श्रीकांत प्रत्यूष, संपादक, प्रत्यूष नवबिहार :
सुप्रीम कोर्ट ने सरकारी पैसे से मन्त्रियों और नेताओं की मार्केटिंग पर रोक लगा दी है।
अदालत ने साफ कहा है कि सरकारी विज्ञापनों में प्रधानमन्त्री, राष्ट्रपति और मुख्य न्यायाधीश को छोड़कर अन्य किसी भी व्यक्ति की फोटो या विजुअल न लगाया जाये। जिन तस्वीरों की छूट कोर्ट ने दी है, उनका इस्तेमाल कैसे किया जाए, यह फैसला सरकार पर ही छोड़ दिया गया है, लेकिन इनमें से किसी के भी फोटो का इस्तेमाल करने से पहले उसकी सहमति लेना जरूरी होगा। सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला स्वागत योग्य है, लेकिन प्रधानमन्त्री की तस्वीर विज्ञापनों में छपेगी और मुख्यमन्त्रियों की तस्वीर पर रोक लगेगी तो विरोध स्वाभाविक रूप से होगा। आज देश और प्रदेश में किसी एक पार्टी की सरकार नहीं है। केंद्र में बीजेपी की तो प्रदेशों में गैर-बीजेपी सरकारें हैं। सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले से नेताओं को आइना दिखाने का काम किया है, अगर नेता आगे का फैसला खुद कर लें तो लोकतन्त्र की साख के साथ साथ उनकी प्रतिष्ठा भी बच जायेगी ।
कायदे से सरकारी विज्ञापनों में या तो प्रधानमन्त्री के साथ-साथ मुख्यमंत्रियों की तस्वीर छपने की भी छूट होनी चाहिये या फिर न प्रधानमन्त्री और ना ही मुख्यमन्त्री, केवल महापुरुषों की तस्वीर के इस्तेमाल का नियम होना चाहिए। अगर ऐसा हुआ तो विरोध की कोई गुंजाइश ही नहीं रहेगी। क्योंकि विरोध करने पर हमारे महापुरुषों के प्रति उनके दिखावे के आदर और सम्मान की बात जनता के सामने आ जायेगी। योजनायें जिन महापुरुषों के सिद्धान्तों और विचारों से मेल खाती हों, अगर उनकी तस्वीर विज्ञापनों में छपे तो सन्देश ज्यादा प्रभावशाली और भरोसेमन्द होगा। मसलन स्वच्छता अभियान के विज्ञापन में अगर गाँधी की तस्वीर छपेगी तो विज्ञापन ज्यादा प्रभावी और भरोसेमन्द माना जायेगा। विज्ञापन में दिये गये सन्देश और उसमे छपने वाली तस्वीर के बीच सामंजस्य बेहद जरूरी है। गाँधी अपने आप में स्वच्छता के प्रतीक हैं। उसी तरह से सभी लोक-कल्याणकारी योजनाओ को भी उन महापुरुषों के नाम के साथ जोड़ा जाना चाहिए जिनकी पहचान किसी जाति या पार्टी विशेष के नेता के रूप में न होकर एक महापुरुष के रूप में हो। दलितों-वंचितों के अधिकार, हक-हुकुक से सम्बंधित विज्ञापनों में निश्चितरूप से डॉक्टर भीमराव अम्बेडकर की तस्वीर होनी चाहिए। सेना से सम्बन्धित विज्ञापनों में अगर लौह पुरुष पटेल की तस्वीर का इस्तेमाल हो तो जनता के बीच सन्देश और बढ़िया ढंग से जायेगा। नेता चुनाव में, सत्ता में आने के लिए और सत्ता में बने रहने के लिए इन महापुरुषों के नाम की दुहाई तो दिन-रात देते रहते हैं, लेकिन जब बात सरकारी विज्ञापनों में इन महापुरुषों तस्वीर छपवाने की उठती है तो वो बंगले झाँकने लगते हैं ।
लेकिन कोर्ट ने ऐसा आदेश पहली बार नहीं दिया है। पहले भी सुप्रीम कोर्ट सरकारी विज्ञापनों के मामले में इस तरह की गाइड लाइन जारी कर चुका है। सरकारी विज्ञापनों में न तो किसी राजनैतिक दल का चुनाव चिह्न रहना चाहिए, न ही उसका झन्डा दिखाया जाना चाहिए। तब केन्द्र सरकार की ओर से यह आपत्ति जाहिर की गई थी कि यह विषय न्यायपालिका के दायरे में ही नहीं आता। इसके लिए जन प्रतिनिधियों की जिम्मेदारी और जवाबदेही तय है। सवाल उठाया गया कि कोर्ट यह कैसे तय करेगा कि कौन सा विज्ञापन राजनैतिक लाभ के लिए बना है। आगे भी ऐसे ही तर्क दिये जा सकते हैं इसलिए इस फैसले का लागू हो पाना बहुत आसान काम नहीं होगा ।
(देश मंथन, 15 मई 2015)