गोरक्षा विमर्श

0
381

राकेश उपाध्याय, पत्रकार :

भए प्रकट कृपाला, दीनदयाला…

बिप्र धेनु सुर सन्त हित लीन्ह मनुज अवतार।… (बालकांड-192)

दीन-आम जनों की करुण पुकार सुन ली प्रभु ने और प्रकट हुए धरती पर असुरों के पाप से काँपती धरती को बचाने के लिए।…ब्राह्मण (सज्जन और सदा अध्ययन-अध्यात्म में निरत), गौमाता, देवता और सज्जनों के हित के लिए भगवान ने धरती पर मनुष्य शरीर धारण किया।…

ये तो थी बात भगवान राम की। असुर-राक्षसों के प्रकोप से गोवंश की रक्षा के लिए भी भगवान का अवतार होता है, यह भारत की अनादिकाल से लोकमान्यता है।

भगवान कृष्ण के बारे में कहा ही क्या जाए। नाम ही पड़ गया गोपाल। ऐसा धन्यदेश भारत जहाँ के ईश्वर भी गोपालन करते रहे।

तो क्या राम और कृष्ण से ज्यादा वेदों के जानकार थे अंग्रेज? वेद व्यास, वाल्मीकि मुनि, आदि शंकराचार्य और तुलसी से ज्यादा अंग्रेजों ने पढ़ ली थी संस्कृत? वेद श्रुत परंपरा में रहे हजारों साल तक। युगों तक ब्राह्मणों की पीढ़ियों ने दरिद्रता की चादर ओढ़े रखी किन्तु वेद पाठ का काम नहीं छोड़ा। वेदों के हजारों श्लोक याद करके कंठस्थ करके सही भाव और सही अर्थ के साथ पीढ़ियों तक हस्तांतरित होते रहे। राम को वेद पढ़ाया वशिष्ठ ने और विश्वामित्र ने। कृष्ण को पढ़ाया संदीपन ऋषि ने। लेकिन किसी गुरुकुल में कभी किसी ने किसी वेद में ये पाठ नहीं पढ़ा कि गोवंश का वध वैदिक काल में मान्य था। लेकिन वाह रे सेक्युलर अंग्रेज और धूर्त पाखंडी रिश्वतखोर बौद्धिकों। तुम्हारे झूठ का भी कोई जवाब नहीं। जो कहीं नहीं था, उसे तुमने जाने कहाँ से वेदों में लिख दिया और जो बात आज भी भारतीय समाज को स्वीकार्य नहीं, उसे जबरन हमारे मुँह में ठूँसने की कोशिश में लगे हो तुम लोग। खैर, वक्त आ गया है और तुम्हारे हर झूठ का हिसाब होगा, जरूर होगा।

मेरे मन में विचार आता है कि वेदों में गोमाँस भक्षण के बारे में जो बात अंग्रेज विद्वानों और उनके भारतीय पिट्ठुओं ने 18वीं-19वीं सदी में खोजकर निकाली, उसे आखिर त्रेतायुग में और द्वापर युग में राम और कृष्ण अपने गुरुकुलों में वेदाध्ययन के समय क्यों नहीं खोज सके। आखिर क्यों वाल्मीकि रामायण में और श्रीमद्भागवद गीता में, गीता के मूल ग्रन्थ महाभारत में जगह-जगह गोवंश को पूज्य और अवध्य कहा गया। ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद के ही श्लोक इन ग्रन्थों में दोहराये गये हैं, हर जगह गोवंश की महिमा गायी गयी है। इन तथ्यों के बाद भी अंग्रेज विचारक और उनके पिट्ठु मैकालेपुत्र और मार्क्स-पुत्र जब बार-बार अपने बीफ-आहार के व्यभिचार में वेदों का बहाना खोजकर लाते हैं, तो कभी-कभी लगता है कि क्यों न अकादमिक स्तर पर इन मैकाले और मार्क्सपुत्रों से आर-पार कर ही लिया जाए। एक जीवन इसी काम के लिए न्यौछावर। बाकी चीजें अगले जन्म में करेंगे। कुतर्की-काट-जुओं के खिलाफ बौद्धिक संग्राम जरूरी हो गया है।

शिव की स्तुति वेदों ने गायी है। शिव का स्वरूप जो भी है, उसपर अनेक पारलौकिक व्याख्याएँ हैं, लेकिन जो इहलौकिक स्वरूप बताया गया है, उसमें शिव गोवंश हितकारी हैं। नन्दी बैल शिव का वाहन है। यानी गोवंश से शिव का जहाँ इतना गहरा जुड़ाव है, वहाँ रावण भी राक्षस वंश की तमाम तामसिक वृत्तियों के बावजूद गोवंश को, शिव से जुड़ी हर चीज को पूज्य और पवित्र बताता है। शिव की जटाओं से गंगा के धरती पर अवतरण की जगह को भी गोमुख कहकर शास्त्रों में पुकारा गया तो प्रश्न उठेगा ही कि राम-कृष्ण और शिव के देश में ये कैसे बौद्धिकदां हैं, जिन्हें भारत की लोकमान्यता में खोट नजर आती है, अंग्रेजों की खून पीने की आदत में सभ्यता का श्रेष्ठ पाठ दिखता है।

गोवध तो बहुत दूर की बात है, वेदों ने तो मानवजाति को भरसक माँसाहार से ही दूर रहने की शिक्षा दी है। अहिंसा के रास्ते पर चलने के लिए बार-बार मानव समाज को निर्देशित किया गया है वेदों में। मनुष्य मन के इन्द्रिय विधान और भोगौलिक समस्याओं को समझकर वैदिक ऋषियों ने माँसाहार की प्रवृत्ति को हदों से पार न जाने देने के लिए अनेक विधिनिषेध लगाये। कठोर दन्ड देने के लिए राज्य को निर्देशित किया। उदाहरण के लिए- ऋग्वेद में कहा गया है कि-

यः पौरुषेयेण क्रविषा समंगे यो अख्येन पशुना यातुधानः। यो अघन्याया भरति क्षीरमग्ने तेषां शीर्षाणि हरसापि वृश्च।।।-ऋग्वेद-10.87.16

( जिस किसी को मनुष्य के माँस के सेवन की आदत लगे वह तो नर-पिशाच है। जो घोड़े का वध कर दे, जो गौवंश की हत्या करके समाज को दूध व कृषि के अन्य लाभ से वन्चित करें, हे राजन, ऐसे हिंसक राक्षस वृत्ति के व्यक्ति को जीने का अधिकार नहीं है। उसके सर को काट डालना ही अन्तिम दंड है, जिसे देने में देर नहीं करनी चाहिए)

लेकिन फिर भी ऋग्वेद में ही अंग्रेज विद्वानों और उनके रिश्वत से भरे-पूरे पन्डितों और अन्य लोगों ने गोवंश हत्या का और गोमाँस भक्षण का झूठ खोज निकाला। श्लोकों का गलत अनुवाद करके अर्थ का अनर्थ किया गया, इसे भारत के प्राचीन इतिहास का हिस्सा बनाया गया और दुनिया भर में प्रचारित कर दिया गया कि वैदिक काल में भी गोमाँस खाया जाता था। क्यों किया गया ऐसा क्योंकि अंग्रेज जाति को भारत ने हमेशा ही बर्बर और असहिष्णु माना। सभ्यता के किसी साँचे में भी इन्हें गिनने लायक नहीं समझा। भारत में अंग्रेजी राज के खिलाफ बगावत की भारत के लोगों ने। इन्हें विदेशी म्लेच्छ कहकर इनके बहिष्कार का ऐलान किया, गदर किया क्योंकि अंग्रेज जाति को गाय-गंगा-गीता की जमीन से दरबदर करने का संकल्प ले लिया था भारत के लोगों ने। यही वजह है कि धूर्त अंग्रेज इतिहासकारों और विद्वानों ने बदला चुन-चुनकर चुकाया, ऐसा भ्रमजाल फैलाया जिसकी गुलामी से आजतक भारतीय बौद्धिक विमर्श बाहर ही नहीं निकल पाया, कथित वर्ल्ड क्लास इंटेलेक्ट बनने की तो बात ही छोड़ दीजिए।

वंदेमातरम् के रचयिता प.बंगाल के सुप्रसिद्ध साहित्यकार बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय ने अंग्रेज जाति की इस साजिश को पहचान लिया था। कोलकाता विश्वविद्यालय के पहले ग्रेजुएट थे बंकिम बाबू। ऐसी प्रतिभा कि सीधे अंग्रेजों ने ही डिप्टी मजिस्ट्रेट बनाया। बंकिम बाबू को भी खरीदने की कोशिश हुई वेदों का अनर्थ करने में, लेकिन वह ठहरे जन्मजात देशभक्त। उन्होंने ताड़ लिया कि ये अंग्रेज बहुरुपिये अचानक संस्कृत भाषा क्यों पढ़ने लगे हैं। मैक्समूलर और अलबर्ट वेबर की वैदिक वांग्मय से नजदीकी के पीछे की साजिश को बंकिम बाबू ने न सिर्फ पहचाना बल्कि बंग भाषा में लिखी अपनी पुस्तक कृष्ण चरित के चतुर्थ परिच्छेद में पर्दाफाश भी कर दिया ताकि सनद रहे कि अंग्रेज जाति कैसा खिलवाड़ वेदों के अनुवाद में कर रही है।

कृष्ण चरित में बंकिम बाबू ने लिखा है- ‘’वेबर साहेब विद्वान हैं लेकिन मेरे विचार से जिस क्षण उन्होंने संस्कृत सीखना आरम्भ किया, भारतवर्ष के लिए वह बहुत अशुभ क्षण थे। भारतवर्ष का प्राचीन गौरव उस काल के अरण्यनिवासी बर्बर अंग्रेजों के वंशधरों के लिए असहनीय था। अतएव प्राचीन भारतवर्ष की सभ्यता यूरोप से बहुत पुरानी नहीं है, इसे ही सिद्ध करने में वेबर प्रयत्नशील बने रहे। उनके विचारों में ईसामसीह के जन्म के पहले भारत में कोई सभ्यता थी, इसे मानने का कोई कारण ही नहीं है। वेबर के मन में बहुत सी भारतीय मान्यताओं के प्रति भारी दुराग्रह है।“ ये वही वेबर है जिसने संस्कृत की डिक्शनरी यानी शब्दकोष में हेर-फेर करने मे ही सारी जिन्दगी लगाई। बंकिम बाबू की पंक्तिया बता रही हैं कि वेबर संस्कृत भाषा में क्या खोज रहा था?

इंडोलॉजी यानी भारतीय प्राच्य विद्या में प्रोफेसर विल्सन, मोनियर विलियम्स, मैक्समूलर, अलबर्ट वेबर, बोहतलिंक, रिचर्ड गार्बे, रुडॉल्फ हार्नले समेत धूर्त अंग्रेज और जर्मनी विद्वानों की टोली ने जो काम किया, उसे ऊपरी तौर पर ऐसा दिखाया गया कि इन सात समन्दर पार के लोगों ने भारत का बड़ा भला किया। लेकिन हकीकत में सच्चाई क्या थी, जब इस टोली की ओर से अनूदित वेदों का पाठ दुनिया के सामने आया तो हिन्दू धर्म का रूप विकृति के चरम पर पहुँचा दिया गया। (जारी, किश्त में)..

(देश मंथन, 23 मई 2015)

कोई जवाब दें

कृपया अपनी टिप्पणी दर्ज करें!
कृपया अपना नाम यहाँ दर्ज करें