जिन्दगी को फुल मस्ती में जीते हैं सरदार

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संजय सिन्हा, संपादक, आज तक :

एक ट्रेन में दो दोस्त यात्रा कर रहे थे। दोनों दोस्त एक दूसरे को चुटकुले सुना रहे थे, और हँसते हुए चले जा रहे थे। उनके सामने वाली सीट पर क्योंकि एक सरदार जी यात्रा कर रहे थे, इसलिए दोनों दोस्त संता सिंह और बंता सिंह वाले चुटकुलों में से सरदार शब्द हटा देते और खुशी से चुटकुले सुनाते, हँसते, खिलखिलाते।

एक-दो चुटकुले नहीं, कई चुटकुले जब हो चुके तो अचानक सरदार जी उठ खड़े हुए और दोनों दोस्तों से हाथ जोड़ कर कहने लगे, “ओए, सरदार मर गये हैं, जो तुम अब दूसरों के नाम से चुटकुले सुनाने लगे हो?”

यह होता है सरादारों का मस्तमौलापन। 

मेरे पिताजी कहा करते थे कि सरदार सबके यार होते हैं। खूब मेहनत करते हैं, खूब खुश रहते हैं। इनके साथ रहने वाले खुश ही रहते हैं। सरदारों में जिन्दगी को जीने का एक अलग ही जज्बा होता है। 

पर कल किसी ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका लगा कर यह गुहार लगायी है कि अब सरदारों पर चुटकुले बंद होने चाहिए। गुहार लगाने वाले ने कहा है कि संता सिंह और बंता सिंह हंसी के पात्र नहीं हैं। ऐसे चरित्रों से सरदारों की छवि हल्की होती है और सब उन पर हँसते हैं। कोई सरदारों को गंभीरता से नहीं लेता। 

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राज कपूर की एक फिल्म थी, मेरा नाम जोकर। 

फिल्म बहुत चली नहीं थी, लेकिन मेरी दस सबसे पसंदीदा फिल्मों में से ये एक है। फिल्म की कहानी एक जोकर की जिन्दगी के इर्द-गिर्द घूमती है। एक लड़का जो बहुत अच्छे स्कूल में पढ़ रहा है, अपनी माँ से कहता है कि वो बड़ा होकर जोकर बनना चाहता है। माँ उसे टोकती है, रोकती है। पर बेटा कहता है कि माँ दुनिया में लोगों को हंसाने से बढ़ कर कोई काम नहीं। यहाँ हर आदमी दुखी है, ऐसे में बहुत कम ही लोग हैं, जो किसी को हँसा पाने का दम रखते हैं। 

और फिल्म आखिर में एक संदेश भी देती है – अपने पर हँस कर जग को हँसाने वाला ही दरअसल जिन्दगी को सही मायने में जीता है। 

मेरी समझ में यह बात आज तक नहीं आयी कि संसार में सभी गंभीर छवि ही क्यों बनाना चाहते हैं? क्यों हँसने, हँसाने को लोग बुरा मानते हैं? 

हँसना और हँसाना दरअसल सबके बूते की बात नहीं होती। इस संसार में आदमी रोता हुआ आता है, फिर वो सारी जिन्दगी रोता रहता है और एक दिन रोता हुआ ही चला जाता है। आदमी कभी खुद से संतुष्ट नहीं होता। जो संतुष्ट नहीं होते, वो हँसने और हँसाने के माहौल को जी नहीं सकते। 

पर आप किसी भी संपन्न देश में चले जाइए, लोग वहाँ खुश रहते हैं। हँसते और हँसाते हैं। पर हमारे यहाँ आदमी संघर्ष को जिन्दगी मानता है। दुर्भाग्य से हमारे हुक्मरान ऐसी नीतियाँ जानबूझ कर बनाते हैं कि हम ज्यादार वक्त जिन्दगी के संघर्ष में फँसे रहें, न हम खुश हों, न हँस सकें। ऐसा इसलिए किया जाता है कि क्योंकि हुक्मरानों को डर लगता है कि जो आदमी खुश रहने लगेगा, वो सत्ता की व्यवस्था में दखल देने लगेगा। वो कई चीजों के हिसाब माँगने लगेगा। इसलिए आम आदमी को आयकर, बिक्री कर, शिक्षा कर और तमाम ऐसी मुसीबतों में जानबूझ कर उलझा दिया जाता है कि वो उसी से निबटने में रोज की जिन्दगी को खर्च कर दे। 

आम आदमी की जिन्दगी अपने बच्चों को स्कूल में दाखिला कराने, रोज समय पर दफ्तर पहुँचने, अस्पतालों में लंबी लाइन लगाने में गुजर जाती है। वो देश और देश की व्यवस्था तक पहुँचने का दम ही नहीं दिखा पाता। कैसे दिखाए? उसके लिए लोकतंत्र का पर्व सिर्फ वोट देने तक सिमट कर रह गया है। वो कहता है कि रोज की किचकिच से फुर्सत मिले, तब न कुछ सोचूँ। और उसे रोज की किचकिच से फुर्सत नहीं मिलने दी जाती है। 

ऐसे में किसी ने यह महसूस किया होगा कि सरदार हमेशा खुश रहते हैं। देश में बाकी सभी लोगों से ज्यादा खुश। वो काम के वक्त इतनी मेहनत करते हैं कि देखने वाला देखता रह जाए और मस्ती के समय उनकी मस्ती भी देखने लायक होती है। आप दुनिया के किसी कोने में चले जाइए, अगर आपको सरदार वहाँ मिल गये तो समझिए कि खुशी वहाँ है। वो जिन्दगी को फुल मस्ती में जीते हैं। क्योंकि वो मेहनत करते हैं, जिन्दगी को खुशी से जीते हैं, इसीलिए चुटकुले उन पर बनाये गये हैं। किसी दुखियारे पर कोई क्या चुटकुला बना सकता है! 

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कल से मैं उदास हूँ। जब से मेरे पास ये खबर आयी कि किसी ने सरदारों पर चुटकुला सुनाए जाने पर रोक की माँग की है, तब से मेरी हँसी काफूर हो गयी है। 

आज मुझे लग रहा है कि काश, कोई संजय सिन्हा पर हँस कर खुश होता। अगर कोई मुझ पर हँस कर खुश हो, तो मुझे बहुत खुशी होगी। संसार में इससे बढ़ कर कोई सेवा नहीं कि कोई मेरे चुटकुलों पर मुस्कुरा उठे। 

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चलते-चलते

एक बार सोनू स्कूल गया तो टीचर ने उसे टोका, “सोनू, तुमने आज दोनों पाँव में अलग-अलग मोजे पहने हैं। एक पाँव मे लाल और दूसरे पाँव में सफेद। जाओ घर जाकर मोजे बदल कर आओ।”

सोनू ने टीचर से कहा, “सर, घर जाने से कोई फायदा नहीं। वहाँ भी एक लाल और एक सफेद मोजा ही पड़ा है।”   

(देश मंथन, 31 अक्तूबर 2015)

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