संजय सिन्हा, संपादक, आज तक :
मेरे जैसे पत्रकार नहीं होने चाहिए। ऐसे पत्रकार बेकार होते हैं, जो मालदा की घटना पर, सियाचीन के जाबांजों की मौत पर, सुलग रहे जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय पर अपनी कलम नहीं भांजते। ऐसे पत्रकारों पर लानत है। संजय सिन्हा से कई लोगों ने गुहार लगायी है कि आप कुछ ऐसा क्यों नहीं लिखते, जिससे आपकी देशभक्ति जाहिर हो।
“आप हनुमंतथप्पा पर लिखिए, उसकी बहादुरी की कहानी लिखिए। आप जेएनयू पर लिखिए। इतने लोगों की कलम चमचमा रही है, आपकी कलम क्यों नहीं चल रही? क्या आपकी कलम की धार कुंद हो गयी है? आप कब तक ये रिश्ते-फिश्ते की कहानियाँ लिखते रहेंगे? अपने पत्रकार होने का धर्म निभाइए।”
आप सच कह रहे हैं। संजय सिन्हा जैसे पत्रकार नहीं होने चाहिए। मेरे इतने दिनों की पत्रकारिता के करियर में मैं इतना ही कह सकता हूँ कि दिल्ली में जितने भी पत्रकार हैं, उनमें से आधे के साथ मैंने कभी न कभी कहीं न कहीं काम किया है। यह आंकड़ा आपको थोड़ा ज्यादा लग सकता है, पर हकीकत यही है कि सीनियर, जूनियर, सबके साथ किसी न किसी रूप में मेरा जुड़ाव रहा है। कभी प्रिंट में, कभी इलेक्ट्रानिक मीडिया में। मेरे सीनियर, मेरे साथ वाले, मेरे जूनियर, न जाने कितने ऐसे पत्रकार हैं, जिनकी कलम की निब फेसबुक और सोशल साइट्स पर चमचमा रही है। पर मेरी कुंद पड़ी है।
जानते हैं क्यों?
क्योंकि मेरे पिताजी कहा करते थे कि अगर तुम्हारे पास बंदूक हो तो इसका मतलब ये नहीं कि तुम उसे जहाँ-तहाँ दागते रहो।
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जिन लोगों को यह लगता है कि सभी पत्रकारों को दिल्ली के जेएनयू की घटना पर अपनी राय रखनी चाहिए, उनसे मेरा इतना ही अनुरोध है कि ऐसी घटनाओं को तूल देने से किसी को मजा चाहे जितना आए, पर समस्या कम नहीं होगी, बढ़ेगी। असल में भारत में पत्रकारिता की पढ़ाई ही ठीक से नहीं करायी जाती। यहाँ पत्रकारिता और राजनीति को कुछ इस तरह जोड़ दिया गया है कि पत्रकार सिर्फ इस्तेमाल होने का हथियार बन कर रह गये हैं, और इसकी शुरुआत हुई देश की आजादी की लड़ाई से।
तब अखबार और पत्रकार का इस्तेमाल अंग्रेजी हुकूमत से लड़ने के लिए शुरू हुआ था। ज्यादातर पत्रकार स्वतंत्रता की लड़ाई के हिस्सा थे। हम पर विदेशी हुकूमत थी। वहाँ से पत्रकारिता ने आंदोलन का रूप ले लिया। धीरे-धीरे आंदोलनकारी रिपोर्टर बन गये, विचारक संपादक बन गये।
पर तब यह समय की माँग थी। आंदोलन को घर-घर पहुँचाने का यह सबसे कारगर जरिया था।
देश आजाद हुआ। सबको बोलने, लिखने की छूट मिलने लगी। कोई कहीं भी, कुछ भी बोल सकता था। सबको अभिव्यक्ति की आजादी मिल गयी।
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पर मैं उस दौर का पत्रकार नहीं हूँ।
मैं इत्तेफाक से पत्रकारिता में नहीं आया। मैंने ठीक से पढ़ाई नहीं की, कहीं बैंक में क्लर्क की नौकरी भी नहीं मिली, इसलिए पत्रकारिता में चला आया, ऐसा नहीं है। मैं स्कूल-कॉलेज में मेधावी विद्यार्थी था और सबकुछ सोच-समझ कर पत्रकारिता में आया था। मैं ऐसे तमाम लोगों को जानता हूँ, जिन्हें डॉक्टर, इंजीनियर, आईएएस, आईपीएस, बैंक में बड़ा बाबू बनने का मौका नहीं मिला, इसलिए वो पत्रकार बन गये।
इनमें से ढेरों लोगों को फेसबुक पर लिखने का जब मौका मिला, तो आग उगलने लगे। हर कोई विचारक बन गया। जबकि अखबार में यह काम सिर्फ संपादक का होता है। बाकी लोग रिपोर्टर होते हैं। वो जिस खबर को जिस तरह देखते हैं, उस तरह बयाँ करते हैं। खबर में तड़का लगाना रिपोर्टर का काम नहीं होता। नहीं होना चाहिए।
मुझे नहीं पता कि जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में क्या हुआ। पर वहाँ पाकिस्तान जिन्दाबाद के नारे अगर लगे थे, तो यह अभिव्यक्ति की आजादी का दुरुपयोग था। पर ऐसे में विचारों के लट्ठ भाँजने से बेहतर है कि पुलिस, सरकार, प्रशासन को उनका काम करने दिया जाए, बजाए इसके कि जिसके हाथ में जो है, वो उसे शब्द बना कर यूँ ही हवा में उछाल दे।
याद रखिए, गोली के जख्म भर जाते हैं। शब्दों के जख्म सदैव ताजा रहते हैं।
मैं ऐसे विषयों पर इसलिए नहीं लिखता क्योंकि मैं देश, सरकार, प्रशासन जैसी संस्था पर यकीन करने वाला व्यक्ति हूँ। मुझे जहाँ विरोध भी करना होता है, मैं उसके लिए भी शालीन तरीका ही अपनाना चाहता हूँ। मुझे देशभक्त होने के लिए अंधेरे में तीर चलाने की दरकार नहीं। जिसने जो किया, वो उसकी सजा भुगतेगा। जैसे अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर अपने देश में बैठ कर पाकिस्तान जिन्दाबाद के नारे लगाना बोलने की आजादी का दुरुपयोग है, उसी तरह बिना विषय की सच्चाई को जाने-समझे अपनी कलम को चमकाना भी अभिव्यक्ति की आजादी का दुरुपयोग है।
आपको नहीं पता, पर बहुत छोटी-छोटी हरकतों की वजह से देश गृह युद्ध में फंस जाता है। बोलिए, लिखिए, मगर संभल कर। धरना दीजिए, मोमबत्ती जलाइए, मगर इस बात को जान कर कि आप जो कर रहे हैं, उसका असर क्या होगा।
अगर आपके पास कलम रूपी बंदूक, शब्द रूपी गोलियाँ और मुफ्त में सोशल साइट्स जैसा मैदान हैं, तो आपकी जिम्मेदारी और बढ़ जाती है।
आपको क्या बताऊँ, आप मुझसे अधिक समझदार हैं।
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ओह! मैं इतना क्यों बोल रहा हूँ। मैं तो रिश्तों की कहानियाँ सुनाता हूँ। मैं तो इतना ही जानता हूँ कि लकड़ी छीलने से मुलायम होती है, बात छीलने से खुरदुरी होती है।
(देश मंथन 17 फरवरी 2016)