनिधिमंडल तब एक परिवार सरीखा था और राजभाई की भूमिका संरक्षक की रही।
3. एकादश चयन की बैठक में पत्रकारों की भागीदारी!
आज भारतीय मीडिया में खबरों के लिए जिस तरह गलाकाट होड़ है, वैसी तब नहीं था, न ही कोई टीआरपी का दबाव था और न ही तब बीसीसीआई का मुखिया कोई श्रीनिवासन था जिसकी स्पष्ट ताकीद कि कोई पत्रकार लाबी कौन कहे, टीम होटल के बाहर सौ मीटर से आगे नहीं जा सकता। आज के हमारे युवा साथी शायद विश्वास नहीं करेंगे कि इस सीरीज के पहले लाहौर टेस्ट टीम के एकादश चयन में हम पत्रकार भी शामिल हुए थे और यदि मै गलत नहीं हूँ तो उस टेस्ट के संकटमोचक मोहिंदर जिमी अमरनाथ का एकादश में चयन पत्रकारों की संस्तुति पर ही हुआ और मदन लाल को बाहर बैठना पड़ा था। दो दिन पहले ही एकादश का चयन किया जा चुका था पर यह खबर भारतीय शिविर से बाहर नहीं गयी और हम सभी ने अपनी एकादश चुनी, जबकि पाकिस्तानी मीडिया को 13 खिलाड़ियों की सूची थमायी गयी। हमारी एकादश ही तो आनी थी। इसी जिमी ने दल की निश्चित पराजय बचायी, जबकि पक्षपाती अम्पायरिंग का यह आलम था कि टेस्ट समाप्ति के बाद गावस्कर ने प्रेस कांफ्रेंस में खुले आम यह कहते हुए सनसनी फैला दी थी कि पाकिस्तान 13 खिलाडियों से खेल कर भी हमें नहीं हरा सका, इसका हम सब को घोर आश्चर्य है। आईसीसी की आचार संहिता तब आज की तरह नहीं थी और तभी सनी की दबंगई भी उन्हें मुसीबत में नहीं डाल सकी।
4. सियालकोट में पत्रकारों के सेवादार इंटेलिजेंस के लोग!
खैर, पहले की ही तरह दूसरा फैसलाबाद टेस्ट भी ड्रॉ रहा। उन दिनों टेस्ट और एक दिनी सिरीज आज की तरह अलग-अलग नहीं हुआ करती थी। टेस्ट के ही बीच में सीमित ओवर वाले भी मुकाबले हुआ करते थे और इस सिरीज में भी यही हुआ। अगला पड़ाव सियालकोट था, जिसके बारे में कहा जाता है कि मौसम साफ होने पर वहाँ से जम्मू की लाइट नजर आती है। वहाँ एक दिन के अन्तराल बाद ही 40-40 ओवर का मैच खेला जाना था। हम 12-13 साथियों ने लाहौर में ही एक लग्जरी 18 सीटर वैन किराये पर ले रखी थी। हम उसी से पहुँचे स्यालकोट, जहाँ पहली बार हमें महसूस हुआ कि हम किसी दुश्मन के देश में आ गये हैं। उन दिनों वहाँ स्तरीय होटल के नाम पर सिर्फ एक था और वो भी काफी छोटा। हम पत्रकारों के लिए प्रशासन ने एक बंगले की व्यवस्था की थी जो किसी खेल सामान निर्यात करने वाले किसी शख्स का था। बंगले की वास्तुशिल्प और साज-सज्जा से लेकर सभी कुछ फ्रांसीसी था। पंच सितारा सुविधाओं से लैस। मगर हर कोई तब कसमसा कर रह गया जब हमसे कहा गया कि सुरक्षा कारणों से बाहर नहीं जा सकते थे अकेले। नौकरों के नाम पर जो पाँच-छः लोग थे, वे निश्चित तौर से पाकिस्तानी इंटेलिजेंस से ताल्लुक रखते थे, उनकी बोल-चाल और कद काठी ही चीख-चीख कर हमारे सुबहे को पुख्ता कर रही थी। किसी ने कहा सिगरेट लेने जा रहे हैं तो जवाब मिला, ‘जाने की क्या जरूरत है जी, हुकुम करो जी अभी ला देते हैं’ और फिर 30-40 पैकेट हाजिर। इसी तरह मैंने पान की इच्छा जिहिर की तो 100 बीड़े पान के आ गये। शाम को नागरिक अभिनंदन समारोह था, हमें तीन चार गाड़ियों में भर कर ले जाया गया और फिर सीधे वापसी।
5. श्रीमती गाँधी के शरीर में 18 गोली धँसा दी और फोन कट गया
सच तो यह कि वे हमें बेवकूफ समझ रहे थे और हम उन्हें। सुबह खैर, हम अपनी वैन से मैदान पहुँचे। मेहमान टीम को पहले बल्लेबाजी करनी थी। तभी राज भाई के पास एक फोन दिल्ली से आया, उसमे कुछ हल्का सा इशारा बोलने वाले ने दिया। मेरे ड्रेसिंग रूम में घुसते ही राज भाई ने फोन की बात बताते हुए मुझसे अनुरोध किया कि रेडियो कमेंट्री टीम के पास जाकर मैं सच्चाई का पता लगाऊँ। मैदान में नया पैवेलियन निर्माणाधीन था और चूँकि पाकिस्तान टेलीविजन की ओवी वैन फैसलाबाद से स्यालकोट नहीं पहुँच सकती थी, इसलिए मैच का सजीव प्रसारण नहीं हो रहा था। दोनों देशों के क्रिकेट प्रेमियों को रेडियो का ही सहारा था। खैर, मै लाँघता-फाँदता तीसरी मंजिल पर कमेंट्री के लिए बनाये गये विशेष मचान तक पहुँचा और वहाँ मौजूद प्रख्यात कमेंटेटर जसदेव सिंह ने बताया कि कमेंट्री पिछले आधे घंटे से बंद है। कमेंट्री असल में फोन से होती है। दो लीज लाइनें होती हैं, एक तकनीकी लोगों के लिए और दूसरी पर कमेंट्री होती है। फोन कई बार मिलाने के बाद एक बार झटके से उठा। दूसरी तरफ से किसी ने बस इतना कह कर फोन काट दिया कि इंदिरा गाँधी के शरीर में किसी ने 18 गोलियाँ धँसा दी हैं। हम सभी स्तब्ध रह गये यह सुनते ही। ये अचानक क्या हो गया, कैसे हुआ। किसी को कुछ भी समझ नहीं आ रहा था। जसदेव एकदम से घबरा गया था। तब तक दर्शकों में भी कुछ खुसर-पुसर होने लगी थी। जसदेव के साथ जब मैं नीचे उतर रहा था, किसी ने फब्ती कसी, ‘ओय सरदारे कित्थे जा रहा है दुश्मनों नाल। तू तो अपना बंदा है न।!!
6. सियालकोट में इंदिरा मोड़ का दीदार नहीं कर सके
हम सभी ड्रेसिंग रूम में जमा हो गये। राज भाई को भी तब तक अपने सूत्रों से खबर मिल चुकी थी। दिक्कत यह थी कि इस खबर की पुष्टि नहीं हो पा रही थी कि इंदिरा जी जीवित हैं या नहीं। खैर, जैसे-तैसे भारतीय पारी पूरी हुई और मैच रद कर दिया गया। लेकिन इसकी घोषणा टीम के मैदान से चले जाने के बाद की गयी। हम सभी दिन में एक बजे के आसपास जब जेलनुमा बंगले में लंच कर रहे थे, तब बीबीसी ने पहली बार श्रीमती गाँधी के निधन की अपनी समाचार बुलेटिन में घोषणा कर दी। हर कोई जान चुका था ह्रदय विदारक राष्ट्रीय क्षति के बारे में। यहाँ एक बात बतानी जरूरी इसलिए है कि 1965 की जंग में भारतीय फौजें सियालकोट में काफी अन्दर तक पहुँच चुकी थी और जब युद्ध विराम की घोषणा हुई तो फौज ने पीछे हटने के पहले विजित स्थान पर एक शिलापट्ट गाड़ दिया था, जिस पर लिखा था- ‘इंदिरा मोड़’ ,राजन (विख्यात क्रिकेट समीक्षक स्वर्गीय राजनबाला) ने मैच की पूर्व संध्या पर हमें बताया था कि वह स्थान यहीं कहीं पास में ही है। टेलीग्राफ के क्रिकेट संवाददाता युवा लोकेन्द्र प्रताप शाही का यह पहला दौरा था। श्रीमती गाँधी के निधन के खबर जब हमने खाना खाते वक्त सुनी उस समय मौजूद बंगले के स्वामी एक्सपोर्टर महोदय से शाही पूछ ही बैठा, ‘वो इंदिरा मोड़ कहाँ है जी’? यह सुन कर वह महाशय अचकचा कर रह गये, जबकि तथाकथित हमारे सेवादार असहज नजर आये।
7. आखिर रोमांचक दौरा हत्या की भेंट चढ़ गया
खाना खाने के तुरंत बाद हम निकल पड़े लाहौर की ओर जसदेव को भी हमने साथ ले लिया था। दौरा अधर में लटक चुका था, इंतजार था मृत्यु की अधिकृत घोषणा का और वह हमने अपने वैन में सुनी जब आकाशवाणी से शाम छः बज कर पाँच मिनट पर सुप्रसिद्ध न्यूज रीडर देवकीनंदन पांडे ने भर्राई आवाज में कहा- इंदिराजी अब हमारे बीच नहीं रहीं। शाम सात बजे हम सभी लाहौर के इंटर कांटिनेंटल होटल में एकत्र हुए और राजभाई ने दौरा रद हो जाने की अधिकृत घोषणा कर दी।
8. पाकिस्तानियों की निगाहें भी बदल गयीं
टीम और मीडिया के अधिकांश साथियों ने तो कराची होते हुए उसी रात मुंबई की उड़ान पकड ली और हम चार-पाँच साथी वहीं रुक गये। टेलीग्राफ और आनद बाजार की मीडिया टीम को उनके कार्यालय ने स्थति सामान्य होने तक वहीं रुके रहने को कहा। हमारा जागरण कार्यालय टेलेक्स सन्देश का कोई जवाब ही नहीं दे रहा था। मै और आनंद बाजार पत्रिका के सौम्यो वन्दोपाध्याय इंटर कान में ही रुक गये। कोई सीरीज डिस्काउंट नहीं। पूरा भुगतान करना होगा। पाकिस्तान क्रिकेट बोर्ड से भी कोई मदद नहीं मिली। मजबूरी थी। रात्रि में अपने कमरे में दूरदर्शन पर राजीव गाँधी का राष्ट्र के नाम सन्देश के दौरान यह सुन कर हमें आगम का कुछ-कुछ अहसास हो गया जब राजीव ने कहा कि जब बड़ा बरगद का दरख़्त गिरता है तब उसके आसपास की धरती काँपती ही है।
9. भारतीय उच्चायुक्त की मदद से किया पार बाघा बार्डर
आशंका निर्मूल नहीं थी। भारतीय उच्चायुक्त बी.डी. शर्मा के सौजन्य से मैं बाघा बार्डर के रास्ते दो नवम्बर को अमृतसर पहुँचा। सारी विमान सेवाएँ ठप हो चुकी थीं। अमृतसर इंटरनेशनल होटल में मैं एकलौता यात्री था। शाम को इंदिराजी की अंत्येष्टि का समाचार दूरदर्शन पर देखा। तीन नवम्बर को अमृतसर के जिलाधिकारी ने सुरक्षाकर्मी से लैस गाड़ी भेज दी और देश में भयानक दंगों के समाचारों के बीच शाम को चंडीगढ़ पहुँचा। क्या हाल था उस समय इसका जायजा इसी से मिल सकता है कि पूरे रास्ते न कोई वाहन सामने से आया और न ही किसी ने हमें पीछे से ओवरटेक किया। पूरा पंजाब तब भी बंद था। चंडीगढ़ में भी मौत सा सन्नाटा पसरा हुआ था। इन्डियन एयरलाइंस के हाल में तिल रखने भर की भी जगह नहीं थी। इनमे अधिकांश सहमे हुए सिख परिवार थे। 10 नवम्बर तक कोई विमान सेवा नहीं। यहाँ भी कलेक्टर महोदय काम आये। उसी दिन से कालका मेल चलनी शुरू हुई थी। फर्स्ट क्लास में उन्होंने सीट दिला दी और मातमी सन्नाटे से भरे रास्ते में पड़ते स्टेशनों को छोड़ते हुए रात्रि में जब मुगलसराय पहुँचा तब कहीं जाकर जान में जान आयी। इसी के साथ एक रोमांचक प्रतीत होती क्रिकेट सीरीज का त्रासद अंत हो गया।
(देश मंथन, 31 अक्तूबर 2015)