पद्मपति शर्मा, वरिष्ठ खेल पत्रकार :
किसी की निजी खुन्नस ने करोड़ों टीवी दर्शकों का दिल तोड़ा।
देश का सबसे सम्माननीय कमेंटेटर हर्ष भोगले जिसका अंग्रेजी और हिंदी पर समान अधिकार रहा है और जिसे ‘वायस आफ इंडियन क्रिकेट’ कहा जाता है, बीसीसीआई की तानाशाही का शिकार हो गया। आईआईएम हैदराबाद के इस गोल्ड मेडलिस्ट को अचानक ही देश में चल रही आईपीएल कमेंट्री टीम से बर्खास्त कर दिया गया। पौने दो माह तक चलने वाली इस क्रिकेट लीग में उनकी दिलकश आवाज से प्रशंसक महरूम रहेंगे।
सुबह एक अंग्रेजी समाचारपत्र में प्रकाशित खबर पढ़ कर सन्न रह गया। सिर्फ इसलिए नहीं कि हर्षा तीन दशकों से मित्र रहा है बल्कि इसलिए कि मैं भी उन करोड़ों में एक हूँ जो उसकी जादुई आवाज के दीवाने हैं और जो दिग्गज खिलाड़ियों के बीच कमेंट्री के दौरान विशद जानकारी और जादुई आवाज से अपनी अलग ही पहचान रखता रहा है। लोग उसे प्यार से भारतीय जान आर्लट भी पुकारते रहे हैं।
बीसीसीआई के सचिव अनुराग ठाकुर और आईपीएल की संचालन समिति के मुखिया राजीव शुक्ला ने जब इस प्रकरण पर कुछ भी बोलने से इनकार कर दिया तभी समझ आ गया कि यह निजी खुन्नस का परिणाम है। बीसीसीआई अध्यक्ष शशांक मनोहर के स्वभाव से जो थोड़ा भी परिचित है वह जानता है कि वह कितने अकड़ू हैं और कुछ अंशों में आप उन्हें खब्ती भी कह सकते हैं। पहली नजर में भोगले के निष्कासन का कारण टी-20 विश्व कप में भारत और न्यूजीलैंड के बीच नागपुर में खेले गये मैच के दौरान, जिसमें मेजबानों की करारी शिकस्त हुई थी, बीसीसीआई अधिकारियों के साथ उनकी हुई तीखी झड़प को माना जा रहा है। परंतु बोर्ड के एक नजदीकी सूत्र के अनुसार बीसीसीआई की लगातार आलोचना करने से उन पर यह गाज गिरी। नागपुर की टर्निंग पिच पर भारत के 79 पर सिमटने के बाद जाहिर है आलोचना होनी ही थी और खेल के इस फटाफट संस्करण के लिए पिच कहीं से भी साजगार नहीं थी। सभी ने आलोचना की। भोगले भी अपवाद नहीं थे।
बहुतेरे पाठकों को शायद जानकारी न हो कि ब्राडकास्टर को बोली के पहले एक करार पर दस्तखत करने होते हैं जिसके तहत बोर्ड के ही अधिकृत कमेंटेटरों को टीम में लेना होगा। यानी जो बोर्ड की जी हुजूरी करे उसी को मैच के दौरान माइक थामने का अधिकार मिलेगा। कमेंटेटर बोर्ड की आलोचना नहीं कर सकता। क्रिकेट पंडित, पूर्व खिलाड़ी भी करार पर साइन करते हैं। बताते हैं कि बोर्ड का गुणगान करने के लिए एक आइकॉन सहित दो पूर्व क्रिकेटरों को प्रतिदिन के हिसाब से एक लाख दिये जाते थे। यानी साल में उनको तीन करोड़ों पैंसठ लाख मिलते थे बोर्ड की मार्केटिंग की एवज में। श्रीनिवासन के समय तक यह व्यवस्था थी। पता नहीं मुदगल और लोढ़ा आयोगों ने इस ओर सुप्रीम कोर्ट का ध्यान आकृष्ट कराया या नहीं परंतु यह बीसीसीआई की मनमानी-तानाशाही का एक और उदाहरण है। यही कारण है कि जो कमेंट्री का अपना रोमांच होता था, वह जाता रहा, आज उसका स्थान नीरसता और उबाऊपन ने ले लिया है। जिसमें तनिक भी स्वाभिमान होगा वह ऐसे माहौल में कमेंट्री के पहले लाख बार सोचेगा।
नागपुर में मैच के दौरान हिंदी और अंग्रेजी के कमेंट्री बाक्स अलग-अलग कर दिए गये थे। जिनको दोनों भाषाओं में बोलना था उनको बार-बार तीन मंजिल चढ़ना-उतरना पड़ता था। परेशानी का सबब यही था। आयोजकों ने वहाँ ताला जड़ रखा था जहाँ से आने-जाने में सुविधा रहती। इसी को लेकर हर्षा की झड़प हुई थी और जिसे बेजा हरकत कतई नहीं कहा जा सकता।
बहरहाल कुल मिला कर मामला इस झड़प के कारण नहीं, बल्कि यह उस शख्स की अक्खड़ता है, जिसे खुद के खिलाफ सुनना कतई बर्दाश्त नहीं, लेकिन यह कैसी विडम्बना है कि इसके चलते करोड़ों क्रिकेट प्रेमी हर्षा की वाणी, जिसकी लोकप्रियता ट्विटर पर उनके 36 लाख फालोअर खुद ही साबित कर देते हैं, आईपीएल में पहली बार सुनने से वंचित रहेंगे।
(देश मंथन, 12 अप्रैल 2016)