हम जो देते हैं, वही पाते हैं

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संजय सिन्हा, संपादक, आज तक :

इंदिरा गाँधी कहा करती थीं, “बातें कम, काम ज्यादा।” मैं तब उनके इस कहे का मतलब नहीं समझ पाता था। पर एक दिन पिताजी ने मुझे समझाया कि जो लोग ज्यादा बातें करते हैं, वो काम कम करते हैं। आदमी को काम अधिक करना चाहिए। इससे आदमी का, देश का, समाज का और दुनिया का विकास होता है। मेरी समझ राजनीतिक तो थी नहीं, इसलिए मैंने पिताजी से पूछ लिया था कि आखिर इंदिरा गाँधी को ऐसा कहने की जरूरत ही क्यों आ पड़ी? अगर यह सही है कि काम करने से आदमी का विकास होता है, तो ये बातें किताब में लिखी होनी चाहिए थी। मेरे स्कूल के मास्टर साहब को बतानी चाहिए थी।

पिताजी मेरे स्वभाव को जानते थे। वो जानते थे कि उनका भोला बेटा, जिसकी राजनीतिक समझ शून्य है, वो इंदिरा गाँधी पर अब दस सवाल खड़े करेगा। बात लंबी न खिंचे, इसलिए पिताजी मुझे समझाते कि महत्वपूर्ण यह नहीं कि ‘कौन’ कह रहा है। महत्वपूर्ण यह है कि ‘क्या’ कह रहा है। पिताजी कम बोलते थे। ऐसे में इन दो वाक्यों में वो मुझे ये समझाने में कामयाब रहे कि ‘कौन’ कह रहा है, इसकी परवाह मत करो। सिर्फ यह समझने की कोशिश करो कि ‘क्या’ कहा जा रहा है। कहने वाला कोई भी हो, अगर तुम्हारे काम की बात है, तो तुम उसे अपनी जिन्दगी में अमल में ला सकते हो।

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अब राजनीति मेरी समझ से परे की चीज है, तो मैं राजनीति की बातें ज्यादा देर तक कर ही नहीं सकता। फिर क्या करूँ? कोई कहानी सुनाओ संजय सिन्हा। राजनीति पर चीर-फाड़ तो पूरा देश कर रहा है। कोई काम नहीं कर रहा, सब बातें कर रहे हैं। संसद से लेकर टीवी तक पर बहस चल रही है। सभी अपनी ढपली बजा रहे हैं, कोई किसी की नहीं सुन रहा। तुम भी अपनी कहानी वाली ढपली बजाओ।

ओह! मैं तो भूल ही गया था। मुझे कहानी सुनानी है। मुझे बड़ी-बड़ी बातें नहीं करनी। मुझे तो काम करना है। तो शुरू हो जाओ, सुनाओ आज की कहानी। कोई कहानी नहीं याद आ रही तो वही कहानी सुना दो, जिसे तुम्हें किसी ने भेजी है। हाँ, हाँ वही कहानी सुनिए जिसे किसी ने मुझे भेजी है। मुझे कहानी अच्छी लगी। आपको भी अच्छी लगेगी।

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एक आदमी के पास एक गाय थी। उसकी आमदनी का कुल स्रोत बस गाय से मिलने वाला दूध था। वो दूध निकालता, उसकी पत्नी उससे दही बनाती, पनीर बनाती, छेना बनाती और आदमी उसे गाँव वालों को बेच देता। उससे जो पैसे मिलते, उससे उसका गुजारा चल जाता। एक बार उसकी पत्नी ने उसे मक्खन तैयार करके दिया और कहा उसे शहर में जाकर बेच आये। सुना है वहाँ ज्यादा पैसे मिलते हैं। आदमी मक्खन लेकर शहर की ओर निकल पड़ा। उसकी पत्नी ने ढेर सारा मक्खन एक-एक किलो के गोले के रूप में बना कर, तराजू में तौल कर उसे दिया था। आदमी मक्कन लेकर दुकान में पहुँचा। दुकानदार ने मक्खन देखा और सारा मक्खन खरीद लिया। मक्खन के उन गोलों को उसने फ्रिज में रख दिया। आदमी मक्खन के बदले उस दुकानदार से आटा, चावल, दाल, चीनी वगैरह खरीद कर गाँव लौट आया। 

आदमी के चले जाने के बाद अचानक दुकानदार को लगा कि उसे उन मक्खन के गोलों को तौल कर देखना चाहिए कि क्या सचमुच वो एक-एक किलो के हैं। वैसे आदमी तो ईमानदार लग रहा था, फिर भी जाँच करने में क्या बुराई है। उसने मक्खन के एक गोले को तौला। वो गोला सौ ग्राम कम था। दूसरा गोला तौला, वो भी सौ ग्राम कम। दुकानदार ने एक-एक करके सारे गोले तौले। सभी गोले सौ ग्राम कम थे। 

दो दिनों बाद गाँव से वही आदमी फिर मक्खन लेकर दुकान में पहुँचा। उसने दुकानदार से राम-राम की और एक-एक किलो के मक्खन के गोले उसके सामने रख दिए। दुकानदार उसे देखते ही बिफर पड़ा। “तुम चोर हो। बेईमान हो। झूठे हो। मक्कार हो। तुम पर भरोसा करके मैंने बिना तौले हुए तुमसे मक्खन के गोले एक-एक किलो समझ कर ले लिए। पर सारे गोले सौ-सौ ग्राम कम निकले।”

आदमी चौंका। 

“नहीं हुजूर ऐसा नहीं हो सकता। कोई न कोई भूल हुई है। मेरी पत्नी ने अपने हाथों से एक-एक गोले को तौला है। हुजूर मैं गरीब आदमी हूँ, हमारे पास तो तौलने के लिए किलो का बाट तक नहीं। मैं जो एक किलो चीनी आपसे खरीद कर ले जाता हूँ उसे ही मेरी पत्नी तराजू के दूसरे पलड़े पर बाट बना कर रखती है और उसी से मक्खन तौलती है।”

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यह बात इंदिरा गाँधी ने नहीं कही है। पिछले दो दिनों में संसद और जेएनयू में हुए भाषण में भी किसी ने नहीं कही है। पर सच यही है कि हम जो देते हैं, वही पाते हैं। चाहे बात इज्जत की हो, सम्मान की हो या फिर धोखा की।

(देश मंथन 04 मार्च 2016)

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