तोते वही बोलें, जो संघ बुलवाये!

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कमर वहीद नकवी, वरिष्ठ पत्रकार:

लोकतन्त्र सुरक्षित है! आडवाणी जी की बातों में बिलकुल न आइए! उन्हें वहम है! इमर्जेन्सी जैसी चीज अब नहीं आ सकती! क्योंकि नरेन्द्र भाई ने देश को ट्वीट कर बताया है कि जीवन्त और उदार लोकतन्त्र को मजबूत बनाना कितना जरूरी है! इसीलिए ‘उदार लोकतंत्र’ में आडवाणी जैसों की कोई जगह नहीं, जिन्हें लगता हो कि लोकतन्त्र को कुचलने वाली ताकतें आज पहले से कहीं ज्यादा ताकतवर हैं!

सो बीजेपी ने जब इमर्जेन्सी की चालीसवीं बरसी मनायी, तो सारे ‘इमर्जेन्सी पीड़ितों’ का सम्मान किया, गुणगान किया, लेकिन आडवाणी को आने का न्योता तक नहीं दिया! वह इमर्जेन्सी में उन्नीस महीने जेल में रहे। लेकिन उनकी पार्टी जब इमर्जेन्सी को याद करती है तो उन्हें याद नहीं करती! ‘उदार लोकतंत्र’ की क्या शानदार मिसाल है! जो ‘नमोवत’ नहीं, जो दंडवत नहीं, जो करबद्ध नहीं, वह जात-बाहर!

‘उदार लोकतंत्र’ और आडवाणी!

वैसे काफी अरसा हो गया, आडवाणी जी को ‘मार्गदर्शक’ बने हुये। शायद उन्हें इसी ‘मार्गदर्शक’ शब्द से कोई गलतफहमी हो गयी कि पार्टी को वक्त-जरूरत रास्ता दिखा देना उनकी जिम्मेदारी है! इसीलिए वह पार्टी को आगाह कर रहे थे कि जैसा माहौल है, वह लोकतन्त्र के लिए शुभ लक्षण नहीं है और इमर्जेन्सी जैसी चीज का खतरा टला नहीं है। लेकिन ‘उदार लोकतन्त्र’ में ‘मार्गदर्शक’ का काम रास्ता दिखाना नहीं होता, बल्कि रास्ते को चुपचाप निहारते रहना होता है, बस पार्टी के शो केस में ‘मैनेकिन’ बन कर सजे हुए! ‘मैनेकिन’ यानी वह पुतले जो कपड़े की दुकानों में सुन्दर-सुन्दर वस्त्र पहना कर खड़े कर दिये जाते हैं! आडवाणी ने ‘मैनेकिन धर्म’ का पालन नहीं किया! इसलिए ‘उदार लोकतन्त्र’ का स्वाद उन्हें चखा दिया गया! लालकृष्ण आडवाणी ‘लोकतन्त्र की रक्षा’ के लिए इमर्जेन्सी में जेल में रहे, लेकिन खुद उन्हें भी पीछे मुड़ कर अपनी उन्मादी रथयात्राओं और बाबरी मसजिद के ध्वंस के दिनों की अपनी फासिस्ट राजनीति की याद जरूर करनी चाहिए! 6 दिसम्बर 1992 को आडवाणी के नेतृत्व में अयोध्या में जो कुछ हुआ, वह लोकतन्त्र और संविधान की बर्बर हत्या नहीं थी तो और क्या था? हालाँकि इतना सब कुछ हो जाने के बाद भी संघ और बीजेपी को तब राजनीतिक कामयाबी नहीं हासिल हो सकी थी, क्योंकि देश ने अन्ततः लोकतंत्र को चुना और धार्मिक चरमपंथ की राजनीति को नकार दिया। तब से अब तक बहुत कुछ बदल चुका है। आरएसएस यानी संघ ने भी और नरेन्द्र मोदी ने भी अपने-अपने इतिहास से बहुत कुछ सीखा है। इसलिए यह पक्का है कि वैसी इमर्जेन्सी अब नहीं आयेगी। कानूनन भी वैसा कर पाना अब आसान नहीं और वह इमर्जेन्सी संघ के ‘हिन्दू राष्ट्र’ के लक्ष्य के लिए भी किसी काम की नहीं!

अब नहीं आ सकती 1975 की इमर्जेन्सी!

इसलिए खतरा उस चालीस बरस पहले हुई 1975 की इमर्जेन्सी के फिर घटित होने का नहीं, बल्कि दूसरी ‘चुप्पी-घुप्पी इमर्जेन्सी’ का है, उस ‘उदार लोकतन्त्र’ का है, जिसे मजबूत बनाने में नरेन्द्र मोदी लगे हुये हैं। आडवाणी जी के इस निष्कर्ष में कोई अतिरंजना नहीं है कि लोकतन्त्र को कुचलनेवाली ताकतें आज देश में कहीं ज्यादा ताकतवर हैं और न ही इसे यह कह कर अनदेखा किया जा सकता है कि यह आडवाणी की बूढ़ी हताशा का विलाप है! ‘उदार लोकतन्त्र’ के जो लक्षण आज चौतरफा दिख रहे हैं, उनसे आसानी से अन्दाजा लगाया जा सकता है कि अगर यह ऐसे ही पाला-पोसा जाता रहा तो कुछ वर्षों बाद कैसे भयानक नतीजे सामने होंगे। फिलहाल दिल्ली में केजरीवाल सरकार ‘उदार लोकतन्त्र’ का मजा चख रही है। ‘सारधा’ की लपटों से घिर कर ममता बनर्जी ‘नमोवत’ हो चुकी हैं, इसलिए वहाँ अब सब ठीक है। लेकिन बिहार की जनता को सन्देश साफ है! केन्द्र वाली पार्टी चुनना अच्छा रहता है! जो माँगोगे केन्द्र से, मिल जायेगा, वरना दूसरी पार्टी रही तो खटराग चलता रहेगा! यह ‘उदार लोकतन्त्र’ है!

मालेगाँव बदलो, इतिहास भी बदलो!

और अभी-अभी खबर आयी है कि मालेगाँव मामले की सरकारी वकील रोहिणी सालियान पर दबाव डाला गया कि हिन्दू आरोपियों के विरुद्ध वह मामले को जरा ‘नरम’ कर दें। वह नहीं मानीं तो उन्हें आनन-फानन में हटा दिया गया! सरकारी वकील को ‘नरमाने’ की कोशिश क्यों की जा रही थी। और वह नहीं मानीं, तो उन्हें एक झटके में हटा क्यों दिया गया? सवाल का जवाब इतना कठिन है क्या? गुजरात की फर्ज़ी मुठभेड़ों के मामलों की अब क्या स्थिति है, यह सबके सामने है! सरकार अब इतिहास बदलने में भी जुटी है। इतिहास अब वह होगा, जो संघ चाहता है। इतिहास में कुछ गलत है, तो जरूर उसे सही कीजिए। लेकिन सही करने का तरीका क्या है? हर विचारधारा के इतिहासकारों की कमेटी बनाइए। सारे ऐतिहासिक साक्ष्य उसमें पेश हों। देश में उस पर बहस हो और जो तथ्य सही साबित हो, उसे शामिल कर लीजिए, जो गलत हो, उसे हटा दीजिए। लेकिन किसी एक ‘मत विशेष’ को बिना जाँचे-परखे आप ‘असली’ इतिहास बना दें, यह लोकतन्त्र की किस परिभाषा में आता है? हो सकता है कि काँग्रेस के इतने लम्बे राज में इतिहास में हेरा-फेरी हुई हो! अगर आपकी बात सही है, तो ईमानदारी दिखाने से क्यों डरते हैं? दुनिया में कहीं भी इतिहास आस्थाओं से नहीं, प्रमाणों से बनता और चलता है। आप भी ले आइए ऐतिहासिक प्रमाण, तर्क कीजिए, तर्क सुनिए और मनवा लीजिए अपनी बात, बदल दीजिए इतिहास! कौन मना करता है?

योग, रक्षाबन्धन और न्यायपालिका!

अभी योग दिवस हुआ। अच्छा है। होना चाहिये। भारतीय गौरव की बात है। लेकिन उप-राष्ट्रपति हामिद अन्सारी को लेकर संघ के एक बड़े और बहुत अनुभवी नेता ने जो बखेड़ा खड़ा किया, वह कोई गलती से नहीं हो गया था। उप-राष्ट्रपति को पिछली 26 जनवरी को भी संघ परिवार की ओर से लाँछित करने की कुचेष्टा की गयी थी! यह वही आरएसएस है, जिसने बरसों तक अपने मुख्यालय पर राष्ट्रीय ध्वज नहीं फहराया था। उपराष्ट्रपति जैसे व्यक्ति की निष्ठा को लेकर लगातार बेहूदा और बेबुनियाद शंकाएँ खड़ी की जायें, यह अनायास नहीं हो सकता! फिर योग को देशभक्ति से जोड़ने का क्या अर्थ है? कुछ मुसलिम संगठनों का योग को धर्म का नाम लेकर खारिज करना भी गलत है तो संघवादियों का यह आग्रह भी गलत है कि योग नहीं करना भारतीय गौरव की उपेक्षा करना है! योग करना, न करना लोगों का निजी चुनाव है, इसे ‘भारतीय होने की अनिवार्य शर्त’ के तौर पर कैसे स्थापित किया जा सकता है? क्रिसमस के दिन आप ‘गुड गवर्नेन्स डे’ मनायें और अब सुनते हैं कि रक्षा बन्धन को बड़े पैमाने पर मनाये जाने की तैयारी है। क्योंकि पिछले साल संघ प्रमुख मोहन भागवत ने कह दिया था कि हिन्दू संस्कृति की रक्षा के लिए ऐसा किया जाना चाहिये। तो आपके ‘उदार लोकतन्त्र’ का लक्ष्य और अर्थ क्या है, यह समझना मुश्किल नहीं है। न्यायपालिका की स्वायत्तता खत्म करने पर सरकार अड़ी हुयी है। जजों की नियुक्ति यह कह कर अपने हाथ में लेना चाहती है कि कालेजियम सिस्टम में नियुक्तियाँ सही नहीं हुयी, जिस सरकार को फिल्म संस्थान के लिए मेरिट के आधार पर नियुक्ति करना जरूरी न लगे, वह जजों की नियुक्ति को लेकर क्या करेगी, समझा जा सकता है! और किसी सरकार को ‘मनमर्ज़ी’ के जजों की जरूरत क्यों हो? आइआइएम जैसी संस्थाओं पर सरकार आखिर क्यों कब्जा करना चाहती है? ये तो बड़े-बड़े मुद्दे हैं। पिछले दिनों राष्ट्रीय संग्रहालय के निदेशक को अचानक हटा दिया गया।

चर्चा है कि उन्होंने प्रधान मन्त्री के एक कार्यक्रम के लिए भगवान बुद्ध की दुर्लभतम अस्थियों को संग्रहालय से बाहर ले जाने का अनुरोध ठुकरा दिया था। उन्हें नियम पालन करने का पुरस्कार थमा दिया गया! नागरिक समूह और स्वयंसेवी संगठन सरकार के किसी कदम का कोई विरोध न कर पायें, इसका इन्तजाम करने में सरकार लगी ही है। यानी सब जगह केवल वही लोग हों, जो सरकार की कठपुतलियाँ हों और हाँ में हाँ मिलाते रहें। यही ‘उदार लोकतन्त्र’ है? और यह तथाकथित ‘उदार लोकतन्त्र’ इमर्जेन्सी से कहीं ज्यादा खतरनाक है! क्योंकि इसका लक्ष्य केवल अपनी निर्बाध सत्ता बनाये रखना नहीं, बल्कि देश को एक वैचारिक पिंजड़े में कैद करके रखना है, जिसके ऊपर मुलम्मा लोकतन्त्र का हो, लेकिन तोते वही बोलें, जो संघ बुलवाये!

(देश मंथन 29 जून 2015)

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