पार्क में बैठे ओशो – मानो अभी बोल उठेंगे

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विद्युत प्रकाश मौर्य, वरिष्ठ पत्रकार :

पुणे शहर से कई लोगों को रिश्ता जुड़ा है। कभी यह गाँधी और अंबेडकर का शहर था। तो पुणे आध्यात्मिक गुरु आचार्य रजनीश यानी ओशो की भी स्थली रही है। ओशो अमेरिका से वापस आने के बाद अपने आखिरी वक्त में यहीं पर रहे। पुणे ही क्यों भला। एक तो पुणे का मौसम है जो काफी लोगों को अपनी ओर खिंचता है।

मुंबई के रहने वाले लोग भी यहाँ घर बना कर रहना पसंद करते हैं। चाहे वे लता मंगेश्कर हों या फिर सचिन तेंदुलकर। पुणे का मौसम सदाबहार रहता है। न सरदी ज्यादा पड़ती है न गरमी ज्यादा। मुंबई से तीन घंटे का रास्ता है। आसपास में घूमने के लिए भी तमाम लोकेशन हैं। पुणे में ओशो ने अपना आश्रम बनाया कोरेगांव पार्क इलाके में। यह शहर का पॉश इलाका है। रेलवे स्टेशन से ज्यादा दूर भी नहीं है।

मैं पुणे में  बंद गार्डन रोड पर होटल ला रॉस में ठहरा था। मेरी इच्छा ओशो के आश्रम का इलाका देखने की थी। सो सुबह का मार्निंग वाक शुरू किया। हमारे होटल के पास शहीद हेमंत करकरे चौक से सीधा रास्ता कोरेगांव पार्क की ओर जाता है। करीब दो किलोमीटर पैदल टहलते हुए जाने के बाद ओशो पार्क का इलाका आ गया। एक दाहिनी तरफ मुड़ रही सड़क में जाने पर ओशो कम्यून का प्रवेश द्वार मिला। आम लोगों के लिए ओशो कम्यून के प्रवेश द्वार पर एक प्रदर्शनी है जो दिन में खुलता है। ओशो इंटरनेशनल मल्टी मीडिया गैलरी सुबह 9.00 से दोपहर 1.00 बजे और दोपहर 2.00 से शाम 4.00 बजे तक लोगों के लिए खुलता है। मैं सुबह सुबह पहुँचा था इसलिए प्रदर्शनी देख नहीं सका। ओशो कम्यून कोरेगाँव पार्क लेन नंबर वन में है। लेन नंबर वन में दोनों तरफ हरियाली नजर आती है और शांति का एहसास होता है। आसपास में कुछ होटल हैं, जहाँ अच्छी संख्या में विदेशी नजर आते हैं। ओशो के भक्त दुनिया भर में हैं जो पुणे पहुँचते रहते हैं। इसी सड़क पर साधु टीएल वासवानी का हास्पीटल है। इस अस्पताल में मेरे बीएचयू के जमाने को दोस्त गौतम शरण कैंसर स्पेशलिस्ट हैं। हालाँकि वे शहर में नहीं थे इसलिए उनसे मिलना नहीं हो सका।

कोरेगाँव पार्क के लेन नंबर 2 में ओशो तीर्थ पार्क है। ये हरा भरा पार्क, जिसमें आप सुबह टहल सकते हैं। पार्क के अंदर सुंदर झरने हैं। पार्क सुबह से शाम तक खुला रहता है। यहाँ कई बार दो दिल मिल रहे हैं चुपके-चुपके सा नजारा दिखायी देता है। पार्क के अंदर एक जगह बाँस के झुरमुट के आगे ओशो की पत्थर की बैठी हुई प्रतिमा नजर आती है। प्रतिमा को देख कर लगता है मानो अभी ओशो बोल उठेंगे।

ओशो पार्क से रास्ते में लौटते हुए जर्मन बेकरी दिखायी देती है। छोटी सी जर्मन बेकरी विदेशियों से गुलजार रहती है, खास तौर पर शाम को। जर्मन बेकरी से कुछ याद आता है आपको..

(देश मंथन  12 अप्रैल 2016)

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