उड़ता पंजाब : एक गंभीर विषय का सत्यानाश

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संदीप त्रिपाठी :

अनुराग कश्यप द्वारा निर्मित और अभिषेक चौबे द्वारा निर्देशित फिल्म उड़ता पंजाब पर मचे विवाद के बाद अवश्यंभावी था कि लोग यह फिल्म देखने जाते कि ऐसा क्या है जिस पर इतना विवाद है। उड़ता पंजाब देख लीजिये, फिर यही लगेगा कि इसे देखने के लिए ढाई घंटे खर्च करना वैसा ही है जैसे बर्फ देखने कोई गर्मियों में नैनीताल शहर या शिमला शहर चला जाये।

युवा पीढ़ी का ड्रग्स के चंगुल में फँसना एक बहुत गंभीर विषय है। इस विषय पर अगर फिल्म बनती है तो उसके कई दिशाएँ हो सकती हैं। या तो आप ड्रग्स के चलते युवा पीढ़ी और समाज को हो रहे नुकसान पर फिल्म को केंद्रित करेंगे या उस पूरी व्यवस्था पर बात करेंगे या उसके समाधान पर फिल्म केंद्रित होगी। इन दिशाओं पर कई फिल्में बन सकती हैं, अच्छी फिल्म वह होगी जिसमें ट्रीटमेंट अच्छा होगा। कहानी, पटकथा, अभिनय, फोटोग्राफी जैसी बातों के अलावा किसी फिल्म की मजबूती उसका चुस्त निर्देशन, कसा हुआ संपादन और फिल्म की गति होती है। अगर पहली चार बातें ठीक भी हों लेकिन बाद की दोनों बातें अगर ठीक नहीं हैं तो फिल्म प्रभावी नहीं लगती। उड़ता पंजाब के साथ यही दिक्कत है। 

जब आप अनुराग कश्यप की फिल्म देखने जाते हैं तो आपके जेहन में होती है गैंग्स ऑफ वासेपुर, क्वीन, एनएच 10, हंटर्र, शाहिद, मसान, ब्लैक फ्राईडे, लंच बॉक्स, बाम्बे वेलवेट, उड़ान जैसी फिल्में। उड़ता पंजाब फिल्म पर इतने विवाद से फिल्म के प्रति जगी जिज्ञासा के बाद फिल्म निराश करती है। फिल्म देखने के बाद ऐसा लगता है कि अनुराग कश्यप इस फिल्म की कमजोरियों से बखूबी वाकिफ थे, और इसीलिए प्रचार पाने के वास्ते विवाद के लिए पृष्ठभूमि तैयार की।

अब आये कहानी, अभिनय और संवाद पर। पंजाब, हरियाणा और चंडीगढ़ की जनता जो बातें कई वर्षों से जानती है, फिल्म के जरिये उसे ही दिखाने की कोशिश की गयी है। लेकिन जब आप किसी सर्वज्ञात विषय पर फिल्म बनाते हैं तो उसका ट्रीटमेंट ही उस फिल्म को देखने लायक बनाता है, वह ट्रीटमेंट इस फिल्म से लापता है। किसी फिल्म की दिशा और गति दर्शकों को बाँधती है, वह दिशा और गति इस फिल्म से लापता है। यह दिशा और गति विषय के प्रति फिल्म के निर्देशक और संपादक की सोच और समझ को दर्शाती है। फिल्म देखने पर निर्देशक फिल्म से लापता लगता है। फिल्म ड्रग्स के विषय पर कई फुटेज का जमावड़ा बन गयी लगती है।

आलिया भट्ट जैसी ग्लैमरस अभिनेत्री को देहाती मेकअप में डाल कर उसमें आप स्मिता पाटिल पैदा नहीं कर सकते। फिल्म में करीना कपूर का भी सही उपयोग नहीं हो पाया है। शाहिद कपूर भी कोई छाप नहीं छोड़ते। किसी फिल्म में अभिनय अच्छा है या नहीं, इसका पता आप इस तरह लगा सकते हैं कि फिल्म देखने के बाद आपको कलाकार का नाम याद रहा या उसके चरित्र का। अगर आप फिल्म को उसके चरित्रों के नाम से याद रखते हैं, तो इसका अर्थ है कि कलाकार का अभिनय बहुत बेहतर है। यदि आपको चरित्र की बजाय कलाकार का नाम याद रहता है तो समझिये, अभिनय बहुत बढ़िया नहीं था। याद कीजिये शोले के जय-वीरू या बसंती को, या दबंग के चुलबुल पाण्डे को या गैंग्स ऑफ वासेपुर के सरदार खान, फैजल खान, रामाधीर सिंह, परपेंडीकुलर या डेफिनिट को। उड़ता पंजाब के चरित्र कलाकारों के नाम से याद रहेंगे न कि चरित्र के नाम से।

(देश मंथन 22 जून 2016)

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