संजय कुमार सिंह, संस्थापक, अनुवाद कम्युनिकेशन:
हिन्दी में नौकरी की संभावनाएँ लगातार कम हुई हैं। हो रही हैं। एक समय था जब हिन्दी टाइपराइटर पर कोई ऐसा-वैसा बैठ भी नहीं सकता था। टाइपिंग से अनजान व्यक्ति शायद एक शब्द भी टाइप नहीं कर पाता। अगर हिन्दी में काम करना है, कुछ भी, कितना भी तो हिन्दी टाइपिस्ट के बिना काम नहीं हो सकता था। इसलिए ज्यादातर दफ्तरों में बिना काम के भी टाइपिस्ट होते थे या वहाँ काम ही ना हो तो अलग बात है।
लेटर प्रेस कंपोजिंग के जमाने में हिन्दी के कंपोजिटर, प्रूफ रीडर सब अलग होते थे और बगैर किसी जानकार प्रूफ रीडर तथा कंपोजिटर के, एक शब्द भी करेक्ट करना लगभग असंभव था। लेटर प्रेस का शायद ही कोई मालिक एक लाइन का करेक्शन भी खुद कर सकता हो। फिर कंप्यूटर आए। कंप्यूटर ने कंपोजिटर और प्रूफ रीडर की नौकरी खत्म कर दी। नए ऑपरेटर आए।
कुछ साल इनका काम रहा – जब हिन्दी के लेखक, पत्रकार, साहित्यकार खुद टाइप नहीं करते थे। ये वो वाली पीढ़ी थी जब माना जाता था कि टाइपिंग करना यानी बाबू बनना। इसलिए टाइपिंग सीखने वाले अलग लोग होते थे। जिनका काम अब लगभग रहा ही नहीं। दूसरी ओर, लेखक, पत्रकार साहित्यकार होना बाबू होने से कहीं ऊपर का काम माना जाता था इसलिए टाइपिंग सीखना अपमान का काम था। ऐसे कई लोगों ने कंप्यूटर को हाथ तक नहीं लगाया। पर अब तो सब लोग खुद कंप्यूटर पर लिख रहे हैं। ऐसे में कंपोजिटर और प्रूफ रीडर की नौकरी (लगभग) गयी। संपादक के लिखे का संपादन और उसकी प्रूफ रीडिंग? क्या जरूरत है। कंप्यूटर से हिन्दी में डिजाइनिंग का एक नया काम जरूरत शुरू हुआ है पर यह इतना तकनीकी और मुश्किल है कि हिन्दी वालों ने यह काम सीखा ही नहीं (क्या पता कितने दिन चले)। अभी स्थिति यह है कि हिन्दी की पत्रिकाएँ डिजाइन करने का काम ज्यादातर अंग्रेजी वाले कर लेते हैं और इसमें ऐसे लोग भी हैं जो छोटी-बड़ी मात्रा का भेद नहीं जानते। फिर भी काम हो ही रहा है।
इस तरह, कहा जा सकता है कि कंप्यूटर से हिन्दी में कोई काम नहीं बढ़ा है। उल्टे कम हुआ है। आसान हुआ है, यह अलग बात है। स्थितियाँ बता रही हैं कि टाइपिस्ट-स्टेनो की जरूरत लगभग नहीं रहेगी। अंग्रेजी में नहीं ही है। बोल कर टाइप करने वाले सॉफ्टवेयर अंग्रेजी में हैं, देर-सबेर हिन्दी में भी आ जाएँगे। स्कैन की हुई फाइल को सॉफ्ट कॉपी या पीडीएफ को वर्ड डॉक्यूमेंट बनाने की सुविधा है। हिन्दी में भी हो ही जाएगी। इसलिए, हिन्दी में सिर्फ टाइपिंग का कोई बड़ा काम नहीं निकलने वाला। स्थिति यह है कि अखबारों में जहां 30-40 ऑपरेटर का पीटीएस विभाग होता था अब उसकी जरूरत नहीं रही। इसके साथ प्रूफ रीडर, चपरासी आदि के काम भी खत्म हो रहे हैं।
बीबीसी से लेकर तमाम रेडियो स्टेशनों के लिए अब हिन्दी वालों के लिए पहले जैसी नौकरियाँ नहीं हैं, टाइम्स समूह की हिन्दी की ज्यादातर पत्रिकाएँ बंद हो चुकी हैं और ये सब हिन्दी में अच्छी नौकरी देने वाले संस्थान थे – अब नहीं हैं। इनकी जगह जो नए-पुराने अखबार पत्रिकाएँ चल रही हैं उनमें अच्छी नौकरी की संभावना नहीं है। दैनिक अखबार ना हो तो साप्ताहिक तक में पीर बावर्ची भिश्ती खर – एक ही आदमी पर्याप्त है। दैनिक अखबार – एक जगह पेज बनने के बाद चाहे जितने शहरों – राजधानियों से छाप लीजिए। सिर्फ शहर या सिटी पेज अलग से बनेगा। रिपोर्टर अब कंप्यूटर पर टाइप की हुई खबर फाइल करते हैं और उनमें से कोई एक या एक पेज इंचार्ज सारी खबरें एडिट करके पेज भी बना देता है। पेज के पेज और पूरा का पूरा वेबसाइट सॉफ्टवेयर से अनुवाद हो जा रहा है, लिप्यातंरण भी। इसलिए वेबसाइट पर भी हिन्दी वाले की नहीं, दोनों भाषा जानने वालों की पूछ है।
इसलिए अखबार के चाहे एडिशन बढ़ें या पेज – नौकरी नहीं बढ़ने वाली। लाला का पेट इतना बड़ा है कि तनख्वाह भी नहीं बढ़ने वाली। हिन्दी में क्वालिटी, शुद्धता और मानक वैसे नहीं है। इसलिए संपादन और संपादक की जरूरत भी नहीं के बराबार है। बताइए हिन्दी में कहीं और नौकरी बढ़ी है क्या। टीवी रेडियो में नौकरी करने के लिए हिन्दी जानने से ज्यादा जरूरी बहुत दूसरी चीजें हैं और जिनके पास सब कुछ है वो हिन्दी वाला कहाँ है और उसकी नौकरी हिन्दी के खाते में क्यों गिनी जाए। हिन्दी में एक अदद संपादक की जरूरत होती थी पर अब वो मालिकान खुद होते हैं। हाँ, पीआरबी अधिनियम के तहत खबरों के चयन (यानी मुकदमे लड़ने-झेलने) के लिए जिम्मेदार एक व्यक्ति की जरूरत होती है। वह शायद बनी हुई है हालाँकि, मालिकान यहाँ भी जोखिम ले-ले रहे हैं और यह पद भी खाली रह जा रहा है। दूसरी ओर, इसी कारण खबरों की धार कुंद हुई है – पर वो अलग मुद्दा है।
(देश मंथन, 15 सितंबर 2015)