बिहार में किसकी हार?

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कमर वहीद नकवी , वरिष्ठ पत्रकार :

बिहार विधानसभा चुनाव। बिहार में किसकी हार? सवाल अटपटा लगा न! लोग पूछते हैं कि चुनाव जीत कौन रहा है! लेकिन यहाँ सवाल उलटा है कि चुनाव हार कौन रहा है? बिहार के धुँआधार का अड़बड़ पेंच यही है! चुनाव है तो कोई जीतेगा, कोई हारेगा। लेकिन बिहार में इस बार जीत से कहीं बड़ा दाँव हार पर लगा है! जो हारेगा, उसका क्या होगा?

नरेन्द्र मोदी और नीतीश के बीच यह दूसरा महायुद्ध है। पहले में नीतीश बुरी तरह खेत रहे। हार बड़ी महँगी पड़ी उन्हें। उस हार से वह ऐसा विचलित न हुए होते तो पता नहीं बिहार में जीतन राम माँझी इस तरह उभरे होते या नहीं! और फिर जिस लालू प्रसाद यादव के खिलाफ उन्होंने बीजेपी का पल्लू थामा था, उसी बीजेपी से बचने के लिए उन्हें वापस लालू की ड्योढ़ी पर नहीं जाना होता! राजनीति में कभी-कभी एक पल की गलती पूरा भविष्य बदल देती है और कभी-कभी एक हार ऐसा लाचार कर देती है कि पूछिए मत! और अब पन्द्रह महीने बाद पाटलिपुत्र की दूसरी लड़ाई में अगर नीतीश फिर हार गये तो? क्या होगा उनका? उनके ‘महागठबन्धन’ का, लालू प्रसाद यादव का?

उतार पर मोदी की चमकार!

और उधर नरेन्द्र मोदी-अमित शाह की जुगल जोड़ी! केजरीवाल की झाड़ू से दिल्ली से बुहार दिये जाने के बाद अपनी अगली लड़ाई में बीजेपी अगर बिहार विधानसभा चुनाव में भी हार गयी तो क्या मुँह रह जायेगा? मोदी सरकार के पन्द्रह महीने के कामकाज से संघ पहले ही असहज है। हफ्ते भर पहले ही वह मोदी, अमित शाह और पूरी सरकार की क्लास लगा चुका है और साफ सन्देश दे चुका है कि संघ को क्या पसन्द है और क्या नहीं!  उधर जनता में भी ‘महामानव’ मोदी की चमकार अब उतार पर है, वरना ‘मोदी मैजिक’ चलता और बढ़ता रहता तो चाहे मन मसोस कर ही सही, संघ भी शायद चुपचाप ‘नमोवत’ ही पड़ा रहता। क्योंकि मई 2014 की मोदी-सुनामी के बाद संघ को लगा कि किस्मत की चाबी  उसके हाथ लग ही गयी है और अब भारत पर उसका चक्रवर्ती साम्राज्य स्थापित हो सकता है! इसीलिए मोदी सरकार बनते ही नये बीजेपी अध्यक्ष के लिए अमित शाह के नाम की मोदी की फरमाइश मानने का बहुत बड़ा जोखिम भी संघ ने आँख बन्द कर उठा लिया था क्योंकि अमित शाह को यही कह कर पेश किया गया था कि वह बीजेपी को ऐसी अजेय सेना में बदल देंगे जो हर चुनाव जीतने की कला में निपुण हो! और अगर संघ को यह लक्ष्य हाथ में आता हुआ दिखता तो फिर मोदी-शाह के लिए उसने डोर कुछ दिन और ढीली छोड़ दी होती! लेकिन केजरीवाल के हाथों हार के बाद के छह महीनों में ‘ब्राँड मोदी’ की लगातार मद्धम पड़ती अपील से संघ का धैर्य चुक चुका है!

अमित शाह की ‘चुनावी जादूगरी’ का मिथक!

और अगर बिहार में हार होती है तो अमित शाह की ‘चुनावी जादूगरी’ का वह मिथक ध्वस्त हो जायेगा, जो महाराष्ट्र, हरियाणा, झारखंड और जम्मू-कश्मीर में मिली लगातार जीत से बना था। और फिर पार्टी में और संघ के लिए अमित शाह की उपयोगिता क्या रह जायेगी? जनवरी 2016 में बीजेपी के नये अध्यक्ष का चुनाव होना है और उसी साल असम, पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, केरल और पंडुचेरी विधानसभाओं के चुनाव हैं। वैसे असम की लड़ाई तो बीजेपी के लिए इस बार काफी आसान दिख रही है। पार्टी अगर बिहार जैसा कठिन चुनाव जीत गयी तो यकीनन वह आगे होने वाले विधानसभा चुनावों में नये जोश से उतरेगी और ‘मोदी मैजिक’ के धुँधलाने जैसी बातों को खारिज कर सकेगी। लेकिन बीजेपी अगर बिहार हार जाती है तो फिर आने वाले चुनावों में विपक्ष कुछ ज्यादा आत्मविश्वास से उतरेगा।

क्या पिछला गणित काम करेगा?

वैसे बिहार का चुनाव है बड़ा कठिन। गणित से देखें तो लगता है कि ‘महागठबन्धन’ के सामने बीजेपी टिक ही नहीं पायेगी! देश में भी और बिहार में भी बीजेपी का सर्वोत्तम प्रदर्शन पिछले लोकसभा चुनाव में ही रहा है। हालाँकि उसके बाद जितने विधानसभा चुनाव हुए, उनमें बीजेपी के वोटों में लोकसभा चुनाव के मुकाबले छह से 8% की गिरावट ही देखी गयी। लेकिन फिर भी अगर हम एक पल के लिए मान लें कि बीजेपी और उसकी सहयोगी पार्टियों को बिहार विधानसभा चुनाव में भी कम से कम उतने वोट मिलेंगे, जितने उन्हें लोकसभा चुनाव में मिले थे, तब भी गणित बीजेपी के विरुद्ध है। तब बीजेपी+एलजेपी+आरएलएसपी गठबन्धन को 38.77% वोट मिले थे और आज के ‘महागठबन्धन’ की पार्टियों को तब कुल मिला कर 45.06% वोट मिले थे। बीजेपी गठबन्धन में माँझी की पार्टी को मिलनेवाले सम्भावित 1% वोट जोड़ भी दें तो भी उसका वोट प्रतिशत 40 से आगे नहीं बढ़ता दिखता। बहरहाल, इस हिसाब से बीजेपी गठबन्धन को 90-95 सीटें और महागठबन्धन को 140-145 मिलनी चाहिए! लेकिन क्या यह मान लेना सही है?

CSDS-Lokniti का विश्लेषण

चुनाव विश्लेषण करने वाली संस्था सीएसडीएस-लोकनीति (CSDS-Lokniti) ने अभी हाल में इन्हीं आँकड़ों पर एक रोचक विश्लेषण किया। पिछले लोकसभा के नतीजों के आधार पर उसने सारे विधानसभा क्षेत्रों को चार हिस्सों में बाँटा। एक वह जहाँ बीजेपी चुनाव लड़ी थी और एनडीए को बढ़त मिली थी, इनमें 73 क्षेत्र ऐसे थे, जहाँ महागठबन्धन अपने सारे वोट मिला कर भी बीजेपी से कम से कम 5% वोटों से पीछे रहा था। यानी यह 73 सीटें बीजेपी जीत सकती है। दूसरे वह विधानसभा क्षेत्र जहाँ बीजेपी चुनाव लड़ी थी, लेकिन एनडीए पिछड़ गया था। ऐसे 29 विधानसभा क्षेत्रों में महागठबन्धन के कुल वोट एनडीए से 23% ज्यादा थे। यानी यह 29 सीटें महागठबन्धन को पक्की समझनी चाहिए। तीसरे वह 43 विधानसभा क्षेत्र जहाँ बीजेपी चुनाव नहीं लड़ी थी और जिनमें एनडीए पिछड़ा था। इनमें भी महागठबन्धन के कुल वोट एनडीए के मुकाबले 26% ज्यादा थे यानी यह 43 सीटें महागठबन्धन को आसानी से मिल सकती हैं। चौथे वह 98 विधानसभा क्षेत्र जहाँ बीजेपी नहीं लड़ी थी और एनडीए को बढ़त मिली थी। इन क्षेत्रों में महागठबन्धन के कुल वोट बीजेपी से महज 3% ज्यादा हैं। इनको बारीकी से देखें तो 17 विधानसभा क्षेत्रों में एनडीए के वोट महागठबन्धन से 10% ज्यादा थे यानी यह 17 सीटें आज भी एनडीए जीत सकता है। इसी तरह 22 क्षेत्रों में महागठबन्धन के वोट एनडीए से दल 10% ज्यादा थे यानी यह 22 सीटें आज महागठबन्धन जीत सकता है। इस तरह 73+17 यानी 90 सीटों पर बीजेपी गठबन्धन और 29+43+22 यानी 94 सीटों पर महागठबन्धन की जीत में ज्यादा अड़चन नहीं दिखती। बाकी 59 सीटें ऐसी हैं, जिनमें पिछले लोकसभा चुनाव में बीजेपी गठबन्धन और महागठबन्धन के बीच वोटों का अन्तर 10%  से कम था और यहाँ अन्तिम समय में नतीजे बदल सकते हैं। इन 59 सीटों में आधी सीटों पर दलितों की आबादी ज्यादा है और यहाँ माँझी-पासवान कार्ड नक्शा बदल सकता है।

समस्याएँ महागठबन्धन की!

अमित शाह के लिए भी और नीतीश के लिए गणित की इसी पहेली को सुलझाना सबसे बड़ी चुनौती है। बीजेपी गठबन्धन में तो कोई समस्या नहीं है, लेकिन महागठबन्धन को लेकर यह सवाल अभी तक पूछा जा रहा है कि क्या लालू के वोट नीतीश की पार्टी को और नीतीश के वोट लालू की पार्टी को ‘ट्राँसफर’ हो पायेंगे, यह सवाल जमीन पर अभी पूरी तरह सुलझा नहीं है। महागठबन्धन के सामने और भी समस्याएँ हैं, जैसे मुलायम सिंह और एनसीपी का आपस में तालमेल और वामपंथी दलों का अपना अलग मोर्चा बना कर चुनाव में कूदना, पप्पू यादव की पार्टी की यादव वोट काटने की कोशिश। कयास लग रहे हैं कि मुलायम सिंह यादव आखिर क्यों छिटक गये? कयास लग रहे हैं कि प्रधान मन्त्री नरेन्द्र मोदी ने सहारनपुर में मुलायम सिंह की इतनी तारीफ क्यों की? वैसे राजनीति में कभी-कभी मजेदार संयोग होते हैं, और कभी इन संयोगों के अर्थ होते भी हैं और कभी नहीं भी होते! संयोग ही है कि जिस दिन प्रधान मन्त्री मोदी मुलायम की तारीफ करते नहीं थक रहे थे, उसी दिन फिरोजाबाद में रामगोपाल यादव बयान दें रहे थे कि उनके या उनके परिवार के किसी व्यक्ति का यादव सिंह से कोई सम्बन्ध नहीं है! अब अर्थ आप निकालिए, अगर निकलता हो तो! कयास इस पर भी लग रहे हैं कि पप्पू यादव की जन अधिकार पार्टी इतने पैसे कहाँ से फूँक रही है?  शनिवार 12 सितम्बर को ही आखिर असदुद्दीन ओवैसी का बयान आ गया कि उनकी पार्टी मजलिस इत्तेहादुल मुसलिमीन बिहार के सीमाँचल में चुनाव मैदान में उतरेगी। जाहिर है कि महागठबन्धन के लिए यह नयी चिन्ता है।

हार महँगी पड़ेगी, इधर भी, उधर भी!

जाहिर है कि न नीतीश हारना चाहते हैं और न लालू! वरना दोनों ‘जहर का प्याला’ पीने को मजबूर न होते। अगर वह बिहार हारते हैं तो राजनीति में कहाँ बचेंगे, कितने प्रासंगिक रह जायेंगे या इन दोनों में से कौन बचेगा, अभी कहा नहीं जा सकता। इसलिए दोनों के लिए यह जी-जान की लड़ाई है। लेकिन उनके कार्यकर्ता भी क्या आपस में वैसी जी-जान लगा पायेंगे? और अमित शाह अगर बिहार जीतते हैं, तो वाकई कठिन लड़ाई जीतेंगे। और उन्हें शायद उसका कोई पुरस्कार भी मिले! लेकिन चर्चाएँ यही हैं कि चुनाव के नतीजे चाहे जो हों, 2016 के विधानसभा चुनाव बीजेपी शायद किसी नये अध्यक्ष के नेतृत्व में लड़े!

(देश मंथन, 12 सितंबर 2015)

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